10 जून 2002, चेन्नई की खूबसूरत अन्ना यूनिवर्सिटी, जहां तकरीबन 300 छात्रों को एसएलवी 3 की खूबियों को समझाने में उनके अध्यापक कलाम व्यस्त थे. लेक्चर खत्म कर कलाम जैसे ही क्लास से बाहर निकले, प्रोफेसर कलानिधि गलियारे में मिल गए, जो कि अन्ना यूनिवर्सिटी के कुलपति भी थे. उन्होंने कहा कि उनके ऑफिस में दिल्ली से कई फोन आए हैं और कोई बेताबी से आपको खोज रहा है .
कलाम घर पहुंचे ही थे कि उन्हें फोन की घनघनाती घंटी सुनाई दी. फोन उठाते ही दूसरी तरफ से आवाज आई प्रधानमंत्री आपसे बात करना चाहते हैं. प्रधानमंत्री लाइन पर आते, इससे पहले कलाम का मोबाइल फोन बजने लगा. फोन उठाया तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू लाइन पर थे. छूटते ही कहा पीएम का फोन आने वाला है, ना मत कहना.
बात खत्म होते ही प्रधानमंत्री लाइन पर थे, पूछा, ''कलाम, आपका एकेडमिक करियर कैसा चल रहा है?'' कलाम ने कहा, ''बेहतरीन सर''. वाजपेयी बोले, ''हमारे पास आपके लिए एक बेहद अहम खबर है. मैं अभी अभी सहयोगी दलों की विशेष बैठक से आ रहा हूं. हमने तय किया है कि देश को राष्ट्रपति के रूप में आपकी जरूरत है. मुझे आज रात ही इसकी घोषणा करनी है. मुझे सहमति चाहिये और मुझे ना नहीं सुनना.''
कलाम ने कहा, ''वाजपेयी जी, क्या मुझे निर्णय लेने के लिए दो घंटे मिल सकते हैं?'' उन्होंने कहा, ‘‘आपकी सहमति मिलने के बाद मुझे विपक्ष के साथ आम सहमति बनाने का काम शुरू करना है.’’
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दो घंटे में कलाम ने राय विचार के लिए अपने सारे यार-दोस्तों को फोन कर लिया. दो घंटे के बाद कलाम ने वाजपेयी को फोन किया और कहा यह एक बड़ा मिशन है और मुझे सभी दलों का संयुक्त उम्मीदवार बनने में खुशी होगी. वाजपेयी ने कहा, हम पूरी कोशिश करेंगे.
उसी शाम वाजपेयी ने सोनिया गांधी से एनडीए के उम्मीदवार के बारे में बताया और समर्थन मांगा. सोनिया के यह पूछने पर क्या एनडीए की तरफ से कलाम फाइनल हैं, वाजपेयी ने 'हां' में जवाब दिया. अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श के बाद कांग्रेस ने कलाम का समर्थन कर दिया. पर वामपंथी दल नहीं माने. उन्होंने लक्ष्मी सहगल को अपना उम्मीदवार बनाया.
कैसे रेस से बाहर हुए वाजपेयी की पसंद अलेक्जेंडर
राष्ट्रपति की रेस में कलाम का नाम फाइनल होना बेहद अप्रत्याशित था. शायद कायनात को यही मंजूर था. इससे पहले राजनैतिक दांव-पेच का दंगल एनडीए के अंदर और बाहर खेला जा चुका था. कहानी शुरू हुई थी प्रधानमंत्री वाजपेयी, प्रमोद महाजन, शिवसेना सुप्रीमो बाला साहब ठाकरे और एनसीपी प्रमुख शरद पवार की पसंद रहे महाराष्ट्र के राज्यपाल और इंदिरा गांधी व राजीव के कभी विश्वस्त रहे पीसी अलेक्जेंडर के नाम से.
चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने से एक साल पहले वाजपेयी ने पीसी अलेक्जेंडर के नाम पर सोचना शुरू कर दिया था. मई 2001 में 7 आरसीआर यानी प्रधानमंत्री निवास पर अलेक्जेंडर की किताब इंडिया इन न्यू मिलेनियम का विमोचन करते हुए वाजपेयी ने कहा, ‘‘अलेक्जेंडर राज्यपाल ही नहीं राजगुरु भी हैं.’’ तब से उनके राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होने पर कयास लगने लगे थे. लेकिन जून 2002 आते-आते यह प्रक्रिया जोर मारने लगी.
एनडीए की 5 जून 2002 को हुई मंत्रिमंडल की राजनीतिक मामलों की समिति में अलेक्जेंडर के अलावा सिघवीं सहित कई नामों पर चर्चा हुई, लेकिन सहमति अलेक्जेंडर के नाम पर ही बनी.
राजनीतिक दांव-पेच कई स्तर पर चले जा रहे थे. ब्रजेश मिश्रा और नटवर सिंह एक स्तर पर चालें चल रहे थे, तो राष्ट्रपति चुनाव में 5 प्रतिशत वोट रखने वाले चंद्रबाबू नायडू दूसरे स्तर पर. एनडीए 1 में ताकतवर चंद्रबाबू नायडू उपराष्ट्रपति कृष्णकांत के लिए लॉबिंग कर रहे थे. वजह थी आंध्र प्रदेश के राज्यपाल होने के नाते कृष्णकांत से नायडू के पुराने संबंध.
