गौरी लंकेश की हत्या की खबर सुनकर मैं सन्न रह गया. लेकिन हैरान कतई नहीं हुआ. ये सुनकर आपको आश्चर्य हो सकता है. चारों तरफ नफरत का जो माहौल है, उसमे कौन कब 'ऑबिचरी' बन जाये क्या पता. लंकेश पहली शख्स नहीं है. उनके पहले कलबुर्गी, पंसारे, डाभोलकर ऐसे ही हत्यारों की गोली का शिकार बन चुके हैं और ढेरों ऐसे लोग है आज के माहौल में नित प्रतिदिन हिंसा का शिकार हो रहे हैं.
कोई इसलिये मार दिया जा रहा है कि उसका खाना दूसरे को पसंद नहीं है. किसी को इसलिये जान देनी पड़ी कि वो किसी एक ऐसे धर्म को मानने वाला है जिसे अगला आदमी नफरत करता है. कोई किसी की जाति से चिढ़ा हुआ है तो कोई किसी के कपड़े को ही नापसंद करता है कहता है कि ये कपड़े भारतीय संस्कृति से मेल नहीं खाते, इसलिये उसे मर जाना चाहिये.
किसी के मुंह पर कालिख पोत दी जाती है क्योंकि वो ऐसी किताब को लिखने का साहस करता है. जो पाकिस्तान समस्या को संजीदा मन से सुलझाने का पक्षधर है. सड़क पर एक विधायक इसलिये किसी एक्टिविस्ट को गिरा गिरा कर मारता है क्योंकि वो उसकी नजर में देशद्रोही है. एक प्रखर छात्र को न्यायालय की परिधि में जमकर पीट दिया जाता है क्योंकि वो जेएनयू जैसी जगह मे पढ़ रहा है और कश्मीर पर उसकी राय "देशप्रमियों" की राय से मेल नहीं खाती.
सोशल मीडिया पर आप जरा सा कुछ लिखिये और आपको फौरन ही गालियों की बौछार मिलनी शुरू हो जाती है. मां बहन की गालियां तो आम है. जान से मारने की धमकी खुलेआम दी जाती है. महिलाओं को बलात्कार का पाठ पढ़ाया जाता है.
ये नफरत का माहौल पिछले दिनों काफी तेजी से पनपा और फल फूल रहा है. इसमें संजीदा तरीके से बात करने के अवसर खत्म हो गये है. हर बात में धमकी और हिंसा का इशारा है.
लंकेश का कत्ल इस नफरत ने किया है. कत्ल करने वाले हाथ तो इंसान के है. गोली किसी बंदूक से निकली. हत्यारे मोटरसाइकिल से आये थे. गोली चलाई और भाग लिये. पुलिस उनकी तलाश कर रही है. हो सकता है उन्हें पकड़ ले. हो सकता है वो पकड़ में न आयें. पकड़ लिये जायें तो ये न सोच लिया जाये कि कानून ने अपना काम किया. पकड़े गये इसलिये आगे फिर किसी पत्रकार की हत्या नहीं होगी. क्योंकि कातिल तो जेल पंहुच गये.
और हम ये सोचने लगे कि अब फिर से विचारों की स्वतंत्रता आजाद हवा में सांस लेने लगेगी. विचारों पर टकराव तो होगा पर कत्ल नहीं होगा. जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा.
विचारधारा है कातिल!
लंकेश का कत्ल किसी गोली ने नहीं किया. उसका कत्ल उस विचारधारा ने किया है जो हिंसा में यकीन रखती है, जो ऐसे कत्ल को धार्मिक और राष्ट्रीय कर्तव्य मानती है. ये विचारधारा पूरी दुनिया में मजबूत होती जा रही है. इसके अलग-अलग नाम है, अलग अलग धर्म है. पर इसका उद्देश्य एक ही है. अपने विचारों के आगे किसी और विचार को पनपने न दो और जरूरत पड़े तो विरोधी विचार रखने वालों को खत्म कर दो.
गांधी जी का कत्ल ऐसी ही एक विचारधारा ने किया था. गोली गोडसे की थी पर कत्ल करने का इशारा उस सोच का था जो गांधी जी की 'सबको साथ में ले कर चलने के' विचार से घृणा करती थी.
गांधी जी का दोष क्या था ?
वो सत्य अहिंसा की बात करते थे. इंसान से इंसान को जोड़ने की बात करते थे. वो "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" का जाप करते थे. वो खांटी हिंदू थे. हिंदू धर्म का पूरी तरह से पालन करते थे. पर वो मुसलमानों से भी उतना ही प्रेम करते थे जितना हिंदुओं से. और शायद यही बात उनके कातिलों को अच्छी नहीं लगी.
उस वक्त द्वि-राष्ट्रवाद के नाम पर पूरी फिजा में जहर घोला जा रहा था. एक तरफ 'मुस्लिमपरस्त'. थे दूसरी तरफ 'हिंदुत्वपरस्त'. इनके बीच में गांधी जी अडिग दीवार की तरह खड़े थे. गांधी जी के रहते दोनों की इच्छा पूर्ति नहीं हो सकती थी. लिहाजा गोली चली.
