एक महीने बाद मोदी सरकार अपना सेकेंड लास्ट बजट पेश करेगी. हर कोई इसके लोक-लुभावन रहने की उम्मीद कर रहा है. हालांकि, आम चुनाव से पहले सिर्फ एक बार लुभावना बजट पेश करने का फायदा मिला है. ऐसा 1970 में हुआ था. तब इंदिरा गांधी पक्की समाजवादी बन गई थीं. उन्होंने उस वक्त अपना एकमात्र बजट पेश किया था और मार्च 1971 में उससे वोटरों को पटाने की कोशिश की थी.
ऐसा लगता है कि कुछ चीजें भारतीय सरकारों के डीएनए में हैं, चाहे जिसकी भी सरकार हो. इसलिए यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि इस वित्त वर्ष में 3.2 फीसदी का फिस्कल डेफिसिट टारगेट पूरा नहीं होने जा रहा है. हालांकि, इसका कुछ प्वाइंट अधिक या कम होना बहुत मायने नहीं रखता. वैसे भी फिस्कल डेफिसिट का बिल्कुल सही कैलकुलेशन असंभव है. इसके कई रिवीजन होते हैं.
2018-19 में इसमें कितनी बढ़ोतरी होगी?
हमारे पास अभी इसका जवाब नहीं है. वैसे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. मुझे लगता है कि जब तीन साल बाद इसके अंतिम आंकड़े आएंगे, तो यह 5 फीसदी के करीब या उससे अधिक रह सकता है. आम चुनाव से पहले वाले साल में फिस्कल डेफिसिट को लेकर हमेशा यही होता आया है.
नेता फिर से सत्ता में आने के लिए अधिक पैसा खर्च करना पसंद करते हैं. तथ्य बताते हैं कि अधिक पैसा खर्च करने से कोई फायदा नहीं होता, उसके बावजूद सरकारें ऐसा करती हैं.
बार-बार दोहराई गई गलती
1971 के बाद से सिर्फ दो सरकारें दोबारा चुनकर सत्ता में आई हैं. इसमें मैंने 1998 की चंद दिनों की बीजेपी सरकार को शामिल नहीं किया है. पहली बार 1984 और उसके बाद 2009 में एक ही पार्टी की लगातार दो बार सरकार रही.
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर की वजह से कांग्रेस लगातार सत्ता में आई थी. 2009 में यूपीए 1 सरकार के साथ ऐसा हुआ था, जिसने पूरे पांच साल के कार्यकाल में दिल खोलकर पैसा खर्च किया था. देश की अर्थव्यवस्था में आप इसे सोनिया गांधी का कंट्रीब्यूशन कह सकते हैं.
1979 में चरण सिंह सरकार ने जनता को लुभाने वाला बजट पेश किया था, लेकिन चुनाव में वह सिर्फ अपनी ही सीट बचा पाए और उनकी पार्टी हार गई थी. 1984 में भी ऐसा ही बजट आया था. ग्रामीण विकास के लिए तब एलोकेशन दोगुना कर दिया गया था. ग्रामीण भूमिहीनों के रोजगार के लिए रकम 4 गुना बढ़ाई गई थी. वैसे तो आम चुनाव 1989 में होना था, लेकिन राजीव गांधी इसे 1988 में करवाना चाहते थे. इसलिए 1988 में लोक-लुभावन बजट पेश किया गया.
हालांकि, बाद में राजीव ने 1989 में चुनाव कराने का फैसला किया और इस वजह से लगातार दो लोक-लुभावन बजट पेश किए गए. 1989 में तो वित्तमंत्री ने कई योजनाओं का ऐलान किया. रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई और इस तरह के काम पर खर्च बढ़ाने का वादा किया गया, फिर भी कांग्रेस चुनाव हार गई. 1996 में भी ऐसा ही हुआ और इस बार भी कांग्रेस की हार हुई.
BJP ने पिछली सरकारों की गलती दोहराई
1997 में प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल ने 1998 इलेक्शन के लिए वेतन आयोग की ट्रिक का इस्तेमाल किया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. 1999 का चुनाव फ्रीक इवेंट था. सरकार एक वोट से विश्वासमत हार गई और चुनाव कराना पड़ा. इसलिए उस साल बजट लोक-लुभावन नहीं था.
2004 में बीजेपी ने पिछली सरकारों की गलती दोहराई. चुनाव में साल भर का समय बाकी था, लेकिन फरवरी 2003 में बजट के 14-62 और 71-86 पैरा में वोटरों को संबोधित किया गया था.
बीजेपी सरकार की इन कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकला और पार्टी चुनाव हार गई. यह देखना दिलचस्प होगा कि 2018-19 का बजट किस हद तक लोक-लुभावन रहता है. मोदी सरकार अब तक के कार्यकाल में वोटरों को खुश नहीं रख पाई है, जैसा कि यूपीए 1 ने किया था. क्या वह इसकी भरपाई सिर्फ एक साल के खर्च से कर पाएगी? बीजेपी को यह बात पता है, इसलिए भावनात्मक मामलों पर पार्टी का जोर रह सकता है.
बेतुकी सरकारें
लेकिन सरकारें क्यों गलती दोहराती हैं? इसकी सिर्फ एक वजह हो सकती है. सरकारों से तार्किक होने की उम्मीद की जाती है, लेकिन वे बेतुके काम करती रही है. तार्किक होने का मतलब यह है कि एक गलती दोबारा न हो और कई बार तो बिल्कुल न हो. अगर इस पैमाने पर तोलें, तो 1979 के बाद की सभी सरकारें फेल हुई हैं.
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