मार्च 2020 के आखिरी दिनों में एक रात, जब लॉकडाउन शुरू हुआ, वह भी बिना किसी योजना के, बहुतों ने पाया कि उनके पास शराब का बहुत कम स्टॉक है. लेकिन सिर्फ वही लोग नहीं थे, जिन्हें आने वाले ड्राई डेज की चिंता थी. राज्य सरकारें भी परेशान थीं. आखिर राज्य सिर्फ तीन ही वस्तुओं पर तो टैक्स लगा सकते हैं- शराब, ईंधन और प्रॉपर्टी का रजिस्ट्रेशन. इसलिए कई राज्य अपने निवासियों की जिंदगी को राज्य की आर्थिक भलाई के लिए दांव पर लगाने को तैयार रहते हैं.
यूं भारत की जबरदस्त आर्थिक मंदी कोविड-19 के पहले से देश में पसरी हुई थी. उसके कारण पिछले वर्ष राज्यों की जीएसटी आय में बड़े पैमाने पर गिरावट हुई है.
जीएसटी कानून राज्यों को इस बात का भरोसा दिलाता है कि 2022 तक हर साल उनके राजस्व में 14 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी. अगर टैक्स में उनकी हिस्सेदारी नहीं बढ़ती तो केंद्र सरकार इस कमी की भरपाई करेगी. पर यह पैसा कहां से आएगा? ‘सिन्स’ और ‘डीमेरिट’ गुड्स जैसे तंबाकू और लग्जरी कारों पर वसूले जाने वाले विशेष मुआवजा सेस से.
मोदी सरकार की कृपा से लोगों के पास सिन यानी पाप करने लायक पैसा है ही नहीं. इसलिए केंद्र के पास इतना पैसा जमा नहीं हो पाया कि वह राज्यों को जीएसटी मुआवजा चुका सके.
सरकार संवैधानिक प्रतिबद्धता से क्यों पीछे हट रही है
फिलहाल मोदी सरकार पर राज्यों की तीन लाख करोड़ रुपए की राशि बकाया है. लेकिन केंद्र के पास नकदी नहीं है और यही केंद्र और राज्यों की आपसी मुठभेड़ का कारण है, न सिर्फ विपक्ष शासित राज्यों में, बल्कि उन राज्यों में भी, जहां बीजेपी की सरकार है.
अगस्त 2019 से राज्यों को समय पर पैसा नहीं मिला और लॉकडाउन की अवधि का मुआवजा अब तक नहीं दिया गया है. विपक्षी सरकारों ने कहा कि यह ‘सोवरिन डीफॉल्ट’ है और जीएसटी की आत्मा के साथ ‘धोखा’ भी.
सही बात तो यह है कि कई राज्य ‘एक देश एक टैक्स’ के विचार के खिलाफ थे. लेकिन जब केंद्र ने इस बात की गारंटी दी कि अगले पांच सालों तक उनके राजस्व में एक निश्चित दर पर बढ़ोतरी होती रहेगी तो उन्होंने अपनी रजामंदी दी थी.
लेकिन नई कर पद्धति के तीन सालों में ही केंद्र अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता से पीछे हटने लगा है.
कोविड-19 को ‘एक्ट ऑफ गॉड’
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कोविड-19 को ‘एक्ट ऑफ गॉड’ कहा है और कहा है कि ऐसी परिस्थितियों में समझौतों पर फिर से काम करना होगा. उनकी बात सही हो सकती है. कोविड के कारण विश्वव्यापी मंदी एक ब्लैक स्वान घटनाक्रम है और किसी ने इसका अनुमान नहीं लगाया था. फिर भी वित्त मंत्री को यह स्पष्ट करना होगा कि राज्यों के मुआवजे में 2019 से देरी क्यों हो रही है और राज्यों सरकारों को इसके लिए केंद्र से लगातार गुहार लगानी पड़ रही है. यह सब तब से चल रहा है जब लॉकडाउन के कारण आर्थिक कामकाज पूरी तरह से बंद नहीं था.
जीएसटी स्वाभाविक रूप से एक एंटी फेडरल टैक्स है
फिलहाल मोदी सरकार राज्यों से कह रही है कि उन्होंने 2019 में जो कमाया है, उसे रखें- 14 प्रतिशत की राजस्व वृद्धि के बिना. इसके साथ राज्यों से कहा गया है कि आरबीआई उनके लिए लोन्स की व्यवस्था करेगा ताकि उनकी राजस्व की कमी पूरी की जा सके. एक प्रस्ताव तो यह है कि मुआवजा सेस की अवधि को 2022 से आगे बढ़ाई जाए और इससे ब्याज भुगतान का वित्त पोषण किया जाए.
लेकिन राज्य सरकारों, जिसमें बीजेपी के उपमुख्यमंत्री वाली बिहार सरकार भी शामिल है, ने कहा कि केंद्र पर नैतिक रूप से मुआवजा चुकाने की जिम्मेदारी है. अगर उसके पास पैसा नहीं तो उसे खुद उधार लेना चाहिए, न कि राज्यों को ऐसा करने के लिए कहना चाहिए.
