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राहुल के लिए आगे का रास्ता: 2018 और 2019 में गठबंधन और सीधी लड़ाई

गुजरात चुनाव के रिजल्ट के बाद अब राहुल गांधी के लिए कई चुनौतियां हैं. जिससे उन्हें खुद निपटना होगा.

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गुजरात परिणाम का एक बड़ा निष्कर्ष ये है कि भले ही बीजेपी ने जीत हासिल की है, लेकिन कांग्रेस ने लड़ने का जुझारूपन दिखाया है. मोदी-शाह की जोड़ी को उनके ही घर में कांटे की टक्कर देकर और भगवा दबदबे के 22 वर्षों में बीजेपी को सबसे कम सीटों पर समेटकर कांग्रेस ने एक तरह से नया जीवन हासिल कर लिया है.

कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद अब राहुल गांधी के लिए चुनौती है कि वो गुजरात में हुए फायदे का इस्तेमाल पार्टी की घटती राजनीतिक प्रासंगिकता को उभारने और 2019 के आम चुनाव में मोदी की लहर के मुकाबले एक व्यापक गठबंधन को तैयार करने में करें.

गुजरात चुनाव के रिजल्ट के बाद अब राहुल गांधी के लिए कई चुनौतियां हैं. जिससे उन्हें खुद निपटना होगा.
राहुल गांधी
(फोटोः IANS)
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किसी भी मायने में ये आसान काम नहीं है, लेकिन अगर राहुल ने गुजरात से सही सबक सीखे तो 2019 में आने वाली बड़ी लड़ाई के लिए मोदी, शाह और बीजेपी को काफी दिमाग लगाना पड़ेगा.

गुजरात का उदाहरण काम आ सकता है

दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए आने वाला साल महत्वपूर्ण है. 2018 के सभी चुनाव एक तरह से बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई हैं. और जैसा कि पांच साल पहले दिखा था, ये लड़ाई लोकसभा चुनावों के लिए मंच तैयार करेगी.

याद रखना होगा कि बीजेपी ने दिसंबर 2013 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का सफाया कर दिया था, जबकि दिल्ली में यही काम आम आदमी पार्टी ने किया था. एक साथ लगी इतनी सारी चोट से कांग्रेस कभी भी उबर नहीं सकी. 2014 में, कांग्रेस अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई जब उसे लोकसभा की सिर्फ 44 सीटें मिलीं.

गुजरात ने एक ऐसा उदाहरण दे दिया है जिसका 2018 में अच्छे से इस्तेमाल कर कांग्रेस 2019 की तैयारी कर सकती है. लेकिन पार्टी को कुछ चेतावनियों पर भी गौर करना होगा.

ये साफ होता जा रहा है कि बहुकोणीय मुकाबले में बीजेपी को फायदा होता है. उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय मुकाबले ने बीजेपी विरोधी वोटों को बांट दिया और पार्टी को राज्य के इतिहास में अभूतपूर्व जनादेश मिला. दूसरी तरफ, बिहार में जेडी (यू), आरजेडी और कांग्रेस के हाथ मिलाने के बाद महागठबंधन से बीजेपी का सीधा मुकाबला हुआ, जिसमें उसे मुंह की खानी पड़ी.

गुजरात चुनाव के रिजल्ट के बाद अब राहुल गांधी के लिए कई चुनौतियां हैं. जिससे उन्हें खुद निपटना होगा.
राहुल गांधी अौर अखिलेश यादव
(फोटोे: PTI)
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गुजरात में, इस बार कांग्रेस ने आत्म-केंद्रित राजनीति से परे हटकर कुछ किया. पार्टी ने दिलचस्प प्रयोग किया और उन तीन एक्टिविस्ट को अपने साथ मिलाया जो गुजरात के नाराज युवा चेहरों के रूप में उभरे थे. पाटीदार आंदोलन नेता हार्दिक पटेल, दलित नेता जिग्नेश मेवानी और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर.

इससे बीजेपी विरोधी ताकतों का एक व्यापक मंच तैयार हुआ, जिस वजह से चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई बन गया. वोटिंग के आंकड़े इसकी गवाही देते हैं. कांग्रेस ने गैर-बीजेपी वोटों का एक बड़ा हिस्सा हासिल किया और उस पार्टी को हिला दिया जो गुजरात में 22 वर्षों में कोई चुनाव नहीं हारी.

बीजेपी की जीत खोखली क्यों दिखती है

बीजेपी को अपने गढ़ में हार से सिर्फ मोदी के अभियान ने बचाया है, जो तीखा, व्यक्तिगत, ध्रुवीकरण बढ़ाने वाला और जज्बाती था. मोदी ने 34 रैलियों को संबोधित किया था, यूपी और बिहार से भी ज्यादा. उन्होंने गुजरात में उप-राष्ट्रवाद और हिंदू अस्मिता के सवाल उठाए और अपनी पार्टी को हार के मुंह से निकाल लिया. लेकिन जैसा कि अंतिम आंकड़े दिखा रहे हैं, ये भी बस किसी तरह पार्टी को बचा पाया.

