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गोरखपुर, फूलपुर और अररिया: मोदी और राहुल के लिए 2009 का सबक

सालभर पहले रिकॉर्डतोड़ जीत हासिल करने वाली अजेय लीडरशिप की घरेलू पिच पर शायद ही इस कदर पिटाई हुई हो.

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प्रधानमंत्री मोदी, मुख्यमंत्री योगी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को आज जोर का झटका लगा. ये शायद भारत के चुनाव इतिहास का सबसे नाटकीय और सबसे बड़ा उलटफेर है. इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि सालभर पहले रिकॉर्डतोड़ जीत हासिल करने वाली अजेय लीडरशिप की घरेलू पिच पर इस कदर पिटाई हुई हो.

पहले प्रोपेगंडा तो ऐसा चल रहा था कि गठबंधन से भी कुछ होना नहीं है और वोटों के लिहाज से हार नाममुकिन है, क्योंकि पिछली जीत में 52 परसेंट से ज्यादा वोट हासिल हुए थे. इसलिए वोटों के गणित से तो हार तब तक नहीं होगी, जब तक बड़े पैमाने पर वोट न खिसक जाएं.

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चलिए....अब मैं गोरखपुर, फूलपुर और अररिया उपचुनाव के चौंकाने वाले नतीजों और वहां वोटिंग के आंकड़ों के एनालिसिस का काम अपने काबिल सहयोगियों पर छोड़ता हूं. इनमें हाल के गुजरात विधानसभा, राजस्थान और मध्य प्रदेश के उपचुनाव भी शामिल हैं.

...लेकिन मैं आगे कुछ दूसरे मुद्दों पर जाना चाहता हूं

उपचुनाव के नतीजों से 2019 के आम चुनाव के लिए क्या संदेश है?

कई बार आंकड़े कहानी से ज्यादा रोचक होते हैं. इस पर बात करूंगा, लेकिन पहले मेरे एक राजनीतिक सवाल का जवाब दीजिए, मुझे यकीन है कि ज्यादातर लोग इसमें फेल हो जाएंगे. मैं सवाल आपके सामने रखूं, इससे पहले आइए, कुछ नियम कायदों पर रजामंदी कर लें:

  • हम राजनीतिक सफलता को कैसे तय करेंगे? दोबारा सत्ता में वापसी, ठीक?
  • और हम सबसे बड़ी राजनीतिक कामयाबी की व्याख्या कैसे करेंगे? जाहिर है जब पहले से “ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में वापसी हो”, जाहिर है आप इस तर्क से सहमत होंगे?

अब यहां तक कोई विवाद नहीं, सही है ना? अगर कोई राजनेता पहले से ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करता है, तो बगैर किसी सवाल के हम उसे सफलतम होने का दावा करने देंगे, ठीक है?

तो इस तरह अब हमारे राजनीतिक क्विज के नियम तय हो गए हैं, तो अब आ रहा है मेरा कौन बनेगा करोड़पति सवाल:

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भारत का सबसे ज्यादा कामयाब प्रधानमंत्री होने का दावा कौन कर सकता है?

आपके पास सही जवाब देने के तीन विकल्प हैं. तो ये हैं विकल्प:

जवाब नंबर 1: पंडित नेहरू? नहीं, हालांकि वो एक से ज्यादा बार सत्ता में लौटे, लेकिन वो बाद के कार्यकाल में पुराने जैसा जनादेश हासिल नहीं कर पाए (पहले से उनके पास भारी जनादेश था)

जवाब नंबर- 2: इंदिरा गांधी? नहीं,
कार्यकाल बीच में ही खत्म करने के बाद 1971 में उन्होंने दोबारा चुनाव जीता, लेकिन पिछले जनादेश में सिर्फ 36 परसेंट ही बढ़ोतरी कर पाईं (1967 में 259 के मुकाबले 1971 में 352 सीट)

जवाब नंबर 3: अटल बिहारी वाजपेयी? ये भी नहीं, वो 1999 में दोबारा जीतकर आए, लेकिन लोकसभा में बीजेपी की सीटें करीब करीब जस की तस ही रहीं.

