स्कूल में हिजाब पहनने (Hijab Row) पर कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को लेकर ऐसे कई बिंदू हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि ये पूरी तरह सही नहीं है.
पहला तो ये कि इस फैसले का आधा हिस्सा इस बात को तय करने में ही खत्म हो जाता है कि क्या हिजाब पहनना इस्लाम के लिए जरूरी है ? जबकि वास्तव में ऐसा करना पूरी तरह से गैर जरूरी है. अगर हिजाब पहनने का इस्लाम में आधार हो और फिर हिजाब कोई स्वेच्छा से पहनना चाहता है तो, संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का जो मौलिक अधिकार है, उसके तहत उसे ऐसा करने का अधिकार पहले से हासिल है.
दूसरा हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हिजाब के इस्तेमाल से स्कूलों में अनुशासन खत्म हो जाएगा. जबकि अदालत ये भूल गई कि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ-साथ पूरे भारत में संचालित केंद्रीय विद्यालयों में, दूसरे स्कूलों और सावर्जनिक जगहों पर हिजाब पहनने की इजाजत है.
तमाम दशकों में, एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जिसे अदालत के समक्ष सबूत के रूप में रखा जा सके कि जहां हिजाब पहनने से पब्लिक ऑर्डर बिगड़ा हो. यह शुद्ध रूप से बहुसंख्यकवादी सोच है.
क्या वाकई धर्मनिरपेक्षता के लिए जरूरी है यूनिफॉर्म?
तीसरा हाईकोर्ट "धर्मनिरपेक्षता" के लिए यूनिफॉर्म के पालन को जरूरी बनाता है. यह खुद में एक सेकुलर समाज की बहुलवादी और विविधतापूर्ण होने की धारणा और उसकी सोच से अलग है. इसके विपरीत, बिना किसी सबूत के ही यह समाज में उथलपुथल, गड़बड़ी और अन्य अधिकारों के हनन की बात करता है.
चौथा, फैसले का एक हिस्सा काफी ठेस पहुंचाने वाला लगता है. जहां कोर्ट कहता है कि "अधिक से अधिक, इस परिधान को पहनने की प्रथा का संस्कृति से कुछ लेना-देना हो सकता है, लेकिन निश्चित रूप से धर्म से नहीं".
पांचवां- पांचवा, ये निष्कर्ष निकालता है कि जब तक हिजाब या भगवा पहनने को धर्म से जोड़कर देखा जाएगा और जब तक इनपर सवाल नहीं उठाया जाएगा, तब तक वैज्ञानिक सोच नहीं विकसित हो सकती.
छठा-कोर्ट ने कहीं न कहीं मौलिक अधिकार जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता के अधिकार और गरिमा के अधिकार के संबंध में उठाए गए बहुत अहम तर्कों को खारिज किया है. इन अधिकारों के बारे में सुप्रीम कोर्ट खुद कई बार डिटेल से काफी कुछ कह चुका है. इस फैसले में कोर्ट ने कहा है, "जिन याचिकाओं पर हम विचार कर रहे हैं उनमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या निजता के अधिकारों की बात नहीं है.
सातवां, ऐसा कहना दुखद है कि मुस्लिम महिलाओं का स्कार्फ या हेडगियर पहनने पर जोर देना उनकी आजादी में बाधा है.
3 केस जिन पर कोर्ट को जरूर सोचना चाहिए था
निर्णय के समय, हाईकोर्ट का ध्यान पिल्लै मामले में दक्षिण अफ्रीकी संविधानिक कोर्ट के फैसले, फुगिचा मामले में केन्या कोर्ट ऑफ अपील और मुल्तानी मामले में कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की तरफ खींचा गया. पिल्लै का मामला लड़कियों की नाक में नग लगाने की तमिल प्रथा से संबंधित है, फुगिचा का मामला स्कूलों में हिजाब से संबंधित है, और मुल्तानी का मामला स्कूलों में कृपाण रखने से संबंधित है. हाईकोर्ट ने इन निर्णयों का उल्लेख किया लेकिन ऐसा लगता है कि इन पर ज्यादा विचार किए बिना ही फैसला लिया गया है.