जीत तो वैसे जीत होती है, लेकिन बीजेपी की जीत खोखली दिखेगी, अगर इस बात पर गौर किया जाए कि पार्टी को अब तक की सबसे कम सीटें मिली हैं.

तो कांग्रेस के लिए पहला सबक है:

बीजेपी के खिलाफ दूसरी ताकतों और छोटी पार्टियों को इकट्ठा कर सीधी लड़ाई की कोशिश करना.

मिसाल के लिए, कर्नाटक में, जहां अप्रैल-मई 2018 में चुनाव होने हैं, देवगौड़ा की जेडी(एस) के साथ समझौता बीजेपी को कड़ी चुनौती देने वाला गठबंधन बना सकता है. यहां बीजेपी सत्ता-विरोधी भावना के सहारे कांग्रेस से सत्ता हथियाने की उम्मीद कर रही है.

गुजरात चुनाव के रिजल्ट के बाद अब राहुल गांधी के लिए कई चुनौतियां हैं. जिससे उन्हें खुद निपटना होगा.
विपक्षी पार्टियों के नेता एक साथ
फोटो: PTI
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राज्य नेतृत्व को तैयार करना होगा

दूसरा सबक है कि राज्य में मजबूत नेताओं को चुना और बढ़ावा दिया जाए. कांग्रेस के पास गुजरात में ऐसा कोई नेता नहीं था और पार्टी पूरे तौर पर राहुल गांधी पर निर्भर थी. हालांकि ऐसा बीजेपी के भी साथ था, लेकिन बीजेपी के पास मोदी हैं, जो आज देश में निस्संदेह सबसे करिश्माई राजनेता हैं.

लेकिन, बीजेपी गुजरात का करिश्मा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में नहीं दोहरा सकती. इन राज्यों में मुस्लिम आबादी बेहद कम है, और यहां मोदी उप-राष्ट्रवाद की भावना भी नहीं जगा सकते.

तीनों राज्यों में, बीजेपी के पास बड़े स्थानीय नेता हैं जो अभी मुख्यमंत्री हैं. कांग्रेस को अपने नेताओं की पहचान करनी होगी, उन्हें काम करने की आजादी देनी होगी और उनके कामकाज पर दिल्ली से नियंत्रण रोकना होगा.

राजस्थान में वसुंधरा राजे के लिए राहुल गांधी से बेहतर चुनौती अशोक गहलौत होंगे. इसी तरह, मध्य प्रदेश में, कांग्रेस को ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह में से किसी एक को चुनना होगा, और राहुल को अपने राज्य नेतृत्व को पूरा समर्थन देना होगा बजाय इसके कि पार्टी में आपसी लड़ाई को चलने दिया जाए.

पारंपरिक वोटर की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए

तीसरा सबक है कि नई ताकतों को जोड़ने के क्रम में कांग्रेस को पारंपरिक आधार वोटरों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. गुजरात में हार्दिक के हाथ अपना अभियान सौंपकर कांग्रेस ने पटेल वोट तो हासिल कर लिए, लेकिन उन आदिवासियों को भूल गई जो पारंपरिक रूप से उसके समर्थक रहे हैं. गुजरात में आदिवासियों की बड़ी आबादी है और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए 27 सीटें आरक्षित हैं.

ये महसूस करने के बाद कि पटेल का आधार वोट हिल रहा है, बीजेपी ने अपनी ताकत आदिवासियों को लुभाने में लगा दी थी ताकि पाटीदारों से होने वाले नुकसान की भरपाई हो सके. ये रणनीति कामयाब होती दिख रही है.

अनिच्छुक राजकुमार की छवि तोड़नी होगी

गुजरात में बीजेपी की जीत ने भले ही मामूली अंतर से दिखा दिया है कि पार्टी एक मजबूत चुनावी मशीन है जिसके पास नरेंद्र मोदी जैसा सुपर स्टार प्रचारक और अमित शाह जैसा मेहनती संगठनकर्ता है. यही नहीं, मोदी और शाह हर वक्त काम करने वाले नेता हैं, जिन्होंने निश्चित रूप से 2018 की चुनौतियों की तैयारियां शुरू कर दी होंगी.

राहुल गांधी को अपने आप को अनिच्छुक राजकुमार की छवि से निकालकर ऐसे राजनेता में बदलना पड़ेगा जिसकी सांस और नींद तक में राजनीति हो. सबसे पहले उन्हें अपनी सालाना शीतकालीन छुट्टियां भूलकर पार्टी को पुनर्गठित करने, अपनी टीम चुनने और अगले चुनाव के लिए रणनीति बनाने में लग जाना होगा.

गुजरात ने उन्हें एक बड़ी मोहलत दी है. अब ये उनके ऊपर है कि वो इसका इस्तेमाल कितनी अच्छी तरह कर पाते हैं.

(लेखिका दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस लेख में छपे विचार उनके हैं जिनसे क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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