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गोवा में सरकार गठन पर बीजेपी का तर्क अजीबोगरीब-आशुतोष

गोवा हो या मणिपुर, बीजेपी नंबर दो है, तो क्या फर्क पड़ता है. विधायक खरीदो, सत्ता हथियाओ, यही नया नियम है.

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गोवा में सरकार बनाने के मसले पर बीजेपी नेताओं के बयान को देखकर मैं चौंक गया. वेंकैया नायडू का तर्क है कि 2013 में दिल्ली में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, पर सरकार बनाई आम आदमी पार्टी ने, जिसके पास बीजेपी से चार सीटें कम थीं. 'आप' ने सरकार बनाई, क्योंकि उसे कांग्रेस की आठ सीटों का समर्थन मिला और वो बहुमत साबित कर पाई, तो ये कहना गलत है कि सबसे बड़ी पार्टी को ही सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए.

इस लिहाज से बीजेपी कह रही है कि विपक्ष का ये आरोप निराधार है कि गोवा में बीजेपी ने धनबल का सहारा लेकर संविधान की धज्जियां उड़ाईं.

वेंकैया नायडू वरिष्ठ नेता हैं. उनका सम्मान है, पर ये बात अगर बीजेपी का कोई दोयम दर्जे का नेता कहता, तो बात हजम होती. पर पार्टी के अध्यक्ष रह चुके वेंकैया का ये कहना हास्यास्पद है. वो लोगों को गुमराह कर रहे हैं.

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ये सच है कि बीजेपी ने अपने सहयोगी अकाली दल के एक विधायक समेत 32 सीटें जीती थीं. ‘आप’ के पास 28 विधायक थे और वो दूसरे नंबर पर थी. कांग्रेस बस आठ सीट ही जीत पाई. कोई भी पार्टी अपने बल पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी.

'आप' नई पार्टी थी. उसने भ्रष्टाचार और जोड़-तोड़ का जमकर विरोध किया था चुनाव के दौरान. परिणाम आते ही 'आप' नेताओं की पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी कि हमें सरकार बनाने के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए और विपक्ष में बैठना चाहिए. पार्टी की अंदरूनी बैठक में ये तय पाया गया कि जोड़-तोड़ से बनी सरकार ज्‍यादा नहीं चलेगी और गिर जाएगी. फिर 'आप' को पूर्ण बहुमत का मौका मिलेगा. यही बात 'आप' नेतृत्‍व ने उपराज्यपाल नजीब जंग को कही थी.

पार्टी पूरी तरह विपक्ष में बैठने के तैयार थी. उन दिनों मैं आईबीएन-7 में मैनेजिंग एडिटर के पद पर था. अरविंद ने जब मुझसे पूछा कि क्या करना चाहिए, तो मेरी साफ सलाह थी कि सरकार बनाने की कोई भी कोशिश पार्टी के लिए घातक होगी. 'आप' से लोगों की अपेक्षाएं अलग तरह की हैं.

पार्टी ने विपक्ष में बैठने का फैसला कर लिया. बीजेपी ने भी उपराज्यपाल से कह दिया कि वो सरकार नहीं बनाएंगे. तब मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हर्षवर्धन ने 12 दिसंबर को कहा था कि हमारे पास सरकार बनाने लायक संख्या नहीं है, लिहाजा हम विपक्ष में बैठकर जनता की सेवा करेंगे. हम तब ही सरकार बनाएंगे, जब हमारे पास पूर्ण बहुमत होगा. उसी शाम पार्टी के प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने कहा बीजेपी सरकार बनाने की कोशिश नहीं करेगी. 'आप' सरकार बनाने को इच्छुक थी, वो चाहे तो कोशिश कर ले.

इस बीच अखबारों में कांग्रेस की तरफ से ये बयान आए कि वो सरकार बनाने के लिए ‘आप’ को समर्थन दे सकती है. पार्टी ने पहले इसको गंभीरता से नहीं लिया. पर जब ये आवाज और तेज हुई, तो पार्टी में ये सवाल उठा कि कांग्रेस के समर्थन के ऐलान के बाद अगर ‘आप’ सरकार नहीं बनाती और दिल्ली में दोबारा चुनाव होते हैं, तो लोग राजधानी पर दोबारा चुनाव थोपने के लिए ‘आप’ को जिम्मेदार मानेंगे.

लोग ये भी मान सकते हैं कि 'आप' सरकार बनाने की जि‍म्मेदारी से भाग गई. नुकसान के खतरे को देखते हुए पार्टी में दोबारा चर्चा शुरू हुई. क्या सरकार बनाई जाए? क्या कांग्रेस का समर्थन लेना ठीक होगा? उस कांग्रेस का, जिसके भ्रष्टाचार को पार्टी ने बड़ा मुद्दा बनाया था. विकट स्थिति थी. जि‍म्मेदारी से भागना अच्छी रणनीति नहीं होगी.

