जनता की याददाश्त छोटी और चंचल, दोनों होती है. फिर भी, लेखक को 3 फरवरी 2019 की कोलकाता (Kolkata) में घटी घटनाएं अच्छी तरह याद हैं. CBI (केंद्रीय जांच ब्यूरो) के अधिकारियों की एक टीम कथित घोटाले के मामले में पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से "पूछताछ" करने के लिए उनके आवास पर पहुंची थी.
कुछ ही मिनटों में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) वहां पहुंचीं और इसके खिलाफ धरने पर बैठ गईं. स्थानीय पुलिस ने पांच सीबीआई अधिकारियों को भी हिरासत में लिया. ममता बनर्जी ने न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की आलोचना की, बल्कि सार्वजनिक रूप से अपने "पुलिसबलों" को केंद्रीय एजेंसियों द्वारा परेशान और हतोत्साहित होने से बचाने की कसम खाई.
कई महीने लग गए जब CBI राजीव कुमार से सवाल पूछ सकी, वह भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किए गए "तटस्थ" स्थान पर. कई लोगों ने दीदी द्वारा इस्तेमाल की गई "सड़क" रणनीति की आलोचना की थी.
हालांकि, यह आर्टिकल हेमंत सोरेन (Hemant Soren) के बारे में है.
खेल के नियम पूरी तरह से बदल गए हैं
सबसे पहले, ED (प्रवर्तन निदेशालय) के अधिकारियों ने "गुमनाम रूप से" मीडिया को यह विश्वास दिलाया कि झारखंड के मुख्यमंत्री "फरार" थे. फिर ED ने कहा कि वो दिल्ली एयरपोर्ट पर उनकी तलाश कर रही थी. आखिरकार, 31 जनवरी को ED ने पूछताछ के बाद रांची में उनके आधिकारिक आवास से गिरफ्तार किया. लेखक को आश्चर्य है कि क्या ममता दीदी को पांच साल ही पहले एक शिकारी केंद्र से निपटने की कला समझ आ गई थी.
हालांकि, सोरेन को गिरफ्तारी से पहले इस्तीफा नहीं देना चाहिए था और सलाखों के पीछे से झारखंड में सरकार चलाने पर जोर देना चाहिए था. लेखक को नहीं लगता है कि ऐसा कोई कानून है जो उन्हें ऐसा करने से रोक सकता था. बेशक, लोग नैतिकता की बात करेंगे और लालू यादव और जयललिता की मिसाल देंगे, जिन्होंने अपनी गिरफ्तारी से पहले इस्तीफा दिया और कठपुतलियों को कुर्सी पर बैठाया था. लेकिन इस "निर्मम" युद्ध वाले युग में केवल भोले-भाले मूर्ख ही नैतिकता की बात करेंगे. इसके अलावा, लालू और जयललिता ने एक अलग युग में काम किया.
तब से, खेल के नियम पूरी तरह से और अपरिवर्तनीय रूप से बदल गए हैं. आलोचनात्मक हुए बिना, और विशुद्ध रूप से एक निष्पक्ष पर्यवेक्षक के रूप में, लेखक इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) का शीर्ष नेतृत्व केवल एक ही चीज में विश्वास करता है: अप्रतिबंधित और अनवरत युद्ध- जब तक कि आपके प्रतिद्वंद्वी पूरी तरह से पराजित न हो जाएं और घुटने न टेक दे. नैतिकता, शालीनता और दया दूसरा रास्ता नाप ले.
दुर्भाग्य से, अधिकांश विपक्षी नेता और दल अभी भी ऐसे काम और व्यवहार कर रहे हैं जैसे कि 20वीं सदी में राजनीति की जा रही हो.
यह समझने के लिए उन्हें भारतीय क्रिकेट टीम में आए बदलावों का अध्ययन करने की जरूरत है कि उनका मुकाबला किससे है. 1990 के दशक में ऑस्ट्रेलिया (जैसे कि अभी बीजेपी है) एक बेहद मजबूत टीम थी और न केवल वो जीतना चाहते थे, बल्कि उनके कप्तान स्टीव वॉ ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वह विरोधियों को "मानसिक रूप से तोड़ना" चाहते हैं. भारतीय खिलाड़ियों को मैदान पर खूब डराया जाता था. आखिरकार, जब सौरव गांगुली भारतीय कप्तान बने, तो टीम इंडिया ने फैसला किया कि अब बहुत हो गया. हर एक गाली का जवाब ब्याज के साथ दिया जाने लगा. चूंकि इस दुनिया में सब कुछ एक चक्र में चलता है, ऑस्ट्रेलिया का प्रभुत्व कम हो गया और भारत ने मैच जीतना शुरू कर दिया.
