भारत में हिंडनबर्ग रिसर्च एक बार फिर से सुर्खियों में है. इसने अपने ताजा खुलासे में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की चेयरपर्सन माधबी पुरी बुच (Madhabi Puri Buch) पर हितों के टकराव के आरोप लगाए हैं, जिसे उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया है. लेकिन दोषी साबित होने तक निर्दोष होने का सिद्धांत ही यहां दांव पर लगा एकमात्र सिद्धांत नहीं है.
अगर यह साबित हो जाता है कि नियामक/ रेगुलेटर की विश्वसनीयता को खत्म करने के लिए उसके खिलाफ आरोप लगाए गए हैं, तो हमें रेगुलेशन से जुड़ी खामियों की सूची में सोची-समझी बदनामी की कोशिश को भी जोड़ना होगा. ऐसी दूसरी खामियां हैं: रेगुलेटरी कब्जा, रेगुलेटरी सनक, रेगुलेटरी अस्पष्टता, अकुशल या गलत जानकारी वाला रेगुलेशन. रेगुलेटर को नुकसान पहुंचाने के ट्रेंड को बंद करना महत्वपूर्ण है क्योंकि एक शॉर्ट सेलर ऐसे आरोप लगाते हैं जो खास प्रतिभूतियों (सिक्युरिटीज) या सूचकांक को नुकसान पहुंचा सकते हैं.
रॉबिन्सन क्रूसो के द्वीप की दुनिया के बाहर, जहां भी लोग एक साथ रहते हैं, उन्हें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती है कि एक व्यक्ति की मुक्का मारने की आजादी दूसरे के बिना मुक्का खाए रहने के अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है. इन मानदंडों को कानूनों में पिरोया गया है, और कानूनों को लागू करने के लिए संस्थान बनाए गए हैं.
कानून अर्थव्यवस्था के साथ-साथ जीवन के हर क्षेत्र को नियंत्रित करते हैं. हालांकि, अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्र हैं जिनमें सक्रिय रेगुलेशन की आवश्यकता होती है. यानी रियल टाइम के आधार पर आचरण के नियमों को लागू करना, न कि केवल कानूनों को लागू करना, जिसमें समय लग सकता है, और कानून के उल्लंघन के मामले में एक्शन लेने में देरी हो सकती है. वजह है कि कानून के हिसाब से उचित प्रक्रिया पूरी होने में वक्त लगता है.
पूंजी बाजार यानी कैपिटल मार्केट रेगुलेशन की मांग करता है. प्रभावी होने के लिए उस रेगुलेटर को विश्वसनीय होना चाहिए. इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि केवल आरोपों से उसकी विश्वसनीयता कम न हो, और रेगुलेटर की विश्वसनीयता पर उठे सवालों का सबूतों के साथ शीघ्रता से निपटारा किया जाए.
हिंडनबर्ग ने सेबी अध्यक्ष माधबी पुरी बुच के खिलाफ मुख्य रूप से तीन आरोप लगाए हैं.
पहला, उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक ऑफशोर फंड में निवेश किया था. हिंडनबर्ग के अनुसार इस ऑफशोर फंड का इस्तेमाल स्टॉक मूल्य में हेरफेर करने के लिए अडानी समूह द्वारा किया गया था. भले ही सेबी में शामिल होने के बाद माधबी पुरी बुच ने इस फंड में अपनी हिस्सेदारी खत्म कर दी, यह आरोप लगाया गया है कि फंड के साथ उनका पहले से जुड़ाव रहा है और यह बात स्टॉक की कीमतों में हेरफेर के आरोप की जांच करते समय उनके निष्पक्ष होने की क्षमता पर सवाल उठाता है.
इस आरोप में दम नहीं है. स्टॉक मूल्य में हेरफेर के आरोप की जांच सबूतों पर आधारित है, इसको प्रोफेशनल्स ने जमा किया और इसका विश्लेषण किया गया है. अगर उन सभी को सेबी चेयरपर्सन द्वारा मैनेज नहीं किया गया है और किसी भी प्रतिकूल सबूत को उनके द्वारा दबाया नहीं गया है, हम यह नहीं कह सकते कि बुच के पहले के निवेश इस जांच के नतीजे को प्रभावित करेंगे.