वहीं कांग्रेस किसी कीमत पर अलेक्जेंडर को समर्थन देने को तैयार नहीं थी. कांग्रेस तत्कालीन राष्ट्रपति नारायणन को दूसरा टर्म देने के लिए मोर्चाबंदी कर रही थी. सोनिया की नाराजगी इंदिरा-राजीव के करीबी अलेक्जेंडर के एनडीए खेमे में चले जाने से थी. पीसी के मुताबिक, उनका खेल खराब करने में नटवर सिंह और प्रधानमंत्री वाजपेयी के बेहद करीबी और ताकतवर ब्रजेश मिश्रा का मिला-जुला हाथ था.
अपनी आत्मकथा थ्रू कॉरीडोर ऑफ पावर में अलेक्जेंडर लिखते हैं कि नटवर सिंह कृष्णकांत पर कांग्रेस की आम सहमति के एवज में खुद के लिए उपराष्ट्रपति का पद मांग रहे थे और सोनिया को उनके खिलाफ भड़काने में मुख्य किरदार नटवर सिंह ने निभाया था.
जब चंद्रबाबू नायडू के पैंतरे से चित हुए वाजपेयी
6 जून को आडवाणी के घर पर सहयोगी दलों के लिए दोपहर का भोज था, जहां चंद्रबाबू नायडू ने कृष्णकांत के नाम पर जोर दिया. लेकिन आडवाणी के अलेक्जेंडर पर कड़ा रुख लेने के बाद नायडू यह कहकर बाहर निकले कि उम्मीदवार आम सहमति का होना चाहिये और कृष्णकांत को उपराष्ट्रपति का दूसरा टर्म मिलना चाहिये.
वाजपेयी ने नायडू के इस पैंतरे को अलेक्जेंडर के नाम पर सहमति माना और प्रधानमंत्री ने 8 जून को फोन कर अलेक्जेंडर को बधाई दी. यह खबर आग की तरह फैल गई.
9 जून को नायडू को दिल्ली आना था, जिसमें सहयोगी दलों की बैठक में अलेक्जेंडर के नाम की अधिकारिक घोषणा होनी थी. लेकिन खबर फैलते ही नायडू ने दिल्ली आना टाल दिया. एनडीए के एकतरफा ऐलान को नायडू ने इज्जत का सवाल बना लिया और मुकर गए कि वो कभी अलेक्जेंडर के नाम पर सहमत हुए थे.
समय बीतता जा रहा था. आनन-फानन में नायडू को मनाने प्रमोद महाजन को 10 जून को हैदराबाद भेजा गया, लेकिन नायडू नहीं माने. नायडू के दबाब के बाद ब्रजेश मिश्रा ने नटवर सिंह को अपने पास बुलाकर कृष्णकांत पर समर्थन की संभावना को टटोला, तो नायडू ने अपनी चालें सफल होता देख कृष्णकांत को फोन कर उन्हें बधाई दी.
वाजपेयी ने एनडीए संयोजक जार्ज फर्नांडिस को बुलाकर कृष्णकांत पर एनडीए दलों की राय टटोलने को कहा लेकिन कृष्णकांत पर कोई दल तैयार नहीं हो रहा था. शिवसेना ने तो कृष्णकांत के प्रत्याशी बनाने पर गठबंधन से अलग होने की बात कह दी. कृष्णकांत को प्रत्याशी बनाना नायडू और कांग्रेस की जीत होती और बीजेपी की हार. समय निकलता जा रहा था. वाजपेयी नायडू को नाराज भी करना नहीं चाहते थे और कृष्णकांत को राष्ट्रपति बनाना भी नहीं.
वाजपेयी ने कैसे बदला खेल?
आडवाणी के घर पर कोर ग्रुप की आपात बैठक बुलाई गई और उसी चर्चा में बाकी बचे नामों में कलाम के नाम का जिक्र हुआ. वाजपेयी को कलाम पर हुई चर्चा के बारे में सूचित किया गया.
वाजपेयी ने एक सेकेंड भी नहीं लगाया कलाम के नाम पर हां करने में. वाजपेयी को पता था वो क्या कर रहे हैं. एक तीर से दो निशाने हो गए. मुलायम और नायडू ने थोड़े दिन पहले कलाम का नाम चलाया था. कलाम के नाम पर सहमति से मुलायम और नायडू को अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिल गया.
कांग्रेस के पास 'मिसाइल मैन' का विरोध करने का कोई कारण नहीं बचा था. बीजेपी को मुलायम के सहारे विपक्षी एकता तोड़कर कृष्णकांत को हटाने का सुनहरा मौका मिल गया और देश को पहली बार गैर राजनीतिक राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के रूप में मिला. बाकी सब इतिहास है कि कैसे कलाम ने राष्ट्रपति भवन के दरवाजे जनता के लिए खोल दिए और सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति का खिताब पाया.
(शंकर अर्निमेष जाने-माने जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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