केंद्र सरकार कृषि विधेयकों पर नीति नहीं, राय बदलने की कोशिश कर रही है. लेकिन राम मंदिर विवाद की तरह इस बार निर्वाचित सरकार सारे फैसलों को अदालत के मत्थे नहीं मढ़ सकती ताकि उसकी अपनी इमेज साफ-सुथरी बनी रहे.
हजारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर ठिठुरती सर्दी के बीच धरने पर बैठे हैं. लगभग दो महीने बीत गए हैं. क्या यह सिर्फ उनकी अपनी राय, अपनी अवधारणा का सवाल है? यह एक त्रासदी है और सरकार सिर्फ अपनी नीति में बदलाव करके ही इस समस्या को हल कर सकती है.
इस लेखक ने दो हफ्ते पहले भी यही लिखा था कि सरकार पहले लोगों की राय को बदलने की कोशिश करेगी. उम्मीद थी कि पहले लोगों के इनकार को इकरार में बदला जाए.
सरकार और सत्ताधारी पार्टी के दावों से उलट, मध्यम वर्ग को किसानों से सहानुभूति है. किसान न्याय के लिए अपने जीवन और जीविका को दांव पर लगा रहे हैं. अब इस दलील पर कोई विश्वास नहीं करता कि किसानों को राजनैतिक या सैद्धांतिक तरीके से बरगलाया गया है. मध्यम वर्ग बौद्धिक रूप से भारतीय किसानों के पीछे खड़ा है- भले ही किसान किसी भी राज्य के हों, या कोई भी भाषा बोलते हों.
सुप्रीम कोर्ट की कमेटी की निष्पक्षता पर कौन भरोसा करता है
‘दूर दराज के गांव वालों’ और शहर वालों की यह एकजुटता किसी भी निर्वाचित सरकार के लिए चिंता की बात है. इससे पता चलता है कि हमारे गांवों में कुशासन और शोषण की जड़ें कितनी गहरी हैं. मध्यम वर्ग के दिलों दिमाग में भारतीय समाज की छवि तो कुछ और ही है. लेकिन दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों ने शहर वालों के ड्राइंग रूम्स में ग्रामीण भारत की छाया उतार दी. अब इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.
इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई है, उसका काम किसानों और सरकार के बीच गतिरोध को हल करना है. हालांकि कमिटी के चारों सदस्य कृषि विधेयकों के समर्थक महसूस होते हैं और ऐसी उम्मीद नहीं है कि वे इन विधेयकों को रद्द करने की सिफारिश करेंगे.
अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि कमेटी की निष्पक्षता पर कौन भरोसा करेगा?
किसान- नहीं, क्योंकि वो पहले ही इसे ठुकरा चुके हैं. शहरी मध्यम वर्ग- बिल्कुल नहीं, क्योंकि वो इन पैंतरों से अच्छी तरह वाकिफ है. ग्रामीण मध्यम वर्ग- बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि वो कृषि विधेयकों की चोट खाया हुआ है. बहुत गरीब लोग- सवाल ही नहीं पैदा होता, क्योंकि वे लोग अमीर लोगों के रहमो-करम पर होते हैं. अमीर लोग- शायद ही, क्योंकि वे ताकतवर होते हैं.
लेकिन न्याय व्यवस्था कमेटियों के निष्कर्षों को सही मानती है. इन निष्कर्षों को ऐतबार में बदला जाता है और ऐतराज करने वाले देश पर लागू किया जाता है.
किसानों के प्रति लोगों की राय बदलने की नाकाम कोशिश
किसानों के प्रति लोगों की राय को बदलने की कई कोशिशें की गईं:
- सबसे पहले किसानों को देशद्रोही (एंटी नेशनल) कहा गया. लेकिन ये दांव बेअसर रहा क्योंकि लोगों को किसानों और उनके आंदोलन से सहानुभूति है, भले ही वे उनके तरीकों से इत्तेफाक न रखते हों.
- दूसरा, ये कहा गया कि सिर्फ दो राज्यों के किसान आंदोलन कर रहे हैं. ये गलत था क्योंकि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों के किसानों के प्रतिनिधि भी धरने पर बैठे हैं.
- तीसरा, सत्ताधारी पार्टी ने आरोप लगाया कि सिर्फ बिचौलिये और आढतिये ही विरोध कर रहे हैं. यह पैंतरा नहीं चला. इसके बजाय लोगों का ध्यान बड़े कारोबारियों पर गया जोकि अब उपभोक्ताओं और किसानों के बीच बिचौलिये बन गए हैं.
- चौथा, राजस्थान-हरियाणा सीमा पर किसानों पर आंसू गैस फेंकने और पुलिसिया बर्बरता का मकसद यह था कि लोगों का ध्यान कृषि विधेयकों की जगह किसानों के धरना स्थल पर जाए. लेकिन ये आखिरी रणनीति नाकाम होती, इससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने दखल दे दी.
इस दौरान सरकार ने किसानों से आठ बार बातचीत की और वो भी विफल ही हुई. दिलचस्प ये है कि जिन किसानों से साथ एक तरफ बातचीत की जा रही थी, दूसरी तरफ उन्हीं के खिलाफ लोगों की राय बनाई जा रही थी.
अब क्या रास्ता है
जिस तरह किसानों के खिलाफ हवा बनाई जा रही है, उससे क्या पता चलता है? सरकार के रवैये से पता चलता है कि कृषि विधेयकों को वापस लेना उसके लिए अपमान के घूंट पीने जैसा है. हालांकि जिस तरह नेता लोग इन विधेयकों को व्यक्तिगत तौर पर ले रहे हैं, वो नादानी ही है.
चूंकि इन विधेयकों में इतनी कमियां हैं कि किसी भी नेता को उससे अपना नाम जोड़ने से परहेज करना चाहिए. इसके अलावा इस बात का भी आकलन किया जाना चाहिए कि किसानों की क्या मांगें हैं और सभी क्षेत्रों पर इन प्रदर्शनों का क्या असर होगा.
मध्यम वर्ग ये सोचता है कि अगर “मामला अदालत में है” तो हालात जस के तस हैं. यह राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जैसा मामला नहीं है जिसमें आम लोग एक तटस्थ दृष्टिकोण रख सकते हैं. इसका असर मध्यम वर्ग के हर उस शख्स पर तब-तब पड़ेगा जब-जब वह खाना खरीदेगा और खाना खाने बैठेगा.
इसका एक ही उपाय है- कृषि विधेयकों को रद्द किया जाए और उन्हें किसानों की सलाह से नए सिरे से तैयार किया जाए.
सरकार को ऐसा कोई काम क्यों नहीं करना चाहिए जो आम लोगों के पक्ष में हो?
इसके बजाय सरकार किसानों को बदनाम करने के नए तरीके क्यों ढूंढ रही है? धरना देने वाले करीब 50 किसानों की मौत हो चुकी है लेकिन सरकार को इससे कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? ये असली सवाल हैं जोकि सरकार और सत्ताधारी पार्टी के प्रति लोगों की धारणाओं को तहस-नहस कर रहे हैं. उनकी राय बदल रहे हैं.
(डॉ. कोटा नीलिमा एक लेखक और इंस्टीट्यूट ऑफ परसेप्शन स्टडीज में रिसर्चर हैं. वह ग्रामीण संकट और किसान आत्महत्याओं पर लिखती हैं. उनकी हालिया किताब का नाम- विडोज़ ऑफ विदर्भ, मेकिंग ऑफ शेडोज़ है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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