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अब किधर जा रहा किसान आंदोलन, क्यों मिल रहा दलित, मुस्लिम समर्थन?

किसान न सिर्फ सियासी खलबली मचाए हुए हैं, साथ ही इस आंदोलन का असर ‘जातिगत समीकरणों’ पर भी खूब पड़ रहा है

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वीडियो एडिटर- आशुतोष भारद्वाज

कैमरा पर्सन- अथर राथर

राकेश टिकैत मुसलमानों से नारे लगवा रहे हैं तो जाटों से अल्लाह-हू-अकबर कहलवा रहे हैं. इसका मतलब क्या है? आखिर अब किस ओर बढ़ रहा है किसान आंदोलन और ये इतने दिनों तक कैसे सस्टेन हुआ? अल्पसंख्यकों और दलितों का इस आंदोलन से क्या सरोकार है? इन तमाम सवालों के जवाब समझने के लिए क्विंट ने दलित विचारक चंद्र भान प्रसाद से खास बातचीत की.

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पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी में क्या अलग है?

चंद्र भान प्रसाद इसे किसान आंदोलन की बजाय 'किसान अपराइजिंग' के तौर पर देखते हैं. जो पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी से शुरू हुआ है, ये वो इलाके हैं जहां ज्यादा अनाज पैदा होकर मंडियों में जाता है और प्रक्योरमेंट का सरकारी हब है.

चंद्र भान कहते हैं कि सतही तौर पर देखने पर पहले लगा कि ये सिखों का आंदोलन है, फिर पश्चिमी यूपी से लोग आए तो लगा कि ये जाट-सिख आंदोलन है. फिर ऐसा कहा गया कि अगर ये किसान आंदोलन ही है तो बनारस, इलाहाबाद, ईस्टर्न यूपी या फिर लखनऊ में क्यों नहीं होता?

ज्यादा उपज, खेती करने और जमीन के इस्तेमाल के तरीकों को वो इस आंदोलन में लोगों के शामिल होने की वजह बताते हैं.

 किसान न सिर्फ सियासी खलबली मचाए हुए हैं, साथ ही इस आंदोलन का असर ‘जातिगत समीकरणों’ पर भी खूब पड़ रहा है
पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी ऐसा क्षेत्र है जहां खुद खेतों के मालिक ही खुद खेती करते हैं. बनारस के 700 किमी के आसपास के जमीन के मालिक खुद खेती नहीं करते हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें हम ‘कास्ट हिंदू’ बोलते हैं. भारतीय कास्ट सिस्टम में एक ऐसा अपरकास्ट तबका है जिन्हें अंबेडकर ‘कास्ट हिंदू’ बोलते थे. मतलब वह हिंदू जो धर्म से ज्यादा कास्ट को अहमियत देते हैं. यहां पर जो कास्ट हिंदू हैं वे जमीन के मालिक तो हैं लेकिन खुद खेती नहीं करते और न ही उन्हें खेती करना आता है. इस दौर में ये लोग लोग अपनी खेती शेयर क्रॉपिंग पर दे देते हैं. ऐसे में ये लैंड अंडर यूटिलाइज होने की वजह से ज्यादा अनाज नहीं पैदा होता है. इसलिए आंदोलन यहां नहीं पहुंच पाया है.
चंद्र भान प्रसाद, दलित विचारक
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किसान आंदोलन को पुरजोर समर्थन क्यों दे रहे हैं दलित?

किसान आंदोलन में दलित समुदाय के हिस्सेदारी पर चंद्र भान प्रसाद कहते हैं कि दलित इस आंदोलन को पूरी तरह सपोर्ट कर रहे हैं. सिर्फ दलित ही नहीं वो सभी जातियां या धार्मिक समुदाय इसके समर्थन में हैं जिन्हें 'हिंदू कास्ट नेशन' से खतरा महसूस होता है. जातियां-धार्मिक समुदाय जो इतनी ताकतवर नहीं हैं कि खुद हिंदू नेशन के रथ को रोक सकें. अब ऐसे लोगों ने किसानों की ताकत को पहुंचाना है और अपना समर्थन दे रहे हैं, देते रहेंगे.

चंद्र भान कहते हैं कि दलित इस आंदोलन में अपने ' पुराने मालिकों' को लेकर भी राय बनाते हैं. दलितों के दो तरह के 'मालिक' हुआ करते थे.

