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GST अगर राजनीति से दूर रहेगा तो देश का भला होगा

भारत में गुड्स एंड सर्विसेस टैक्स के 4 रेट्स के प्रस्तावित हैं, जबकि बाकी दुनिया में जीएसटी का एक ही रेट होता है.

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3 अगस्त 2016 को राज्यसभा और 8 अगस्त 2016 को लोकसभा में पास होने के बाद गुड्स एंड सर्विसेस टैक्स (जीएसटी) संविधान संशोधन बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई. देश की आधी से ज्यादा विधानसभाएं इस संविधान संशोधन पर अपनी रजामंदी जता चुकी हैं.

इसलिए अब सामानों और सेवाओं पर लगने वाले केंद्र और राज्य सरकारों के अलग-अलग इनडायरेक्ट टैक्सों की जगह अप्रैल 2017 से जीएसटी ले लेगा. जब ये लागू हो जाएगा, ऐसी उम्मीद की जा रही है कि जीएसटी का दायरा मौजूदा टैक्स व्यवस्था मुकाबले ज्यादा बड़ा होगा.

जीएसटी का मकसद पूरे भारतीय बाजार को एकसूत्र में बांधने और सामान और सेवाओं पर टैक्स व्यवस्था के फैलाव के चलते पड़ने वाले बोझ को कम करना है. ऐसा करने से, इसका असर टैक्स ढांचे, टैक्स की गणना, भुगतान, टैक्स नियमों का पालन, क्रेडिट यूटिलाइजेशन और टैक्स रिपोर्टिंग पर पड़ेगा और ये मौजूदा अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था (इनडायरेक्ट टैक्स सिस्टम) को दुरुस्त करने का रास्ता खोलेगा.

ये तो रही फलसफे की बात. लेकिन ये भारत है, ये अजूबों का देश है. इसीलिए 1992-94 के बड़े आर्थिक सुधारों के दौर में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे डॉ अशोक देसाई ने तंग आकर एक बार कहा था,

अच्छे से अच्छे देश की व्यवस्था में भी भारतीय नौकरशाह बुराई खोजकर दिखा सकते हैं.

मैं इसी मुहावरे को आगे बढ़ाते हुए भारतीय व्यवस्था के बारे में कहना चाहूंगा कि “ भारत में हरेक अच्छे आइडिया को बैलेंस करने लिए एक बुरा आइडिया खोज लिया जाता है.

जीएसटी के 4 रेट?

मैं गुड्स एंड सर्विसेस टैक्स के चार रेट्स के प्रस्ताव की बात कर रहा हूं. जबकि बाकी दुनिया में जीएसटी का एक ही रेट होता है. वास्तव में जीएसटी का मतलब ही है पूरे देश में एक सा टैक्स रेट. लेकिन ऐसा अजूबा भारत में ही हो सकता है कि जीएसटी के चार-चार रेट्स के फॉर्मूले सुझाए जाएं. इसमें भी रेट एक कैटेगरी में टैक्स जीरो रखने की बात कही गई जिसमें 62 परसेंट चीजें आती हैं. इनमें ज्यादातर चीजें गरीबों के इस्तेमाल करने की हैं.

सबसे ऊंची टैक्स दर 40 या 26 परसेंट रखने की बात है जो अभी तय नहीं. ये दर तंबाकू,शराब और विलासिता की चीजों पर लगाने का प्रस्ताव है. इसे शायद आप ठीक मान सकते हैं (हालांकि इतना नहीं होना चाहिए) लेकिन हम गरीब देश हैं और अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूलना कोई गलत बात नहीं है.

लेकिन बाकी दो रेट्स 12 और 18 परसेंट का क्या? इन दोनों को मिलाकर एक क्यों नहीं किया जा सकता. इसे 20 परसेंट किया जा सकता है जैसा कई देशों में है. फिर 18 या 21 या 23 जैसी विषम संख्यायों में क्यों रखने की बात हो रही है? क्या इसका किसी को अंदाजा है कि इससे टैक्स गणना करना कितना मुश्किल होगा?

माना कि टैक्स की गणना कंप्यूटर की मदद से होगी. लेकिन उत्पादकों के लिए ये एक बड़ा सिरदर्द साबित होने जा रहा है.

  • कौन सा टैक्स रेट किस प्रोडक्ट पर लागू होगा इसे तय करना मुश्किल होगा.
  • कौन इसका फैसला करेगा?
  • क्या इससे टैक्स कर्मचारियों के बीच घूसखोरी नहीं बढ़ेगी?
  • टैक्स रेट्स तय करने का फैसला टैक्स विभाग के अफसरों पर क्यों छोड़ा जाना चाहिए?

दूसरी बात ठेके के काम को लेकर है जिसमें सामान की सप्लाई भी शामिल है. मसलन आप अपने घर में कंप्यूटर लगवाना चाहते हैं, आपके कंप्यूटर की कीमत और उसे लगाने के चार्ज और उन पर लगने वाला टैक्स कैसे तय होगा?

वित्त मंत्रालय और राज्यों के बीच समझौते के फॉर्मूले में ये एक और ऐसी ही दूसरी तमाम दिक्कतें हैं. साफ तौर पर सिवाय बेकार की बातों के कुछ नहीं हो रहा.

राजनीति का खेल

कहा जा रहा है कि राज्यों को चिंता टैक्स लगाने को लेकर अपनी आजादी खत्म होने की है. अगर ऐसा है तो इन राज्यों ने जीएसटी पर अपनी सहमति क्यों दी ?

सच्चाई ये है कि गैर-बीजेपी शासित राज्य ठीक उसी तरह राजनीति कर रहे हैं जैसी जीएसटी पर बीजेपी शासित राज्यों ने 2005 और 2014 में की थी. याद रहे कि जीएसटी का सबसे ज्यादा विरोध गुजरात ने किया था.

कई तरह के तकनीकी एतराज उठाए जा सकते है और उठाए जाए भी रहे हैं. ज्यादातर का कोई आधार नहीं है. लेकिन राजनीति के बड़े खेल में केंद्र सरकार को अजीब समझौते करने पड़ेंगे.

ये वक्त है जब प्रधानमंत्री को सामने आकर अपनी बात रखनी चाहिए. उन्हें इस पर जोर देना चाहिए कि जीएसटी का केवल एक रेट होगा. एक बार ऐसा करने के बाद वो राज्यों को मनाने का जिम्मा वित्त मंत्री पर छोड़ सकते हैं. लेकिन चुप्पी से अब काम नहीं चलेगा. लेकिन एक बात बहुत साफ है कि राजनीति को 25 साल के सबसे बड़े आर्थिक सुधार को अटकाने की इजाजत अब और नहीं दी जा सकती.

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