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गुजरात चुनाव 2017: मोदी जी ने 2 फीसदी बढ़ाया या 11 फीसदी गंवाया?

राजनीतिक पंडितों को चुनावी आंकड़ों के रूप में कोई खिलौना मिल गया है

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गुजरात के चौंकाने वाले नतीजों को आए अभी 72 घंटे भी नहीं हुए हैं, लेकिन लगता है कि राजनीतिक पंडितों को चुनावी आंकड़ों के रूप में कोई खिलौना मिल गया है. कुछ नमूने देखिए:

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बीजेपी को चुनाव में 1.40 करोड़ वोट मिले और कांग्रेस को 1.20 करोड़. बीजेपी को 15 लाख सरप्लस वोट सिर्फ 5 शहरी जिलों में मिले.

अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत, राजकोट और भावनगर में से उसने 50 सीटें जीतीं, जबकि उसे राज्य में कुल 99 सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस को इन 5 जिलों में 12 से भी कम सीटें मिलीं.

इन शहरी जिलों को छोड़ दें, तो पूरे गुजरात में कांग्रेस को 70 सीटों पर जीत मिली, जबकि बीजेपी को 44 सीटों पर. यानी इनमें से दो-तिहाई सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हो गया.

7 ऐसे जिले भी हैं, जिनमें बीजेपी को एक सीट भी नहीं मिली.

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राजनीतिक पंडितों को चुनावी आंकड़ों के रूप में कोई खिलौना मिल गया है

गुजरात में असल में कौन जीता?

इस पर बौद्धिक बहस चल रही है कि गुजरात का असल विजेता कौन है?

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जो लोग मोदी के साथ हैं, वे कह रहे हैं कि 2012 से 2017 के बीच बीजेपी का वोट शेयर 2 पर्सेंट बढ़ा है. वे जोर देकर कह रहे हैं कि 2014 लोकसभा चुनाव में विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी को मिली बढ़त की तुलना 2017 से नहीं करनी चाहिए.

कांग्रेस समर्थक इससे सहमत नहीं हैं. वे 2014 लोकसभा चुनाव की तुलना इस बार के चुनाव से कर रहे हैं. उनका कहना है कि 2012 विधानसभा चुनाव का संदर्भ बिल्कुल अलग था. वे दावा कर रहे हैं कि मोदी के गढ़ में बीजेपी के वोट शेयर में 11 पर्सेंट की गिरावट आई है.

2014 लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने 60 पर्सेंट वोट हासिल किए थे. स्वतंत्र भारत में किसी भी बड़े राज्य के सीएम को इतना वोट शेयर शायद आज तक नहीं मिला है. कांग्रेस के समर्थक इसलिए मोदी को आसमान से जमीन पर लाने का वादा कर रहे हैं. इस बार गुजरात चुनाव में बीजेपी को 49 पर्सेंट वोट मिला.

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बहस जीतने के लिए बॉलीवुड के डायलॉग मारे जा रहे हैं...

  • मोदी के फैन्स कह रहे हैं- जो जीता, वही सिकंदर. उनका कहना है कि सिर्फ जीत मायने रखती है, मार्जिन चाहे जो भी हो.
  • राहुल समर्थक कह रहे हैं कि हार के बाद ही जीत है या इस हार में जीत है.

अगर इस तमाशे को रहने दें, तो गुजरात का असल विजेता कौन है, इसका फैसला इससे होता है कि आप 2012 की तुलना 2017 से कर रहे हैं या 2014 लोकसभा चुनाव की तुलना इस बार के नतीजों से.

इस बारे में मैं 5 अहम बातें यहां दे रहा हूं.

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2014 (न कि 2012) बनाम 2017 की 5 वजहें

पहली बात: 2014 और 2017 में मोदी बीजेपी के अकेले कैंपेनर

2017 में मोदी ने 2014 की तरह ही कैंपेन किया. वो एक रैली से दूसरी रैली में जाते रहे. एक दिन में उनकी पांच-पांच रैलियां हुईं. हेलिकॉप्टर की गर्द झाड़ते हुए कभी उनकी आवाज धीमी पड़ जाती थी तो अचानक वो हुंकार भी भरने लगते थे. 2014 के मुकाबले इस बार उनकी रैलियों में कम भीड़ जुटी और पहले जैसा जोश भी लोगों में नहीं दिखा. उन्होंने कांग्रेस पर हमला करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी.

