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गुजरात के इन गांवों से दूर है टॉयलेट और साफ-सफाई

3000 वोटरों वाला संकोड एक पिछड़ा गांव है जहां प्राथमिक विद्यालय तो है लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं.

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अपना परिचय देते हुए लिलीबेन कोली पटेल के चेहरे पर लुभावनी मुस्कुराहट खेलने लगती है. लेकिन ये मुस्कुराहट तुरंत गायब हो जाती है और वो दूर देखने लगती हैं, जब गांव के चारों ओर फैले खेतों की तरफ इशारा करके वो बताती हैं कि संकोड की महिलाएं शौच के लिए यहीं जाती हैं.

पल भर के लिए लिलीबेन के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव आते हैं लेकिन वो जल्दी ही हिम्मत बटोरकर शौचालय की कमी के बारे में बताती हैं. इस बीच संकोड की दूसरी महिलाएं रंगीन घाघरा-चोली पहने अपनी बात कहने के लिए हमारी तरफ आने लगती हैं.

संकोड और इससे सटा गांव वासना अहमदाबाद-राजकोट हाइवे से 7 और 5 किलोमीटर दूर है. चुनावी रंग में डूबे गुजरात के इन दोनों गांवों में बहुत कम शौचालय हैं, जिससे बीजेपी शासित सरकार के इस दावे की पोल खुल जाती है कि जल्दी ही राज्य 100 फीसदी “खुले में शौच से मुक्त” हो जाएगा.

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‘उम्मीदें बिखर गईं’

“5 फीसदी घरों को छोड़कर संकोड में कोई शौचालय नहीं है. इन शौचालयों को बनाने में राज्य सरकार से कोई सहयोग नहीं मिला है,” भरतभाई अर्जुनभाई कोली पटेल शिकायत करते हैं जो साल भर पहले ही सरपंच चुने गए हैं.

भरतभाई के पास गेहूं पीसने वाली मशीन है और वो महीने में 3,000 रुपए कमाते हैं. वो एकाध एकड़ जमीन के मालिक भी हैं. “मैंने अपने घर के पीछे शौचालय बनाने के लिए अपने पैसे खर्च किए थे,” भरतभाई कहते हैं, साथ ही वो ये जोड़ना नहीं भूलते कि अफसर फॉर्म में कोई ना कोई गलती निकालकर हमेशा अर्जियां रद्द कर देते हैं.

निराश गांव वालों को बार-बार संकोड से बावला जाना पड़ता था, जहां तालुका पंचायत ऑफिस है. लेकिन जब वो हर बार खाली हाथ लौटे तो शौचालय बनवाने की उनकी उम्मीदें बिखर गईं.

जब भरतभाई ने महिलाओं से पूछा कि क्या उनके घर पर शौचालय हैं, उनमें से सभी ने सिर या हाथ हिलाकर ना में जवाब दिया. 50 साल की समताबेन कोली पटेल एक छोटी सी किराना दुकान चलाती हैं, इस कमाई में खेती की आय मिलाकर उनका नौ सदस्यों का परिवार पल रहा है. “मेरे घर में कोई संडास नहीं है, हम खुले में शौच के लिए जाते हैं,” समताबेन अपने दुपट्टे को चेहरे के पास खींचते हुए कहती हैं.

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‘सरपंच के फैसले के साथ’

3000 वोटरों वाला संकोड एक पिछड़ा गांव है जहां प्राथमिक विद्यालय तो है लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं. नजदीकी अस्पताल बावला में है. साल भर से कुछ ज्यादा हुआ, जब पंचायत चुनाव में संकोड ने बीजेपी के सरपंच प्रह्लादभाई कोली पटेल की जगह कांग्रेस कार्यकर्ता भरतभाई को चुना. गांव में शौचालयों का ना के बराबर होना गांव वालों के लिए एक बड़ा मुद्दा है.

