मेरे साथ कभी #मी टू जैसी घटना नहीं हुई, शायद मैं खुशकिस्मत हूं. शायद इसकी वजह यह है कि मैं पहले से हालात को भांप लेती हूं और जहां कुछ गलत हो सकता है, उससे बचने की कोशिश करती हूं. इसके बावजूद मेरी लाइफ में कुछ ऐसी सिचुएशन आई हैं, जहां अनहोनी हो सकती थी. शायद उन हालातों में दो टूक जवाब देने की मेरी आदत या अपनी बात पर अडिग रहने से वैसी नौबत नहीं आई. इससे कुछ लोग नाराज भी हुए होंगे. हो सकता है कि इसका मेरे फिल्म करियर पर असर पड़ा हो, या यह भी हो सकता है कि असर ना पड़ा हो.
ताकत का खेल
बुरी सिचुएशन से मैं इसलिए भी बची रही, क्योंकि मेरी बात सुनने-समझने वाले लोग हमेशा मेरे आसपास रहे. ‘एक फिल्म हासिल करना’ मेरे लिए कभी वजूद का सवाल नहीं रहा. मेरे परिवार ने सिखाया था कि अपनी शर्तों पर काम करना चाहिए. अगर रोजी-रोटी की जद्दोजहद या खुद को सफल साबित करने का दबाव होता तो मेरी जिंदगी भी अलग हो सकती थी, जैसा कि #मी टू में हम कई महिलाओं के बारे में सुन रहे हैं. जब आप युवा होते हैं, आपको भले-बुरे की पहचान नहीं होती और आप असुरक्षित होते हैं तो ताकतवर लोग उसका फायदा उठाते हैं. यह ना जाने कब से चला आ रहा है.
मुंबई में महिलाओं का शिकार करने के लिए घात लगाए बैठे हैं लोग
‘सपनों की नगरी’ मुंबई में ऐसे शिकारियों की कमी नहीं है, जो यहां उन महिलाओं का शिकार करने के लिए घात लगाए बैठे रहते हैं, जो अपने ख्वाब पूरे करने आती हैं. ऐसा नहीं है कि ऐसे लोग कहीं और शिकार नहीं करते. समाज के पितृसत्तात्मक होने से उनके लिए ऐसा करना आसान हो जाता है. मिसाल के लिए, फिल्म इंडस्ट्री (और ज्यादातर दूसरे क्षेत्रों में भी) में ताकतवर पदों पर पुरुष काबिज हैं. निर्देशक, निर्माता, सिनेमेटोग्राफर, एडिटर, आर्ट डायरेक्टर के साथ हर डिपार्टमेंट के हेड मर्द हैं. उनके पास शोषण करने की काफी गुंजाइश होती है. यही लोग तय करते हैं कि कोई असफल होगा या सफल. अगर इनमें से कोई सेक्सुअल हैरासमेंट करने वाला हो तो महिलाएं उससे कैसे डील करेंगी?
महिलाओं की आवाज दबाने की संस्कृति
महिलाओं को सेक्सुअल हैरासमेंट की बात सार्वजनिक करने में शर्मिंदगी होती है. उन्हें लगता है कि कोई उन पर यकीन नहीं करेगा या उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा. नौकरी जाने का डर होता है. रोजी-रोटी का सवाल होता है. अक्सर उनके पास इमोशनल सपोर्ट सिस्टम नहीं होता. देश का पुलिस सिस्टम भी भरोसे के लायक नहीं है. जो लोग ताकतवर पदों पर बैठे होते हैं, वे अक्सर सेक्सुअल हैरासमेंट करने वालों को बचाते हैं.
महिलाओं को अक्सर दोस्त (या जिन्हें वे दोस्त मानती हैं) ही मामले को भुलाने के लिए कहते हैं, लेकिन क्या उन्हें ऐसा करना चाहिए? ऐसी घटनाओं को भुलाना संभव नहीं होता. उनके लिए वह यातना बन जाती है. कुछ महिलाएं कभी आवाज नहीं उठा पातीं तो कुछ को बहुत बाद में जाकर सेक्सुअल हैरासमेंट की बात सार्वजनिक करने का मौका मिला और उन्होंने उसकी हिम्मत दिखाई.