मान्यताओं पर फैसला देना कोर्ट का काम नहीं
फुगीचा केस में कोर्ट ने कहा था- “हिजाब वास्तव में परिधान का एक प्रकार है जो किसी एक धर्म के भीतर रिवाज की अभिव्यक्ति है. अब इस तरह की धार्मिक मान्यताओं की सत्यता की जांच करना कोर्ट का काम नहीं है."
पिल्लै केस में कोर्ट ने कहा-
धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं की रक्षा इसलिए की जाती है क्योंकि वो मानवीय पहचान का आधार हैं और इसलिए मानवीय गरिमा से जुड़ी हुई हैं जो सबको एक समान अधिकार देने की पैरवी करता है. स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार का एक जरूरी तत्व किसी के धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं का सम्मान करना है. ऐसा किसी दायित्व की भावना से करने की मजबूरी नहीं है. ये किसी खास धर्म के रीति रिवाज के पालन करने और उसकी स्वायत्तता, पहचान और गरिमा की रक्षा से स्वेच्छा से करना जरूरी है. यह सामाजिक विविधता की रक्षा की संवैधानिक प्रतिबद्धता के मुताबिक है. यह असहिष्णुता और अलगाव खत्म करने के एतिहासिक आधार हैं
मुल्तानी मामले में, कनाडा के सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में धर्म के साथ संबंध रखने वाली प्रथाओं और विश्वासों को अपनाने की स्वतंत्रता शामिल है. इसमें एक व्यक्ति यह बताता है कि वह ईश्वर से जुड़ने के लिए ईमानदारी से विश्वास रखता है, भले ही किसी आधिकारिक धार्मिक हठधर्मिता या विशेष अभ्यास या विश्वास की जरूरत हो या ना हो.''
आखिरी निष्कर्ष यही है कि – अपनी मर्जी से किसी धार्मिक प्रथा या मान्यता का पालन करने का किसी धर्म या समुदाय को संवैधानिक अधिकार है. इसकी रक्षा धार्मिक आजादी का अधिकार, गरिमा, निजता, विवेक, स्वायत्तता, विविधता और पहचान की स्वतंत्रता के संवैधानिक गांरटी को नजरअंदाज कर दिया गया है. इन अधिकारों के इस्तेमाल के लिए निश्चित रूप से किसी धर्म के भीतर तक घुसकर देखना जरूरी नहीं.
एकरूपता धर्मनिरपेक्षता नहीं है
जब अंतरिम और आखिरी फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत इस मामले को नहीं सुना और हाई कोर्ट के आदेश को नहीं रोका. ऐसा कम ही होता है कि इतने बड़े सामाजिक मुद्दे से जुड़ी याचिका सुप्रीम कोर्ट में आए और वो इसे आगे के लिए टाल दे, बिना ये सोचे कि इसपर तुरंत रोक लगानी चाहिए. मैं निश्चित तौर पर ये मानता हूं कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आखिरी फैसले पर ध्यान दिया होता तो वो इसपर रोक लगा देता.
संवैधानिक तौर पर गलत फैसले जो समाज में असंतोष पैदा करते हैं और बहुसंख्यकों को जश्मन मनाने का मौका देते हैं उनपर फौरी तौर पर फैसला होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट को तुरंत हाई कोर्ट के फैसले की आलोचना करनी चाहिए और एक उदाहरण पेश करना चाहिए. यही संविधान की जरूरत है, यही धर्मनिरपेक्षता की जरूरत है, खासकर अब जब अदालती बहसों में सांप्रदायिक बातें भी कहीं जाने लगी हैं.
''वार रूम'' और ''डिफेंस कैंप'' (जजमेंट में इस्तेमाल किया गया मुहावरा) जैसी एकरूपता की तुलना धर्मनिरपेक्षता से नहीं की जा सकती. सभी अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों जैसा हो जाना चाहिए, ये एक बहुसंख्यकवादी सोच है.
हमें साउथ अफ्रीका की संवैधानिक अदालत की बातें याद रखनी चाहिए-''संविधान इंसानों के अलग होने को मानता है, मानता है कि उन्हें अलग होने के हक है, और राष्ट्र में विविधता का जश्न मनाता है.''
लेखक सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क (HRLN) के फाउंडर हैं. ये एक ओपनियन है और लेखक के विचारों से क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है.
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