इसके अलावा, केवल किसी फंड या कंपनी में निवेश करने से निवेशक उस फंड से क्या किया गया, उसमें भागीदार नहीं बन जाता है. LIC, HDFC, SBI और सेंट्रल बैंक IL&FS में प्रमुख निवेशक थे. तो क्या IL&FS ने जो किया उसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? गड़बड़ी के किसी भी आरोप को हमें प्रत्यक्ष सबूत के साथ किया साबित करना चाहिए, न कि केवल किसी तरह के कनेक्शन के आधार पर.
हालांकि, किसी भी सिक्युरिटीज में निवेश के संबंध में सेबी के कर्मचारियोंं का आचरण कैसा हो, इसके रेगुलेशन में एक खामी है. इसमें कर्मचारियों के सेबी में शामिल होने के समय संपत्ति के स्वामित्व की जानकारी देने और जुलाई के अंत तक संपत्ति के स्वामित्व की वार्षिक रिपोर्ट दाखिल करने को कहा जाता है. यह म्यूचुअल फंड को छोड़कर कर्मचारियों के इक्विटी में निवेश पर रोक लगाता है. अचल संपत्ति के मामले में नियम कहता है कि बोर्ड द्वारा नामित किसी सक्षम ऑथोरिटी की पहले से मंजूरी लेनी होगी. लेकिन चल संपत्ति के मामले में, और इसमें शेयर भी शामिल होंगे, ऐसी पूर्व मंजूरी की आवश्यकता केवल तभी होती है जब उसे किसी ऐसे व्यक्ति को बेचा जाए जिसके साथ कर्मचारी की ऑफिसियल डीलिंग होती हो. अन्यथा, लेनदेन की सूचना 30 दिनों के भीतर देनी होगी.
SEC अमेरिका का सिक्युरिटीज रेगुलेटर है. इसके नियम के अनुसार कुछ छूटों के साथ, प्रतिभूतियों में किसी भी लेनदेन से पहले इसके कर्मचारियों को एजेंसी के एक एथिक्स अधिकारी की पूर्व मंजूरी लेनी होती है. सेबी के लिए यह भी उचित होगा कि वह अपने कर्मचारियों द्वारा प्रतिभूतियों के लेनदेन के लिए पूर्व मंजूरी अनिवार्य करे, और बोर्ड के सामने होल्डिंग पीरियड और लेनदेन के बाद के खुलासा करने की व्यवस्था करे.
दूसरा आरोप यह है कि बुच की अध्यक्षता में सेबी ने एक ऐसी नीति बनाई जिसने रियल एस्टेट निवेश ट्रस्ट (REITs) के ग्रोथ में मदद की. इससे दूसरो के साथ साथ एक ऐसे REIT को भी लाभ हुआ जिसमें इंवेस्टमेंट कंपनी ब्लैकस्टोन के बड़े हित जुड़े थे. सवाल यह कहते हुए उठाया गया है कि जब यह नीति बनी उस समय बुच के पति धवल बुच ब्लैकस्टोन के सलाहकार थे.
एक रियल एस्टेट कंसलटेंट के अनुसार, सभी भारतीय शहरों को मिलाकर भी सिंगापुर के बराबर का ऑफिस स्पेस नहीं है. भारत को निश्चित रूप से अधिक वर्कस्पेस, किराये के आवास और अन्य अचल संपत्ति की आवश्यकता है, और REIT इस महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की स्पलाई को बढ़ाने का एक स्वस्थ तरीका है. बुच के हितों के बावजूद, अगर सेबी ने REITs को बढ़ावा देने के लिए नीति नहीं बनाई होती, तो वह उसके तरफ से लापरवाही होती.
इस बात पर आश्चर्य करने के बजाय कि क्या धवल बुच की एक कंपनी में सलाहकार की भूमिका ने सेबी में REIT-अनुकूल नीति विकसित करने में मदद की, यह पूछना अधिक उचित होगा कि क्या उन्हें एक ऐसी कंपनी में सलाहकार के रूप में पद लेना चाहिए था जिसे सेबी रेगुलेट करती है, जबकि सेबी का नेतृत्व खुद उनकी पत्नी कर रही थीं.