तब देश के गृहमंत्री सरदार पटेल थे जिन्हें आज हिंदुत्ववादी अपना नायक मानते है. पटेल ने 11 सितंबर, 1948 को एक चिठ्ठी एम एस गोलवलकर को लिखी थी. गांधी जी की हत्या और आरएसएस पर प्रतिबंध के संदर्भ में.
पटेल लिखते हैं - "इस बात में कोई शक नहीं है कि संघ ने हिंदू समाज की बहुत सेवा की है. जिन क्षेत्रों में मदद की आवश्यकता थी उन जगहों पर आपके लोग पंहुचे और श्रेष्ठ काम किया. मुझे लगता है कि इस सच को स्वीकारने में किसी को भी आपत्ति नहीं होगी. लेकिन सारी समस्या तब शुरू होती है जब ये लोग मुसलमानों से प्रतिशोध लेने के लिये कदम उठाते हैं. उन पर हमलों करते हैं.... इसके अलावा देश की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस पर आपलोग जिस तरह के हमले करते हैं उसमे आपके लोग सारी मर्यादायें, सम्मान को ताक पर रख देते हैं. देश में एक अस्थिरता का माहौल पैदा करने की कोशिश की जा रही है. संघ के लोगों के भाषण में सांप्रदायिकता का जहर भरा होता है. हिंदुओं की रक्षा करने के लिये नफरत फैलाने की क्या आवश्यकता है ? इसी नफरत की लहर के कारण देश ने अपना पिता खो दिया. महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई."
गांधी जी की हत्या में आरएसएस का हाथ!
गांधी जी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे गिरफ्तार कर लिया गया. उसे फांसी की सजा हुई. हिंदुत्ववाद के प्रेरणा पुरूष विनायक दामोदर सावरकर भी जेल गये. पर सावरकर पर आरोप साबित नहीं हुये. संघ पर बैन लगा दिया गया. संघ प्रमुख गोलवलकर को गिरफ़्तार कर लिया गया. बाद में पटेल की शर्तें मानने के बाद संघ पर से बैन उठा.
आलोचक लगातार गांधी जी की हत्या के लिये आरएसएस को कठघरे में खड़ा करते रहे पर ये कभी साबित नहीं हो पाया कि गांधी जी की हत्या में आरएसएस का हाथ था.
गोडसे का अदालत में दिया बयान चौंकाने वाला है. गोडसे के गुरू सावरकर के वैचारिक तर्क हिंसा और कत्ल की राजनीति को सही ठहराते हैं. गोडसे ने जिन कारणों से गांधी जी की हत्या को जायज ठहराया वैसा ही खतरनाक माहौल और विचार देश भर में फैलाने का प्रयास किया जा रहा है.
अगर ये कृत्य मुझसे नहीं होता तो बेहतर होता. लेकिन परिस्थितियां मेरे नियंत्रण के बाहर थी. मेरे मन के उद्वेग इतने आवेगी थे कि मुझे ये लगता था कि इस व्यक्ति को स्वाभाविक मौत नहीं मिलनी चाहिये ताकि दुनिया को पता चले कि उसे अपनी अन्यायपूर्ण, देशविरोधी और देश के एक तबके का खतरनाक तरीके से पक्ष लेने की कीमत चुकानी पड़ी है.नाथूराम गोडसे
गांधी जी की हत्या नहीं हुई, सजा मिली!
जिन गांधी जी ने देश को आजादी दिलाई और अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया उन्हे गोडसे देशद्रोही बता रहा है. सिर्फ इसलिये कि उसको गांधी जी मुसलमानों का पक्ष लेते दिखते हैं. और इस आधार पर वो गांधी जी को देशद्रोही करार दे कत्ल कर देता है. वो गांधी जी की हत्या नहीं कर रहा था वो उन्हें सजा दे रहा था.
गांधी जी का अपराध इतना था कि उनके विचार और गोडसे के विचार देश, राष्ट्र और समाज को लेकर अलग अलग थे. आज देश मे यहीं तो हो रहा है. किसी भी शख्स को पाकिस्तान के मसले पर, कश्मीर के सवाल पर देशद्रोही बताया जा रहा है. और अपनी हिंसा को सही ठहराया जा रहा है. इस माहौल में कब कौन गोडसे पैदा हो जाये किसे पता ?
जिस तरह से कट्टरवादी इस्लामी संगठन जेहाद के नाम, मजहब के नाम पर हिंसा को उचित ठहरा रहे हैं, उसे नैतिक बता रहे हैं और आतंकवादियों की फौज पैदा कर रहे हैं वैसा ही काम सावरकर ने भी किया. 1857 की क्रांति पर सावरकर ने एक किताब लिखी थी. इस किताब में कानपुर में अंग्रेजों के मासूम बच्चों और महिलाओं के सामूहिक कत्लेआम का जिक्र है. इस तरह की हिंसा भारतीय इतिहास में विरले ही मिलती है. सावरकर इस हत्या को सही ठहराते है.