तो तीन मौके आपके गवां दिए और आप सही जवाब देने में नाकाम रहे. अब कंप्‍यूटर जी की बारी है. और सही जवाब है.... सांस थामकर रखिए, डॉक्टर मनमोहन सिंह! वो 2009 में दोबारा चुनकर आए, तो पहले से ज्यादा जनादेश के साथ. 2004 के मुकाबले 2009 में डॉक्टर मनमोहन सिंह ने 45 परसेंट ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में वापसी की. 2004 की 141 से बढ़कर 2009 में 206 सीट.

अब जरा सांस संभाल लीजिए. एक बात और डॉक्टर मनमोहन सिंह को भले ही भारत का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताया जाता हो, लेकिन आंकड़ों के लिहाज से वो भारत के सबसे सफल प्रधानमंत्री होने का दावा कर सकते हैं!

मैंने आपको पहले ही बता दिया फसाने से ज्यादा बड़ी बात है आंकड़ों की हकीकत.

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2009 के चमत्कारी लोकसभा चुनाव, जिनका बारीक विश्लेषण नहीं हुआ

साल 1991 के बाद यानी आर्थिक सुधारों और गठबंधन का दौर शुरू होने के बाद भारत में 6 लोकसभा चुनाव हुए हैं. इनमें 1996, 1998 और 1999 के चुनावों की तो चुनावी पंडितों ने हर एंगल से समीक्षा की, लेकिन 2009 के चुनाव के बारे में खास चर्चा नहीं हुई. और ये बात मुझे बहुत हैरान करती है, क्योंकि जरा इस पर नजर डालिए कि इन चुनाव ने कितना बड़ा राजनीतिक उलटफेर किया था:

  • कांग्रेस ने शहरी इलाकों (दिल्ली की 7 में 7 और मुंबई की 6 में सीट) में भारी जीत हासिल की
  • कांग्रेस 21 सीटें जीतकर उत्तर प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. जी हां, उत्तर प्रदेश बीएसपी से आगे और बीजेपी से दोगुनी ज्यादा सीटें.
  • दोनों गठबंधनों, यानी कांग्रेस वाले यूपीए और बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए ने प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया था. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी, यानी स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार एक तरह से प्रेसिडेंशियल स्टाइल का चुनावी लड़ाई थी.
  • कम्युनिस्ट पार्टियों की बुरी हार हुई और वो 59 सीटों से फिसलकर 24 सीटों पर सिमट गईं, वोटरों ने उन्हें राजनीतिक धोखे और जमाने बदल जाने के बावजूद शीत युद्द के जमाने में फंसे रहने की सजा दी

ज्यादातर पंडितों ने 2009 में कांग्रेस की जबरदस्त जीत की, जिस तरह समीक्षा की उसमें कुछ भी नया नहीं था, वो सबको मालूम था. जो दो वजह बार-बार बताई गईं, उनमें एक तो लगातार तीन साल 9% से ज्यादा जीडीपी ग्रोथ और दूसरा चुनाव के ऐन पहले किसानों की कर्जमाफी.

मैं भी ये मानता हूं कि कांग्रेस की जीत की ये बड़ी वजह थीं. लेकिन कई बड़ी बातों की अनदेखी की गई. मेरे हिसाब से असली वजह थी कि मनमोहन सिंह ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मामले में जिस तरह से राजनीतिक धमकी के सामने झुकने से इनकार किया, उसे लोगों ने बहुत पसंद किया. डॉक्टर सिंह में उन्हें ऐसा राजनेता दिखा, जो मौका पड़ने पर किसी भी धमकी के सामने झुकने वाला नहीं है. बड़े पैमाने पर बदलाव ला सकता है. क्योंकि लोग लीक पर चलने वाले राजनेताओं से बोर हो चुके थे.