संकोड और वासना गांवों में शौचालयों का अभाव इस साल सितंबर में सरकार के इस दावे पर सवाल खड़ा करता है कि “अगले 6 महीने” में गुजरात स्वच्छ भारत अभियान के तहत खुले में शौच से मुक्त हो जाएगा. एक एनजीओ समर्थ ट्रस्ट की 2015 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक अक्टूबर 2019 तक गुजरात में 31 लाख से ज्यादा शौचालय बनाने की जरूरत थी.

साणंद चुनाव क्षेत्र के तहत आने वाले संकोड में 14 दिसंबर को वोट डाले जाएंगे. “हम सरपंच के फैसले पर चलेंगे,” 40 साल की मंजूबेन कोली पटेल बताती हैं. नौजवान सरपंच भरतभाई की प्राथमिकता साफ दिखती है जब वो अपनी हथेली उठाकर संकेत देते हैं कि उनका वोट कांग्रेस को जाएगा.

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‘सरकार के दावे गलत हैं’

बावला में महिला विकास संगठन चलाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता जशीबेन सुरेशभाई राठौर सरकार के इस दावे पर सवाल उठाती हैं कि अहमदाबाद के नजदीक ज्यादातर ग्रामीण इलाके खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं.

“ये झूठ है. ज्यादातर घरों में शौचालय नहीं हैं. सरकारी रिकॉर्ड में दिख सकता है कि लक्ष्य हासिल हो गया है, लेकिन असलियत कुछ और है.”

जशीबेन का दावा है कि मिशन मंगलम कार्यक्रम के तहत बावला के आसपास कुछ शौचालय बनाने वाले एक चैरिटी संगठन को 6 महीने से भुगतान नहीं किया गया है. “यहां स्थायी तालुका डेवलपमेंट ऑफिसर नहीं है. गांव वाले शौचालय चाहते हैं लेकिन अफसर दिलचस्पी नहीं दिखाते,” जशीबेन बताती हैं, जो महिला समानता और अधिकारों के लिए काम करने वाली 1200 से ज्यादा महिलाओं की टीम का नेतृत्व करती हैं.

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अहमदाबाद-राजकोट हाइवे से बमुश्किल 5 किलोमीटर दूर वासना गांव की कहानी भी पड़ोसी संकोड से काफी मिलती-जुलती है. संकोड की महिलाओं की तरह ही वासना की जीतूबेन कोली पटेल भी शौच के लिए खुले में जाती हैं. वो अपने आप को असहाय महसूस करती हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि उनके घर में शौचालय नहीं है, बल्कि उनके पास मतदाता पहचान पत्र भी नहीं है.

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अपने नवजात बेटे को गोद में लिए और अपनी आंखों को साड़ी के पल्लू से ढकते हुए नीताबेन कोली पटेल भी बताती हैं कि उनके पास भी मतदाता पहचान पत्र नहीं है. “इस बार मैं वोट नहीं डाल पाऊंगी,” वो बताती हैं. नीताबेन पढ़ी-लिखी नहीं हैं लेकिन वो अपने बेटे को स्कूल भेजना चाहती हैं.

वासना में करीब 500 घर हैं जिनमें से मुश्किल से 10 फीसदी में शौचालय हैं.

“हममें से कुछ शौचालय चाहते हैं लेकिन कुछ दूसरे हैं जो नहीं चाहते,” विभाभाई कोली पटेल बताते हैं जो खेती करते हैं. विभाभाई की तरह जामाभाई कोली पटेल के घर पर भी शौचालय नहीं है और उन्होंने अभी मन नहीं बनाया है कि वो किस पार्टी को वोट देंगे.

“ये फैसला करने के लिए अभी थोड़ा समय है,” जामाभाई ने कहा, साथ में ये भी जोड़ा कि शौचालय की कमी “पक्के तौर पर” उनके दिमाग में रहेगी, जब वो 14 दिसंबर को वोट डालने जाएंगे.

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