सावरकर कहते हैं, "जहां जहां अन्याय की परमावधि होती है और राष्ट्र के राष्ट्र सुलग उठते हैं, जहां जहां राष्ट्रीय युद्ध लड़े जाते है वहां वहां 'राष्ट्रीय अन्याय' का प्रतिशोध 'राष्ट्रीय वध' से ही लिया जाता है." इतिहासकार कानपुर के नरसंहार को भारतीय इतिहास का काला अध्याय मानते है पर सावरकर उसे "ग्लोरिफाई" कर "वध" कहते है. वध को हिंदू शास्त्रों में धार्मिक कर्म माना गया है. जब उनसे पूछा गया कि उन मासूम महिलाओं और बच्चों का क्या कसूर तो उन्होने एक किस्से के हवाले से कहा "सांपों को मारकर कोई उनके बच्चों को जिंदा रखता है क्या ?"
महिलाओं के बलात्कार को सही मानते थे सावरकर
ये वे सावरकर थे जो तब तक कालापानी नहीं गये थे. वो प्रखर राष्ट्रवादी थे और हिंदुत्ववादी नहीं हुये थे. सावरकर बाद में और कटु और कट्टरवादी हो जाते हैं. यहां तक कि वो ऐतिहासिक संदर्भों में दुश्मन समुदाय की महिलाओं के बलात्कार को भी सही मानने लगते हैं.
वो कहते है कि हिंदू सहिष्णु है ये कोई गुण न हो कर "सद्गगुण विकृति" है जिसने हिंदू धर्म का नुकसान किया. हिंसा उनकी नजर में जायज थी वैसे ही जैसे कि वामपंथी विचारधारा और देशों में हिंसा को सही माना गया और विचारधारा की बलि पर करोड़ों निर्दोष लोगों की जान ली गई.
आजकल वहाबी संगठन इसी तरह से मासूमों का कत्ल कर रहे हैं और उसे इस्लाम के नाम पर ग्लोरिफाई कर रहे हैं. गोडसे सावरकर के शिष्य थे. उनसे प्रभावित थे. हालांकि कहा तो ये भी जाता है कि गांधी की हत्या की साजिश सावरकर ने रची थी और गोडसे ने अंजाम दिया था.
षड्यंत्र का मुकदमा भी उन पर चला पर वो बरी हो गये थे. पर ये सच है कि सावरकर जैसे लोग जब हिंसा को राष्ट्रहित मे सही ठहराते है तब गोडसे जैसे लोग पैदा होते है. लंकेश की हत्या फिर यही सवाल खड़े करती है.
सोच समझकर आजादी के बाद लोकतंत्र अपनाया
देश ने काफी सोच समझ के आजादी के बाद लोकतंत्र को अपनाया. संविधान में वाणी और धर्म की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार दिया. कानून का शासन अपनाया. ये तय हुआ कि मतभेदों का निराकरण बातचीत और बहस के जरिये होगा. और अगर बातचीत से हल नहीं निकला तो अदालत का फैसला मानेंगे.
कहीं भी ये नहीं कहा गया कि हिंसा समाधान खोजेगी, हत्या कर के देश को मजबूत करेंगे. कत्ल करने का अधिकार अदालतों को है. ये अधिकार न राष्ट्रपति को है और न ही प्रधानमंत्री को. अदालत तय करेगी कि किसे मौत की सजा दी जायेगी और किसे नहीं. तब देश ने गांधी की अहिंसा को तरजीह दी थी, सावरकर की विचारधारा को रिजेक्ट कर दिया था. हिंसा को हर मायने में गलत कहा गया. किसी भी तरह से उसको जस्टिफाई नहीं किया गया. पर पिछले कुछ सालों में सावरकर को नये सिरे से जिंदा किया जा रहा है.
हिंसा और नफरत को 'ग्लोरिफाई' करने का उपक्रम जारी है. आज देश के नाम पर, राष्ट्र के नाम पर, हिंदू मुसलमान के नाम पर, पुरानी संस्कृति के नाम पर, नव जागरण के नाम पर हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है. सोशल मीडिया पर देश के बड़े बड़े लोग उन लोगों को फॉलो करते हैं जो पुरुषों के कत्ल की और महिलाओं के साथ बलात्कार की धमकी देते हैं. तो क्या माना जाये ये हिंसा प्रायोजित है? विचारधारा के नाम पर, धर्म के नाम पर, देश के नाम पर ? अगर ऐसा है तो ये अत्यंत खौफनाक बात है. गौरी लंकेश की मौत ये इशारा करती है कि अगर अब नही उठे तो शायद ये देश न बचे, वो देश जिससे हम और आप प्यार करते हैं.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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