यह भी संभव है कि कोई पुरुष एक या कई महिलाओं के साथ ‘सम्मानजनक’ ढंग से पेश आता हो और दूसरों के साथ गलत ढंग से. इसलिए आप किसी पुरुष को कैरेक्टर सर्टिफिकेट नहीं दे सकते. कोई भी किसी दूसरे शख्स को पूरी तरह नहीं जानता. किसी के अंदर कौन सा शैतान छिपा बैठा है, यह कोई नहीं जानता. मैंने पहले कुछ ऐसे लोगों के साथ काम किया है, जिन पर अब दुर्व्यहार के आरोप लगे हैं. मैंने उनका वो चेहरा नहीं देखा था. क्या इसका मतलब यह है कि जो महिलाएं सामने आई हैं, हमें उन पर अविश्वास करना चाहिए? क्या इसका मतलब यह है कि हम आरोपियों के साथ खड़े हैं? इन सवालों का जवाब देना आसान नहीं है.
पीड़ित महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बनाया जाए
मुझे खुशी है कि #मी टू आंदोलन शुरू हुआ है. ऐसा माहौल बनाया जाए कि पीड़ित महिलाएं अपनी बात बेखौफ होकर कह सकें. यह हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए. घटना के एक दिन, 10 दिन या 10 साल बाद उसे सार्वजनिक क्यों किया गया, यह सवाल गलत है. इस तरह की बात कहने के लिए साहस होना चाहिए. पिछले सात दिनों में कई साहसी महिलाएं सामने आई हैं. इस बात को कोई नहीं समझ सकता कि उन पर क्या गुजरी है.
कभी-कभी सेक्सुअल हैरासमेंट करने वाले का नाम सार्वजनिक करने से मन का बोझ उतर जाता है. इससे पीड़ित को उस घटना की मानसिक यातना से उबरने में मदद मिलती है. अगर वह पुलिस कंप्लेन दर्ज कराती है तो कोई शख्स दोषी है या नहीं, यह तय करना अदालत का काम है ना कि सोशल मीडिया का. ना ही यह काम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का है. आप और हम भी इंसाफ नहीं कर सकते. सेक्सुअल हैरासमेंट करने वाले और उनके समर्थक अगर पीड़ित पर दबाव बना रहे हैं तो उनके नाम भी सामने लाए जाएं, लेकिन इसके साथ यह भी ध्यान रखा जाए कि जब तक किसी का गुनाह साबित नहीं होता, उसे अपराधी ना माना जाए.
इंस्टीट्यूशनल सपोर्ट
अगर कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़ता है या हार मान लेता है तो ऐसे मामलों में इंसाफ नहीं होगा. हमारा सिस्टम इस तरह के मामलों में इंसाफ के माकूल नहीं है. हमें इसे बदलने की जरूरत है. दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए, लेकिन यह भी पक्का किया जाए कि किसी बेगुनाह को सजा ना मिले. इक्का-दुक्का ही सही, मी टू की आड़ में खुन्नस निकालने की भी कोशिश हो सकती है.
हमें ऐसी संस्थाएं बनानी होंगी, जहां महिलाएं मदद के लिए जा सकें. जहां वे अपनी बात बेखौफ कह सकें. जहां उन्हें खुद के मजाक बनने का डर ना हो. हमें अपनी बेटियों, बहनों, पत्नियों से कहना होगा कि वे आवाज उठाएं. जब वे ऐसा करें तो हमें उनके साथ खड़ा रहना होगा. मेरे पास इस मामले में सारे जवाब नहीं हैं, लेकिन सवाल जरूर हैं. आपके मन में भी ये सवाल होने चाहिए और पहला प्रश्न यही करना चाहिए कि हालात को जस का तस बनाए रखने में किसका फायदा है?
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