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क्या खुद को अच्छा हिंदू साबित करने के लिए हमें ये टेस्ट देना होगा?

दक्षिणपंथी संगठन हाल में हिंदुओं की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश करते रहे हैं

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पिछले दस पंद्रह दिनों में अलग-अलग शहरों में कई घटनाएं एक साथ घटी हैं. इन्हें साथ रखकर देखने पर देश के सच की एक पुरानी कहानी के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं. डासना में एक मुस्लिम लड़के को मंदिर के अंदर से पानी पीने पर पीटा गया.

देहरादून में मंदिर के बाहर बोर्ड लगा दिया गया कि गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है. कोलकाता में बीजेपी सांसद ने मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी पर हिंदू धर्म के अपमान का आरोप लगाया. इस तरह हिंसा, घृणा, और नफरत को रोजमर्रापने में शामिल कर दिया गया है. हिंदुत्व की इस परिभाषा में दबंगई का ऐलान है. रुआब गांठने की फितरत है. क्या हम यह कह सकते हैं कि हिंदू धर्म को एक तरह से अगवा कर लिया गया है?

यह हिंदूपना संघ परिवार का गढ़ा हुआ है

पिछले कई सालों में हिंदू और गैर हिंदुओं के बीच एक साफ लकीर खींच दी गई है. गैर हिंदू में मुसलमान और ईसाई हैं. हिंदुओं की परिभाषा बड़ी हुई है. इसमें मुसलमानों और हिंदुओं से इतर लोग आते हैं. साथ-साथ बीजेपी के दलित और ओबीसी समर्थक बढ़े हैं, और यह इसका उदाहरण है. चूंकि चुनावों पर टिके संसदीय जनतंत्र में संख्या की जरूरत होती है, इसीलिए बीते सालों में इन दोनों समुदायों की आकांक्षाओं को सांस्कृतिक प्रतीकात्मकता में बदल दिया गया है.

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किसी को हैरानी हो सकती है कि हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने वाले वीर सावरकर जाति व्यवस्था को ‘मूखर्ता’ कहा करते थे. उनका कहना था कि इस व्यवस्था को खत्म कर दिया जाना चाहिए.

चूंकि जाति व्यवस्था ने हिंदुओं को अलग-अलग हिस्सों में बांटा है, तभी वे विदेशियों के हमलों के शिकार हुए हैं. वीर सावरकर का मानना था कि प्राचीन हिंदु सांस्कृतिक विरासत में हर जाति के व्यक्ति को एक बराबर हिस्सेदार बनाया जाए. बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने अभियानों में यह कोशिश की एक बिरादराना हिंदू समाज की स्थापना की जाए.

हाल के वर्षों में बीजेपी ने हिंदुओं को एक समूह में बदलने की कोशिश की है. वह दलितों और दूसरी पिछड़ी जातियों को अपने झंडे तले ले आई. ऐसा माना गया कि इससे जातियों की संकीर्ण पहचान मिटेगी और सत्ता में उन्हें हिस्सेदारी मिलेगी.

इसका फायदा धनुक, मौर्य, शक्य, धोबी, खटिक, राजभर, पासी जैसी जातियों को मिला और उन्होंने चुनावों में बीजेपी का समर्थन किया. कुल मिलाकर हिंदुत्व की नई परिभाषा ने राजनैतिक स्तर पर विभिन्न जातियों के बीच ‘काल्पनिक’ एकता को गढ़ने का काम किया. लेकिन इसमें कितना सच है?

पर जाति तो कभी नहीं जाती

जैसा कि फ्रेंच पॉलिटिकल साइंटिस्ट क्रिस्टॉफ जेफरलॉट कहते हैं, हिंदू राष्ट्रवाद का समाजशास्त्र बहुत जटिल है. परंपरागत रूप से संघ परिवार को अपर कास्ट का समर्थन रहा है. आरएसएस मुख्य रूप से ब्राह्मणों का संगठन रहा है और जनसंघ बनिया ब्राह्मण लोगों की पार्टी के तौर पर जानी जाती थी.

बीजेपी ने भी यही कैरेक्टर पकड़े रखा लेकिन कथित निम्न जातियों के वोटर्स को भी लुभाना शुरू कर दिया. उसने ओबीसी और दलितों को कहा, अपनी जाति भूल जाओ. सोचो कि तुम पहले हिंदू हो. इसका फायदा भी हुआ. 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 131 सीटों में से 77 सीटें मिलीं, जबकि 2014 में यह आंकड़ा 67 सीटों का था.

