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कर्नाटक हिजाब विवाद: भारत की मुस्लिम महिलाओं पर दोहरा बोझ

हमें अपनी पसंद का प्रयोग करने की अनुमति है और यह कोई सनक नहीं है. संविधान इसकी इजाजत देता है

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जब मैं टीनेजर थी तब मेरा ज्यादातर जीवन खानाबदोश जैसा था. एक आर्मी ऑफिसर की बेटी होने का मतलब था हर दो साल में घर, स्कूल और दोस्तों का बदल जाना. 16 साल की उम्र में मैं चंडीगढ़ में थी जहां मेरे ज्यादातर दोस्त सिख या पंजाबी थे. कड़ा पहनना और गले में काले धागे से बंधा एक छोटा कृपाण का लॉकेट को पहनने मैंने भी शुरू कर दिया. मुझे सिख धर्म के इन प्रतीकों को पहनना बहुत पसंद था.

यह वह धर्म नहीं था जिसमें मैं पैदा हुई थी. लेकिन इसके कुछ हिस्सों को अपने लिए अपनाने से मुझे कभी किसी ने नहीं रोका. क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 27 और 28 भारत में धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं.
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पिछले कुछ हफ्तों से सोशल मीडिया पर कर्नाटक के उडुपी से वीडियो की बाढ़ आ गई, जिसमें मुस्लिम समुदाय की युवा छात्राओं को स्कूल के अधिकारियों, शिक्षकों और प्रशासकों से गुहार लगाते हुए दिखाया गया है. वे कक्षाओं में जाना चाहते हैं, वे अपनी परीक्षाओं को लेकर चिंतित हैं और पढ़ाई प्रभावित हो रही है और उन्हें अंदर नहीं जाने दिया जा रहा है क्योंकि वे हिजाब पहनकर अंदर जाना चाहती हैं.

इसके विरोध में पहले, एक हिंदुत्ववादी संगठन से जुड़े लड़कों का एक बड़ा समूह भगवा शॉल पहने हुए कॉलेज में आया. इसके बाद अन्य छात्राओं ने भगवा शॉल पहनकर विरोध किया. अब ये कपड़े न तो सुरक्षा के लिए खतरा हैं और न ही राजनीतिक.

इन लड़कियों में से कई जो अब अपने शॉल और हिजाब की विविदा के कारण बंट गई थीं शायद कुछ महीने पहले ही दोस्त होंगी, साथ में हंस खेल रही होंगी अपने नोट्स को साझा कर रही होंगी.
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अगर सबके लिए नियम समान है तो दूसरे धर्म का क्या 

कई लोग कॉलेजों और अधिकारियों के बचाव में आए हैं, वे कहते हैं कि यूनिफॉर्म का मतलब है कि सभी को बिल्कुल एक जैसा दिखना चाहिए और उसी में स्कूली शिक्षा और समानता का सच्चा गुण है.

मुझे आश्चर्य है कि अगर एक युवा सिख लड़के को कक्षा में जाने से पहले अपनी पगड़ी उतारने के लिए कहा जाए तो यह क्या होगा - समानता या शर्मिंदगी? उस छोटी लड़की का क्या होगा जिसके माथे पर उसके दादा-दादी प्यार से सौभाग्य के लिए चंदन टीका लगाते हैं? हो सकता है कि क्लास में कदम रखने से ठीक पहले उसे साफ कर दिया जाए. आखिर नियम तो नियम हैं, ठीक है न?

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यहां दो चीजें चल रही हैं. एक, यह सीधे और सीधे तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न है. दिसंबर में हमने देखा हिंदू संगठनों ने क्रिसमस समारोहों में धावा बोल दिया, स्कूल के कर्मचारियों और बच्चों को बदनाम किया, जो भी उत्सव चल रहे थे, उन्हें बाधित कर दिया. जनवरी में देख रहे हैं कि युवा मुस्लिम छात्राओं के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद कर दिए गए, उन्हें अलग-थलग कर दिया और उन्हें धर्म और शिक्षा के बीच चयन करने के लिए मजबूर कर दिया.

दूसरा, कपड़े और महिला हमेशा से एक ऐसा विषय रहा है जिस पर भारतीय पुरुषों की कई मुखर राय रही हैं. फटी हुई जीन्स? समस्या. छोटे कपड़े? समस्या. हिजाब? समस्या. दरअसल समस्या कपड़ों की नहीं है - यह उन लोगों की आंखें हैं जो इसे देख रही है.

साल 2020 में आई एनएसओ की रिपोर्ट बताती है कि मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर दलित या आदिवासी महिलाओं की तुलना में अधिक है, लेकिन किसी अन्य धार्मिक समूह की महिलाओं की तुलना में कम.

जैसा कि आंकड़े बताते हैं, वे समग्र रूप से एक गरीब समुदाय भी हैं. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और ऑक्सफोर्ड गरीबी और मानव विकास पहल (ओपीएचआई) वैश्विक बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई), 2018 के अनुसार, तीन मुसलमानों में से एक बहु-आयामी गरीब है. बहु-आयामी शब्द आय के साथ-साथ पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे संकेतकों की ओर इशारा करता हैं.

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शिक्षा बेहतर जीवन के लिए पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है. यही वह विश्वास है जो अनगिनत भारतीय परिवारों को अपने बच्चों को बेहतर सीखने, बचत करने और हाथ-पैर मारने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए प्रेरित करता है, ताकि वे उस महत्वपूर्ण शिक्षण और उस महत्वपूर्ण किताब से लाभान्वित हो सकें.

इसमें सबसे ज्यादा नुकसान उन लड़कियों का ही हो रहा है और सरकार का ढोंग भी दिखाई दे रहा है. 2017 में शुरू किया गया बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान माना जाता है कि यह बीजेपी के प्रमुख अभियानों में से एक है. इसका मकसद बेटियों की स्वीकार्यता का जश्न मनाना और उनको शिक्षित बनाना है, लेकिन हो कुछ और रहा है.

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राजनीतिक कार्यालय में धर्मिक गतिविधि क्यों स्वीकार्य है?

एक ऐसा राष्ट्र जहां एक राज्य का मुख्यमंत्री हमेशा भगवा वस्त्र पहने रहता है और खुद को एक योगी या साधु के रूप में संदर्भित करता है और एक ऐसा राष्ट्र जहां प्रधानमंत्री और अन्य मुख्यमंत्री अब सार्वजनिक 'यज्ञ' करते हैं, क्या वही देश इन युवा स्कूली लड़कियों की मांग को नकार रहा है?

मैं महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए मजबूर करने के पक्ष में नहीं हूं - लेकिन यह मेरी निजी पसंद है और यह उनकी है. हमें अपनी पसंद का प्रयोग करने की अनुमति है और यह कोई सनक नहीं है. संविधान इसकी इजाजत देता है.

(मिताली मुखर्जी पिछले 18 सालों से बिजनेस जर्नलिस्ट हैं. वह एडिटरजी में बिजनेस कंसल्टिंग एडिटर हैं. वह @MitaliLive पर ट्वीट करती हैं. यह एक ओपिनियन लेख है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.

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