मैं स्टूडियो में था कि खबर आई कि 'आप' सरकार बनाने पर पुनर्विचार कर सकती है. ऐसा हिंट कुमार विश्वास के बयान से आया. मैंने फौरन योगेंद्र यादव को फोन किया. उन्हें भी पूरी जानकारी नहीं थी. तभी मेरे संवाददाता का फोन आया कि हां, रुख में कुछ बदलाव है.

खबर आई कि 14 दिसंबर की रात को कांग्रेस के दिल्ली प्रभारी शकील अहमद के हस्ताक्षर से उपराज्यपाल को एक चिट्ठी गई है, जिसमें 'आप' को समर्थन की बात लिखी है. मैंने पार्टी नेताओं से बात की, तो बात कन्‍फर्म हो गई. सच्‍चाई ये है कि 'आप' और कांग्रेस के किसी भी नेता से सरकार बनाने या समर्थन लेने पर कोई औपचारिक बातचीत नहीं हुई थी.

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कांग्रेस ने समर्थन की चिट्ठी भी अपने मन से ही दी थी. पार्टी के एक तबके का मानना था कि इंदिरा गांधी ने जिस तरह से 1979 में चरण सिंह को फंसाकर मोरारजी की सरकार गिरायी और जनता पार्टी के नेताओं को सत्तालोलुप साबित किया, वैसा ही कुछ खेल इस बार ‘आप’ के साथ कांग्रेस खेल रही है और ‘आप’ को इस जाल में नहीं फंसना चाहिए.

परिस्थितियां बदल चुकी थीं. समर्थन की चिट्ठी के बाद ये राय बनी कि दिल्ली को फौरन चुनाव में झोंकने का संदेश गलत जाएगा, लोग बुरा मानेंगे. मौजूदा हालत का सामना करने के लिये 18 मुद्दों पर पार्टी की तरफ से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक चिट्ठी लिखी गई और लोकपाल जैसे मुद्दों पर राय साफ करने को कहा गया. फिर ये भी तय किया गया कि कांग्रेस से समर्थन लेने का फैसला जनता से पूछकर ही करना चाहिए.

इस बारे में एसएमएस पर लोगों की राय ली गई. 6 लाख एसएमएस आए कि 'आप' को सरकार बनानी चाहिये. फिर रायशुमारी भी की गयी.

दिल्ली के हर वार्ड में जनसभा करके लोगों की राय मांगी गई. 272 में से ढाई सौ से भी अधिक जनसभाओं में लोगों ने हाथ उठाकर कांग्रेस की मदद से सरकार गठन का समर्थन किया. भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ, जब सरकार लोगों की राय लेकर बनायी गयी, वर्ना सारा खेल पैसे को लेकर, खरीद-फरोख्‍त कर, गुंडागर्दी करके होती है. यहां सारा काम जनता के सामने, जनता की राय से किया गया.

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कैबिनेट गठन में कांग्रेस से कोई मशविरा नहीं हुआ. हम बार-बार ये कहते रहे कि कांग्रेस ने ‘आप’ को समर्थन दिया है, ‘आप’ ने न मांगा और न लिया. परिस्थिति ऐसी बन गई थी कि सरकार न बनाना पार्टी को गैर-जिम्मेदार साबित कर देता.

कैबिनेट में भी किसी कांग्रेसी को जगह नहीं दी गई. कांग्रेस की अजीबोगरीब स्थिति थी. वो न तीन में थे और न तेरह में.

वेंकैया नायडू ये सारे तथ्य छुपा गये. उनको ये भी बता दें कि 2013 में उपराज्यपाल ने 'आप' को बुलाकर सरकार बनाने का न्योता दिया था. मनोहर पार्रिकर की तरह सरकार बनाने के लिये खुद राज्यपाल के पास नहीं गये थे. गोवा में राज्यपाल ने बीजेपी को बुलाया नहीं, सरकार बनाने का न्‍योता दिया नहीं, बीजेपी ने खुद ही न्योता ले लिया. गोवा के राज्यपाल की भूमिका पर संविधान के हिसाब से काम न करने के आरोप लग रहे हैं. 2013 में ऐसा कोई भी आरोप नहीं लगा था.

तब बीजेपी नैतिकतावादी बन रही थी, इस बार उसने नैतिकता को नोचकर फेंक दिया. उसने नंबर दो पार्टी होने के बाद भी आनन-फानन में छोटी पार्टियों और निर्दलीयों का समर्थन लेने का दावा किया और सभी को मंत्री भी बना दिया, क्यों? जमकर लेन-देन का खुला खेल हुआ. संविधान की धज्जियां उड़ीं. 2013 में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था.

पर उत्तराखंड व अरुणाचल प्रदेश में सरकारों की बर्खास्‍तगी और फिर सुप्रीम कोर्ट की डांट का भी कोई असर आज नहीं पड़ता. ऐसे में गोवा हो या मणिपुर, बीजेपी नंबर दो है, तो क्या फर्क पड़ता है. विधायक खरीदो, सत्ता हथियाओ, यही नया नियम है. नैतिकता और संविधान की चिंता गई भांड में.

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(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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