लेकिन हिंदुत्व की इस अवधारणा में तमाम गड़बड़ियां हैं. चूंकि राजनीतिक और सांस्कृतिक मंच पर एकता का दावा करने के बावजूद सामाजिक संरचना में सब कुछ जातियों के आधार पर बंटा हुआ है. दो जाति समूह एक दूसरे को फूटी आंख नहीं भाते. उनके बीच सामाजिक और पारिवारिक संबंध नहीं बनाए जाते.

वे उन्हीं सांस्कृतिक मानदंडों के मुताबिक चलते हैं, जो सदियों से कायम हैं. जैसे विवाह संस्कार को ही ले लीजिए. वह सिर्फ अपनी जातियों में संपन्न होता था लेकिन अपने गोत्र में नहीं. इसके अलावा दलितों के साथ हिंसा, और बलात्कार जैसी घटनाएं जातिगत श्रेष्ठता और उसके अधिकार के अहंकार का ही नतीजा हैं. दक्षिणपंथ के उभरने के साथ-साथ ऐसी घटनाओं में भी इजाफा हुआ है.

दलितों के साथ हिंसा बढ़ी

इंडिया स्पेंड ने नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा का विश्लेषण करके बताया है कि 2006 से 2016 के बीच दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामलों में 25% का इजाफा हुआ है. लेकिन दलितों से संबंधित लंबित पुलिस जांच और अदालतों में लंबित मामलों की दर भी क्रमशः 99% और 50% है. दूसरी तरफ दलितों और आदिवासियों के साथ होने वाली हिंसा पर आरोपियों को सजा देने की दर क्रमशः 23.8% और 16.4% है.

जैसा कि बाबा साहेब अंबेडकर ने भी द एनिहिलिशन ऑफ कास्ट में कहा था, हिंदू समाज जातियों का एक संग्रह है. हर जाति को अपने वजूद का अहसास है. यह एहसास ही उसके वजूद की वजह भी है.

लेकिन उसे इस बात का एहसास नहीं है कि वह दूसरी जातियों से जुड़ा हुआ है. उसे यह एहसास सिर्फ उसी वक्त होता है, जब हिंदू मुसलिम दंगा होता है. बाकी सभी मौकों पर हर जाति एक दूसरे से खुद को अलग रखने की कोशिश करती है, और यह कोशिश करती है कि वह दूसरी जातियों से अलग नजर आए. धर्म की राजनीति के लिए इसी प्रवृत्ति का इस्तेमाल किया गया है.इन सभी जातियों के सामने मुसलमानों को साझा दुश्मन बताया गया है.

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ध्रुवीकरण हर जगह काम करता है

इस प्रवृत्ति को हम दुनिया के कई देशों में देख सकते हैं. अमेरिका में ट्रंप के समर्थक व्हाइट मिडिल क्लास के वोटर्स थे जो ब्लैक्स और हिस्पैनिक्स से नफरत करते थे. जब उन्हें महसूस हुआ कि इन लोगों ने ओबामा को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी तो वे ट्रंप के समर्थन में आ गए.

क्रिस्टॉफ जेफरलॉट ब्राजील में जेयर बोलसोनारो की जीत को भी राष्ट्रपति लूला के दौर की प्रतिक्रिया बताते हैं. कैसे वहां दक्षिणपंथी एकजुट हो गए और इसने 2018 में बोलसोनारो की जीत का रास्ता साफ किया. यह ध्रुवीकरण हर जगह काम करता है.

क्या धर्म का यही मायने हमें कबूल है

तय हमें करना है कि क्या हम धर्म के इस अर्थ को स्वीकार करने को तैयार हैं. क्योंकि असली धार्मिक वही याद रखे जाते हैं जो धर्म के प्रति आस्था के चलते समाज को अधार्मिक होने से बचाते हैं. धर्म को प्राणवान रखने के लिए लठैतों-अदालतों-निजामों की कोई जरूरत नहीं है. धर्म विरोधियों को सुनने और उन्हें बोलने की आजादी के कारण जिंदा रहता है.

इसलिए जिंदा रहता है क्योंकि वह समाज को उदार, मानवीय और प्रेमिल बनाता है. क्या हम धर्म के इस स्वरूप को स्वीकार करना चाहते हैं, या चाहते हैं कि बहुसंख्यकों के दिलो दिमाग धार्मिकता से खाली हो जाएं और उसमें दूसरे धर्मों के लिए ठसाठस हिंसा भर जाए. क्या खुद को अच्छा हिंदू साबित करने के लिए हमें हर बार यही इम्तिहान देना पड़ेगा?

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