खुद से मोहब्बत करना सिखाने वाला देश, समाज नहीं है यह. यहां संस्कार का अर्थ है अपने हिस्से की रोटी दूसरे को देकर सुख पाना. स्त्रियों के हिस्से तो यह इस कदर आया है कि यह उनकी रोजमर्रा की आदत में शामिल हो गया कि घंटों खाना बनाने के बाद पहले घर के पुरुषों को परोसना, खिलाना, उन्हें खाते देखने का सुख लेना और जो उनके खाने से जो बच जाय उसे खाकर अपना भाग्य सराहना.
ऐसे देश, समाज में खुद से कोई इस कदर मोहब्बत कर बैठे कि खुद से ही ब्याह रचाने चल पड़े तो क्या हो भला?
गुजरात (Gujrat) की क्षमा बिंदु खुद से ब्याह करने वाली पहली महिला बन गयी हैं. साथ ही उन्होंने बहुत सारे सवालों को भी जन्म दिया है. मैं उन सवालों उन टिप्पणियों पर बात नहीं करूंगी जिसमें उन्हें पब्लिसिटी स्टंट या सेल्फ औब्सेशन जैसी टिप्पणियों से नवाजा जा रहा है. मेरी चिंता कहीं और है, कुछ और है.
विवाह का ग्लैमर
लम्बे समय से मैं विवाह संस्था की दुश्वारियों की बाबत सोच रही हूं. क्योंकर आखिर विवाह संस्था को इस कदर सर पर चढ़ा लिया गया है कि वो दम घोंटने पर उतारू हो उठी है. फिर भी विवाह संस्था का ग्लैमर कम नहीं हो रहा है. लिवइन रिलेशनशिप जैसे वैकल्पिक कानून हमारे पास होने के बावजूद विवाह संस्था के वर्चस्व का किला लगातार मजबूत होता जा रहा है. क्षमा के खुद से विवाह करने के पीछे मुझे वही वर्चस्व नजर आता है.
विवाह संस्था का ग्लोरीफिकेशन इस कदर है कि कब वो जिंदगी का एक बड़ा मकसद बन जाता है, पता ही नहीं चलता. लड़कियों के लिए तो खासकर. अभी भी ज्यादा लड़कियों के सपने में उनका राजकुमार पहले आता है, करियर बाद में. बच्चियां होश बाद में संभालती हैं विवाह का वैभव उन्हें भरमाना पहले शुरू कर देता है.
दुल्हन बनने का सपना, सजने-संवरने का सपना, मेहंदी, हल्दी, नाच, गाना इन सबका आकर्षण इस कदर उनके जेहन में पैबस्त हो जाता है कि कई बार उनका दूल्हा भी प्राथमिकता के पायदान पर नीचे सरक जाता है और विवाह की परम्पराओं का आकर्षण पहले पायदान पर आ बैठता है.
विवाह में शोशेबाजी
दो दशक पहले तक यह बात चर्चा में आती तो थी कि विवाह में बेवजह के खर्चे, शोशेबाजी को कम करना चाहिए. उस वक्त विवाह की रीढ़ पर दहेज के दानव की पड़ी हुई लात ही काफी थी. अभिभावक उसी से बिलबिलाये रहते थे. दूल्हे के घरवालों के सामने पगड़ी रखते लड़की के पिता को दिखाने वाले कितने ही दृश्य, दहेज के कारण बरात लौट जाने के कितने किस्से हम सबको याद हैं लेकिन बजाय विवाह के खर्चों, शोशेबाजी पर लगाम कसने के यह उत्तरोत्तर बढ़ता गया.
हिंदी फिल्मों और बाजार ने मिलकर इसमें खूब रोटियां सेंकीं, न सिर्फ विवाह की परम्पराएं, रीति-रिवाज फैशन बन सर चढ़ने लगे, वैवाहिक उत्सव भी इसमें शामिल हो गये.
करवाचौथ, शादी की सालगिरह आदि जैसी होड़ इसमें शामिल होने लगीं. अब आ गयी है शोशेबाजी की एक नयी विभीषिका शादी की 25वीं सालगिरह. रिश्ता कैसा है, इस पर ध्यान नहीं लेकिन रिश्ते का सेलिब्रेशन और तस्वीरें चमकती हुई दिखना जरूरी हो गया है.
इंगेजमेंट, हल्दी, मेहंदी, बारात, जयमाल यह सब कितना फिल्मी स्टाइल हो यह अलग ही तनाव हो चला है. बेस्ट फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी, लाइव जयमाल, प्री वेडिंग सूट, पोस्ट वेडिंग सूट, प्रेगनेंसी फोटो शूट, पहला करवा चौथ, हर साल की एनवर्सिरी इन सबसे जुड़ी जो उत्सवधर्मिता है वो अचानक गायब हो जाती है जब कोई विवाह न करने का फैसला लेता है.
पहले तो सिंगल रहने के निर्णय पर तथाकथित रिश्तेदार ही सवाल कर करके जान खा लेते थे, यही कष्ट था अब एक और कष्ट जुड़ गया है इस निर्णय के साथ बाजार की चमचम करती यह उत्सवधर्मिता सिंगल व्यक्ति के जीवन से गायब हो जाती है.