निःसंदेह, अगर मिस्टर बुच कोई कारीगर, दर्जी, सैनिक या जासूस होते, तो इस प्रकार की समस्या सामने नहीं होती. लेकिन वह एक कॉर्पोरेट एग्जीक्यूटिव हैं. वह जो भी काम करते हैं, उसे संभावित रूप से उसकी पत्नि के रेगुलेटरी काम के साथ टकराव के रूप में माना जा सकता है.
सेबी कर्मचारियों के रिश्तेदारों के रोजगार पर सेबी की सर्विस रेगुलेशन की धारा 56 क्या कहती है:
पहला- रिश्तेदारों के लिए नौकरी हासिल करने के लिए कोई प्रभाव नहीं डाला जाएगा.
दूसरा- "हर कर्मचारी को सक्षम प्राधिकारी को रिपोर्ट करनी होगी यदि उसका बेटा/बेटी या उसके परिवार का कोई अन्य सदस्य बोर्ड के साथ रजिस्टर्ड किसी ऐसी कंपनी (इंटरमेडियरी) में काम करता है जिसके साथ उसकी ऑफिसियल डीलिंग है. या फिर वह ऐसी कंपनी (अंडरटेकिंग) में काम करता है जिसके साथ बोर्ड की ऑफिसियल डीलिंग है."
एक REIT सेबी बोर्ड के साथ रजिस्टर्ड एक इंटरमेडियरी है. यहां, नियम मानने का भार माधबी बुच पर है कि वह अपने पति की नौकरी की रिपोर्ट बोर्ड को दें. यह कल्पना करना कठिन है कि उन्होंने इस बात को गुप्त रखा होगा.
तीसरा आरोप माधबी बुच की स्वामित्व वाली एक कंसल्टेंसी से जुड़ा है. यदि कंसल्टेंसी के ग्राहक सेबी से रेगुलेट होने वाली संस्थाएं हैं, और उसे बड़ी इनकम होते हैं, तो हितों का टकराव होगा. यह कल्पना की जा सकती है कि उन्होंने इस संपत्ति की घोषणा भी बोर्ड और कंसल्टेंसी के ग्राहकों को की होगी. लेकिन इससे हितों का संभावित टकराव खत्म नहीं होगा.
भारत के रेगुलेटरी सिस्टम का एक दोष यह है कि अलग-अलग रेगुलेटर को उनके काम के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए कोई संस्थागत सिस्टम ही नहीं है. यह रेगुलेटरी सिस्टम को मीडिया के ट्रायल और राजनीतिक पार्टियों के बीच पक्षपातपूर्ण बहस के लिए खुला छोड़ देता है.
रेगुलेटर्स को कार्यपालिका से स्वायत्त यानी आजाद होना चाहिए, उसके प्रति जवाबदेह नहीं. अदालतें यह निर्धारित कर सकती हैं कि रेगुलेटर कानून का पालन करता है या उल्लंघन करता है. लेकिन अदालत का काम भी उन्हें जवाबदेह ठहराना नहीं है. सवाल है कि यह काम यदि सरकार या न्यायपालिका का नहीं है तो फिर किसका है? यह विधायिका होनी चाहिए.
रेगुलेटर्स को विधायिका की एक समिति के सामने नियमित रूप पेश होकर गवाही देनी चाहिए और जनका के इन प्रतिनिधियों को खुद को इस बात से संतुष्ट करना चाहिए कि रेगुलेटर अच्छा काम कर रहे हैं. एक बार जब उन्हें यह जिम्मेदारी दे दी जाती है, तो सांसद इसमें अपनी छाप छोड़ने का अवसर देखेंगे, जैसा कि अमेरिकी सीनेटर करते हैं.
रेगुलेटर की विश्वसनीयता को मजबूत करने और माधबी बुच की निष्पक्षता के हित में, उन्हें विधायिका की एक समिति के सामने पेश होने, अपनी बात रखने और सवालों के जवाब देने का अवसर दिया जाना चाहिए, ताकि समिति अपना काम जल्दी से पूरा कर सके.
सवाल है कि क्या उन्हें इस प्रक्रिया के दौरान अपना पद छोड़ देना चाहिए? यदि बोर्ड, जिसके पास उनके कंसल्टेंसी बिजनेस के बारे में जानकारी है, को यह अनुचित नहीं लगता है, तो समिती के काम पूरा होने तक उन्हें पद पर बने रहना चाहिए.
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इकोनॉमिक टाइम्स में ओपिनियन्स के पूर्व संपादक हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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