लेकिन सबसे पहले, उन्होंने अपनी रणनीतियों को फिर से तैयार किया, जो कि हेमंत सोरेन भी कर सकते थे.
बीजेपी ने अप्रतिबंधित राजनीतिक युद्ध का एक नया युग शुरू किया
कुछ लोगों का मानना है कि सोरेन के जेल के अंदर से फाइलें निपटाने के काम को राज्यपाल संवैधानिक मशीनरी के टूटने के रूप में देखते और "राष्ट्रपति से सरकार को बर्खास्त करने का अनुरोध" भी कर सकते थे. ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे यह बर्खास्तगी न्यायिक जांच में टिक पाती.
बीजेपी ने कुछ साल पहले उत्तराखंड और अरुणाचल में राज्य सरकारों को बर्खास्त करने की कोशिश करके कांग्रेस की पुरानी रणनीति का पालन करने की कोशिश की थी. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कड़ी फटकार लगाई थी.
अधिक महत्वपूर्ण बात सोरेन के राजनीतिक संदेश की ताकत होती: "मैं आपके नियमों के अनुसार नहीं खेलूंगा".
किसी भी स्थिति में, स्पष्ट बहुमत वाले UPA (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) के सभी विधायकों द्वारा चंपई सोरेन को अगले मुख्यमंत्री के रूप में विधिवत चुने जाने के बावजूद, राज्यपाल ने उन्हें 24 घंटे से अधिक समय तक शपथ लेने के लिए आमंत्रित करने की जहमत नहीं उठाई. वहीं दूसरी तरफ बिहार के राज्यपाल ने पहले नीतीश कुमार का इस्तीफा स्वीकार किया और फिर कुछ ही घंटों में उन्हें दोबारा पद की शपथ भी दिलाई. जब नागरिकों और विश्लेषकों ने स्थिति की बेरुखी की ओर इशारा किया तो आखिरकार 1 फरवरी की देर रात नए नेता को शपथ लेने के लिए आमंत्रित किया गया.
बुद्धिजीवी, उदारवादी और सिविल सोसाइटी लोकतंत्र के और अधिक विनाश पर शोक मनाएंगे. निस्संदेह, उन्हें इसका पूरा अधिकार है. लेकिन चुनाव लड़ने और जीतने के लिए राजनेताओं के लिए ऐसी महान भावनाएं किसी काम की नहीं हैं.
जब से बीजेपी ने बिना कोई सीमा वाले राजनीतिक युद्ध का एक नया युग शुरू किया है, तो विपक्षी नेताओं और पार्टियों के पास जवाब देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
केवल दिखने वाले कुछ नाटकीय संकेत मतदाताओं के बीच बड़ा मैसेज दे सकते हैं. गिरफ्तारी के बाद जेल से ही फाइलें निपटाना शरू कर दें. समर्थक लोगों के बीच जाएं और बताएं कि कैसे बीजेपी किसी भी विपक्षी नेता को काम नहीं करने दे रही है. और एक्टिविस्टों को नैतिकता का प्रचार करने दीजिए. जब राजनेता, विशेषकर कांग्रेस नेता नैतिकता और संवैधानिक मानदंडों का हवाला देते हैं, तो यह ठीक नहीं बैठता है. 'WhatsApp यूनिवर्सिटी' का भला हो कि, यहां तक कि जो भारतीय राजनीति से ग्रस्त नहीं हैं, वे भी इंदिरा गांधी, आपातकाल के बारे में जानते हैं और कैसे उन्होंने लगभग 50 बार विधिवत निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया था.
अंततः, भ्रष्टाचार के बारे में क्या?
लेखक को इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट नहीं हैं. यह भी एक सच्चाई है कि पिछले दस वर्षों में कोई भी बड़ा घोटाला सामने नहीं आया है. लेकिन यह कहना हास्यास्पद है कि वह भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. सार्वजनिक रूप से अजित पवार पर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के एक दिन बाद, वह NDA में शामिल हो गए.
आप तय करें कि इससे क्या संदेश जा रहा है.
(सुतानु गुरु सीवोटर फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)