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सिंह यानी न्यूक्लियर किंग

जुलाई 2008: वक्त को रिवाइंड कीजिए भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते के मुद्दे पर गठबंधन के सहयोगी लेफ्ट पार्टियों ने मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार अल्पमत में आ गई. डॉक्टर सिंह की कांग्रेस पार्टी मुश्किल में थी. विपक्षियों ने पीएम मनमोहन को अमेरिका परस्त और मुस्लिम विरोधी साबित करने की कोशिश की. लेकिन वो झुके नहीं. उन्होंने एक बड़ी कूटनीतिक जीत हासिल की, जिससे विश्व स्तर पर भारत का रुतबा बढ़ा. उन्होंने अपनी अल्पमत सरकार के लिए लोकसभा में विश्वास मत हासिल करने का फैसला किया.

चतुराई भरे राजनीतिक मैनेजमेंट की वजह से कांग्रेस को समाजवादी पार्टी समेत कई सहयोगी मिल गए. अलग अलग राजनीतिक पार्टियों के तीन युवा मुस्लिम सांसदों, एमआईएम के औवेसी, पीडीपी की मेहबूबा मुफ्ती और नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने सरकार का समर्थन किया और मनमोहन सिंह पर मुस्लिम विरोधी होने का ठप्पा हटा दिया.

22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वास मत में मनमोहन सिंह के पक्ष में 275 और विरोध में 256 वोट पड़े. इस जीत के बाद चहकते हुए चेहरे के साथ विक्ट्री का चिह्न बनाने वाला उनका रूप ऐसा फबा कि 2009 के चुनाव के लिए पूरे देश में वो मनमोहन सिंह की पहचान बन गया. वो सिंह इज किंग (सुपरहिट हिंदी फिल्म) के तौर पर मशहूर हो गए.

बहुत कम लोगों ने परमाणु समझौते के नफे नुकसान समझने की कोशिश की. उन्हें तो पीएम सिंह की एक बात बहुत भायी कि बदलाव के लिए वो राजनीतिक ब्लैकमेल के सामने झुके नहीं, बल्कि मजबूती से खड़े रहे.

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अफसोस.. कांग्रेस ने इस जनादेश को गलत पढ़ लिया और वो गरीबी हटाओ की पुराने ढर्रे की राजनीति में लौट गए. इस तरह उन्होंने 2014 में नरेंद्र मोदी को एक तरह से वॉकओवर देकर सत्ता सौंप दी. 2009 में जीत के बावजूद कांग्रेस जो राजनीतिक संदेश नहीं पकड़ पाई, उसे नरेंद्र मोदी ने बेहतर तरीके से पकड़ लिया.

मोदी ने मनमोहन सिंह की खूबी को समझा और जबरदस्त एनर्जी के साथ भारी बदलावों का वादा करते हुए अच्छे दिन का तूफान खड़ा कर दिया, बाकी तो सब इतिहास है.

2009, 2014 के सबसे बड़े सबक: अलवर, अजमेर, त्रिपुरा, गोरखपुर, फूलपुर और अररिया

अब जबकि प्रधानमंत्री मोदी और उनको मुकाबले में खड़े राहुल गांधी 2019 की लड़ाई के लिए कमर कस रहे हैं, लेकिन उन्हें ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वोटर 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव, दो हफ्ते पहले हुए त्रिपुरा और पूर्वोत्तर के विधानसभा चुनाव और अलवर, अजमेर, मध्य प्रदेश, गोरखपुर, फूलपुर और अररिया उपचुनाव के जरिए उनके कान में चिल्ला चिल्लाकर याद दिला रहा है...

हम तुम्हें दोबारा सत्ता में वापस लाएंगे, बशर्ते तुम हकीकत में हमारे लिए बदलाव लेकर आओ. हमें 2009 में इसका वादा किया गया और फिर 2014 में भी यही वादा किया गया. लेकिन मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी दोनों ने हमें निराश किया. इसलिए 2019 के लिए दोबारा तैयारी शुरू कीजिए और फॉर्मूला लाइए !

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