 किसान न सिर्फ सियासी खलबली मचाए हुए हैं, साथ ही इस आंदोलन का असर ‘जातिगत समीकरणों’ पर भी खूब पड़ रहा है
एक ‘मालिक’ वो जो बनारस के 700-800 किलोमीटर के रेडियस में रहते थे, गैंगेटिक बेल्ट के आसपास. ऐसे ‘मालिक’ अपर कास्ट के लोग होते थे जो मालिक और प्रजा जैसा रिश्ता बनाए रखते थे. वहीं पंजाब, हरियाणा, वेस्टर्न यूपी में जो जाट लैंड लॉर्ड हैं वो दलितों ‘मालिक’ नहीं हुआ करते थे. इस लिहाज से अगर ये आंदोलन अपर कास्ट का होता तो दलितों को इससे कोई सहानुभूति नहीं होती, क्योंकि वो दलितों के मालिक हुआ करते थे और उन पर जुर्म करते थे. पंजाब में तो सिख धर्म के गुरुग्रंथ में रविदास शामिल हैं. अगर सिखों पर हमला होता है तो दलित सोचते हैं कि हम पर भी हमला है.
चंद्र भान प्रसाद

चंद्र भान का मानना है कि अपर कास्ट इस आंदोलन के खिलाफ हैं भले ही उनके पास खेत है या नहीं. तो दलित और अति पिछड़ा वर्ग को अब लगना शुरू हो जाएगा कि इस आंदोलन के पूरब की तरफ आने पर हमारे पहले वाले 'मालिक' खतरे में हैं या मिडिल कास्ट ने उनपर चढ़ाई की है. इससे ये संदेश दलितों में जाएगा कि हम अपमान का बदला नहीं ले पाए लेकिन अब मिडिल कास्ट, अपर कास्ट के खिलाफ खड़े हो रहे हैं.

इससे दलितों और अति पिछड़ा वर्ग में ये फीलिंग पैदा होगी कि हम तो कुछ नहीं कर पाए लेकिन ये मिडिल कास्ट वाले हमारा काम कर रहे हैं.
चंद्र भान प्रसाद
 किसान न सिर्फ सियासी खलबली मचाए हुए हैं, साथ ही इस आंदोलन का असर ‘जातिगत समीकरणों’ पर भी खूब पड़ रहा है
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किसान आंदोलन इतने दिनों से कैसे टिका हुआ है?

पिछले कुछ दशकों में कई आंदोलनों को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि ये आंदोलन अलग है. किसान आंदोलन महीनों से टिका है और अब भी इसके जज्बे में कमी आती नहीं दिख रही है. आखिर, वो कौन सा 'किक' है? चंद्र भान प्रसाद इसे समझाते हुए कहते हैं कि किसान 'प्रोफेशनल आंदोलनकारी' नहीं होता, जैसा कि ट्रेड यूनियन, फैक्ट्रियों में हड़ताल करने वाले कर्मचारी. लेकिन किसानों के लिए 'भावनाओं' का काफी महत्व होता है. इन किसान आंदोलनकारियों को जब दिल्ली शहर में जाने तक से रोक दिया गया तो ये उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने जैसा था.

किसान सोचने लगे कि क्या दिल्ली हमारी नहीं हैं? हुक्का पानी बंद कर दिया गया, कील ठोकने जैसा काम कर किसानों की भावनाओं को आहत किया गया है. और जब किसी के आत्म सम्मान पर हमला करेंगे तो वो जान दे देगा लेकिन सरेंडर नहीं करेगा.
चंद्र भान प्रसाद
 किसान न सिर्फ सियासी खलबली मचाए हुए हैं, साथ ही इस आंदोलन का असर ‘जातिगत समीकरणों’ पर भी खूब पड़ रहा है

'मिडिल कास्ट' अब मेन स्ट्रीम है

तीन किसान कानूनों के 'राजनीतिक विरोध' में चल रहा ये आंदोलन अब सामाजिक और जातिगत बदलाव भी ला रहा है. चंद्र भान प्रसाद कहते हैं कि 'मिडिल कास्ट' अब मेनस्ट्रीम हो चुका है, दरअसल, जो किसान खुद खेती करते हैं वो भारतीय वर्ण व्यवस्था से अपर कास्ट, दलित, लोअर ओबीसी से अलग हैं, ये- 'मिडिल कास्ट' हैं.

‘मिडिल कास्ट’ कभी भी मेन स्ट्रीम सोसाइटी में सम्मानित नहीं रहा है. अपर कास्ट ने इन्हें कभी इज्जत नहीं दी क्योंकि वे उनके सामने खड़े हो जाते थे. दलित भी इन्हें पसंद नहीं करते थे. दंगों में भी मुसलमानों के खिलाफ माने जाते थे पर इस आंदोलन ने मिडिल कास्ट को मेनस्ट्रीम कर दिया है.
चंद्र भान प्रसाद
 किसान न सिर्फ सियासी खलबली मचाए हुए हैं, साथ ही इस आंदोलन का असर ‘जातिगत समीकरणों’ पर भी खूब पड़ रहा है

चंद्र भान प्रसाद का कहना है कि ये मिडिल कास्ट अब अलग-अलग सामाजिक वर्गों के लिए अहम बन चुका है. इसलिए अब जो लैंड डायनमिक्स उभर रहा है, उसमें खेती-किसानी की जमीन फोकस में आ गई है, क्योंकि अगर ये जमीन हाथ से निकल गई तो फिर ये वर्ग कॉरपोरेट हाउस की 'प्रजा' रो जाएंगे.

चंद्र भान का मानना है कि किसानों को ये डर सता रहा है अगर ऐसा हुआ तो वो वैसे ही प्रजा की तरह हो जाएंगे जैसी प्रजा के तौर पर दलितों को हजारों साल तक गंगेटिक बेल्ट में रखा जाता था.

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