आप इस गड़बड़झाले के लिए नॉवेल कोरोनावायरस को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन जीएसटी की बनावट को देखते हुए ऐसा कभी न कभी होना ही था. बेशक, जीएसटी स्वाभाविक रूप से एक एंटी फेडरल टैक्स है.
हमारा देश मूल रूप से ‘युनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया’ है, इसके बावजूद कि हम संघवाद को उतनी गंभीरता से नहीं लेते, जितनी गंभीरता से उसे यूएस लेता है. हमारे देश का प्रत्येक राज्य सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से अनूठा है, और प्रत्येक की अपनी आर्थिक जरूरतें भी हैं. इसके अलावा राज्य सरकार बनाने के लिए अलग-अलग पार्टियों को चुनते हैं जोकि उनकी अपनी विशिष्ट योजनाओं पर आधारित होता है.
इसीलिए पार्टियो के पास यह अधिकार होना चाहिए कि लोगों के सामने अपना आर्थिक एजेंडा रख सकें और उसके नाम पर उनसे वोट मांग सकें.
राजनीतिक पार्टियां अपने वादे निभा सकें, इसके लिए यह जरूरी है कि वे अपनी खुद की कर नीतियों को लागू कर सकें. इसका एक मायने यह भी है कि उनके पास अधिक कर स्वायत्तता हो.
जीएसटी संघवाद के सिद्धांत को कमजोर बनाता है
जीएसटी संघवाद के सिद्धांत को कमजोर बनाता है और सभी राजनीतिक पार्टियां, चाहे वे सत्ता में हों या नहीं, इस बात से वाकिफ थीं. इसलिए 14 प्रतिशत राजस्व वृद्धि की गारंटी राज्यों के लिए दूर के ढोल थी जोकि उन्हें शुरुआत में बहुत लुभावना लगा था. इसका मकसद उन्हें जीएसटी प्लेटफॉर्म पर लाना था. हालांकि इसका मायने यह था कि जीएसटी पद्धति में केंद्र और राज्यों के पास पहले से अधिक टैक्स जमा होंगे ताकि यह सुनिश्चित होगा कि यह गारंटी पूरी की जा सके.
पिछले दस सालों में भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह लड़खड़ा रही है, उसे देखते हुए लोगों पर टैक्स का और बोझ डालने से उन्होंने कम खरीद करनी शुरू कर दी.
इन सबके ऊपर जीएसटी ने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया. जैसा कि हम सभी जानते हैं, ‘ब्रांडेड’ के बजाय अनौपचारिक क्षेत्र से माल और सेवाओं की खरीद करने का एक सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि वे बिल नहीं देते, यानी टैक्स नहीं चुकाते. जीएसटी ने उन्हें टैक्स पेयर वेंडर बनने पर मजबूर किया, इसके बावजूद कि उनकी कारोबारी सीमा कम थी. ऐसा इसलिए था क्योंकि अपंजीकृत वेंडर से खरीद करने का अर्थ यह था कि जब आप जीएसटी चुकाएं तो आप इनपुट क्रेडिट की मांग नहीं कर सकते.
चूंकि अनौपचारिक क्षेत्र में अधिकतर नौकरियां हैं, इसलिए पिछले कई सालों में जीएसटी के कारण बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है.
लाजमी है कि बेरोजगारी बढ़ने से अर्थव्यवस्था में मांग में गिरावट होती है.
कोविड ने जीएसटी संकट को बढ़ाया है
इस अस्वाभाविक या थोपे गए ‘औपचारीकरण’ के साथ मुद्रास्फीति भी दबे पांव आई जिसे आधिकारिक आंकड़ों में दर्ज नहीं किया जा सकता. जो उपभोक्ता ‘बिना बिल’ की खरीदी करते थे, वे जीएसटी के कारण अधिक दाम चुका रहे हैं. और जब आपको किसी वस्तु पर 18 प्रतिशत अधिक दाम चुकाना पड़े तो आप उसे खरीदने से पहले कम से कम दो बार सोचेंगे. इससे भी जीएसटी के चलते मांग पर असर पड़ा.
सो, यह निश्चित था कि भारत में जीएसटी के चलते कभी न कभी विपत्ति आती ही. यह संकट एक साल पहले शुरू हो गया था. कोविड-19 ने इसे और तकलीफदेह बनाया है. इसीलिए इस पर दोबारा सोचे जाने की जरूरत है, वरना जीएसटी- गलत सलत टैक्स को ही दोहराता रहेगा.
(लेखक एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी प्रॉफिट के सीनियर मैनेजिंग एडिटर रहे हैं. वह इस समय स्वतंत्र यूट्यूब चैनल ‘देसी डेमोक्रेसी’ चलाते हैं. वह @AunindyoC पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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