ये याद करने के लिए विजय रूपाणी नाम का शख्स गुजरात में अपनी कुर्सी बचाने की लड़ाई लड़ रहा था, आपको दिमाग पर बहुत जोर डालना होगा. आप ये भी नहीं मानेंगे कि इस चुनाव में मोदी सीधे मुकाबले में नहीं उतरे थे. अगर 2017 के 2014 जैसा चुनाव होने के लिए कोई एक वजह चुननी हो तो वो यही होगी.
राजनीतिक पंडितों को चुनावी आंकड़ों के रूप में कोई खिलौना मिल गया है

दूसरी बात: मोदी ने सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दे उठाए, सिर्फ अपने रिकॉर्ड का जिक्र किया

इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि री-इलेक्शन के लिए कैंडिडेट मोदी थे. उन्होंने अमीरों को कुचलने वाली नोटबंदी- जो उनके हिसाब से भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और देश को डिजिटाइज करने और उद्यमियों की मदद वाला कदम है- जैसी अपनी पहल का जिक्र किया.

दावा किया कि मैंने कांग्रेस के परिवारवाद को ध्वस्त कर दिया है. पूरे देश में एक टैक्स सिस्टम लागू किया है. मोदी ने इन बातों पर लोगों से वोट मांगे. कपास किसानों, लालची डॉक्टरों, टीचरों और बेरोजगार युवाओं जैसी स्थानीय समस्याओं का जिक्र उन्होंने नहीं किया. इस मामले में भी ये चुनाव 2014 लोकसभा की तरह था.

तीसरी बात: मैनिफेस्टो में सिर्फ राष्ट्रीय और यहां तक भारत की विदेश नीति भी थी

राजनीतिक पंडितों को चुनावी आंकड़ों के रूप में कोई खिलौना मिल गया है
पीएम मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर ‘सीक्रेट मीटिंग’ को लेकर दिया था बयान
(File Photo: Reuters)

फसलों की कम कीमत को भूल जाइए. गुजरात के वोटरों को पाकिस्तान की दुष्ट नीतियों का क्रैश कोर्स कराया गया. बीच-बीच में डोकलाम और चीन का जिक्र भी कैंपेन के दौरान हुआ. ऐसा लगा कि कश्मीर से आईएसआई एजेंट कच्छ बॉर्डर पर चले आए और यहां से गुजरात के इलेक्शन बूथ तक घुसपैठ कर ली.

इसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथों इन एजेंट्स का रिमोट कंट्रोल का भी संकेत आ गया. इसलिए उनके खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक जरूरी हो गई थी. जब इस तरह की बातों का शोर हो, तो उसे एक राज्य का चुनाव कैसे माना जा सकता है? इस पैमाने पर भी ये 2014 लोकसभा चुनाव जैसा दिखा.
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चौथी बात: राहुल ने कांग्रेस कैंपेन का नेतृत्व किया, लोकल चेहरा नहीं दिखा

राजनीतिक पंडितों को चुनावी आंकड़ों के रूप में कोई खिलौना मिल गया है
गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान महिलाओं से मुलाकात करते राहुल गांधी
(File Photo: PTI)

जहां बीजेपी की तरफ से सिर्फ मोदी कैंपेन में नजर आ रहे थे, वहीं कांग्रेस की तरफ से यही काम राहुल गांधी ने किया. गुजरात में एक राष्ट्रीय नेता का सामना दूसरे राष्ट्रीय नेता से हुआ. इसे स्थानीय मुकाबला कैसे कहा जा सकता है? ये एक राष्ट्रीय चुनाव था, जो एक राज्य में लड़ा जा रहा था.

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पांचवीं बात: मोदी ने गुजराती में भाषण दिए

2014 में मोदी को पूरे देश के लोगों को संबोधित करना था. इसलिए उन्होंने हिंदी में भाषण दिए थे. इस बार ‌उन्होंने लोगों तक पहुंचने के लिए गुजराती को चुना. इस आधार पर तो इसे लोकल चुनाव माना जाना चाहिए. लेकिन मोदी के गुजराती में (राष्ट्रीय मुद्दों पर) बात करने पर 2014 की तुलना में लोगों की मजबूत प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा तो नहीं हुआ.

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जो जीता वही सिकंदर

मैंने 5 वजहें बताई हैं, जिनकी वजह से 2017 गुजरात चुनाव की तुलना 2014 लोकसभा चुनाव से की जानी चाहिए, न कि 2012 विधानसभा चुनाव से. इस मापदंड पर प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी ने 11 पर्सेंटेज प्वाइंट्स गंवा दिए हैं.

जो जीता वही सिकंदर!

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