क्या हो उन लड़कियों का जिन्होंने मेहंदी लगाने, शादी का लहंगा पहनने, सजने-संवरने के सपने देखते हुए ही जिंदगी के सपने देखे हैं?
एक बार एक लड़की को कहते सुना था, ‘यार शादी तो नहीं करनी लेकिन शादी की परम्पराएं मजेदार लगती हैं, सोचती हूं फेक मैरिज करके शादी वाले अरमान पूरे कर लूं.’ बात मजाक में कही गयी थी लेकिन उसकी जड़ें गहरी थीं.
एक काफी प्रोग्रेसिव कपल को जानती हूं जो कई साल से लिव इन में थे लेकिन आखिर लड़के को उस रिश्ते से बाहर आना पड़ा क्योंकि लड़की को शादी करनी थी ताकि वो शादी की परम्पराओं को जी सके. लड़का इन परम्पराओं में यकीन नहीं करता था. शुरुआत में लड़की भी नहीं करती थी लेकिन एक आकर्षण उसे लगातर खींच रहा था.
एक बार जब एक दोस्त की करवाचौथ की रंगभरी तस्वीरबाजी से उकताकर इन परम्पराओं को खाए अघाए लोगों का शगल कह दिया था तो वो नाराज हो गयी थी. इसलिए जब कोई कहता है कि यह किसी पर दबाव नहीं है, मुझे ठीक लगता है मैं ऐसा कर रही हूं, कर रहा हूं, किसी को न पसंद हो तो वो न करे तो उदास हो जाती हूं. इतना सरलीकरण? सचमुच?
ये सिर्फ अपनी पसंद-नापसंद की बात नहीं
दोस्त, यह बात इतनी सी नहीं होती. यहीं, बस इसी जगह ठहरकर सोचने की जरूरत है कि यह जो मर्जी का ताना-बाना है यह आता कहां से है और यह होता कैसा है? कैसे आपकी कम्फरटेबल च्याव्स किसी की जबरन लादी हुई च्वायस में तब्दील हो जाती है, पता ही नहीं चलता.
जिन बच्चियों की आंखों में किताबों के, दुनिया बदलने के, कुछ बेहतर करने के सपने होने थे कैसे उनमें चूड़ी, बिंदी, गजरा, और राजकुमार के सपने फिट कर दिए गए, सोचिये तो सही. यह सब अवचेतन में काम कर रहा होता है. हमारी चेतना अवचेतन की शिकार रहती है तब तक जब तक हम उसे झाड़ पोंछकर साफ न करें.
अगर यह सचमुच आपकी मर्जी है तो इसका ढोल क्यों पीट रहे हैं आप भाई. लगातार एक दबाव बनता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है. निश्चित तौर पर मध्यवर्ग खासकर नवोदित मध्यवर्ग इसके चंगुल में ज्यादा है. यह दबाव उन पर किस कदर भारी पड़ रहा है, इसका एक उदाहरण मेरे घर में मैंने देखा. मेरी खाना बनाने वाली पूनम. पूनम सिंगल पैरेंट है.
दो बेटियों और एक बेटे को उसने अकेले ही पाला है. हाड़-तोड़ मेहनत करके उसने बच्चों को शिक्षा दी, घर बनाया और उनके अच्छे भविष्य के सपने देखे. मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब पता चला कि उसने बेटी के लिए सत्तर हजार का लहंगा लिया है. लड़के वालों ने कोई दहेज नहीं मांगा था बस एक ही शर्त थी कि शादी धूमधाम से हो. लड़की का भी यही सपना था. पूनम की बेटी का भी प्री-वेडिंग शूट हुआ. हर रस्म एकदम फिल्मी तरह से हुई और शादी के बाद पूनम 8 लाख के कर्ज में थी.
जब आपकी मर्जी, किसी की मजबूरी बन जाती है
‘जिसे न करना हो वो न करे’ कहकर अपने ऐश्वर्य पर इतराने वालों से इतना ही कहना है कि आप जियें बेशक वो सब जो आप जीना चाहते हैं लेकिन उसका ढिंढोरा पीटकर दूसरों के लिए उस इच्छा का दबाव न बनाएं. क्या ही बड़ी बात है कि क्षमा ने भी इन्हीं परम्पराओं को जी लेने के मोह में खुद से विवाह किया हो. ठीक वैसे ही जैसे क्वीन फिल्म में अकेले हनीमून पर गयी थी कंगना.
उनके नजरिये से देखिये, शादी न करने का फैसला इतनी सारी उत्सवधर्मिता के बिना क्यों आये. तो लो जी अकेले रहेंगे ठसक से और शादी की तमाम रस्मों का आनन्द उठाएंगे. ऐसा ही सोचा होगा शायद क्षमा ने भी.
हालांकि बेहतर तो यह होता कि हम सब मिलकर कहते क्षमा करो हे रीति रिवाजों, परम्पराओं, अब तुम्हारा और बोझ हमसे न ढोया जायेगा.
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