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हिंदू त्योहारों में मीट आम बात, तो सोशल मीडिया पर शाकाहारी भोजन की फोटो ही क्यों

त्योहारों के दिनों में भी हिंदू मीट का आनंद लेते हैं, यहां तक कि कुछ अवसरों पर यह प्रसाद का हिस्सा भी होता है.

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जब भी कोई हिंदू त्योहार नजदीक होता है, तब सोशल मीडिया पर पारंपरिक 'फेस्टिवल' फूड की रेसिपियों और तस्वीरों की बाढ़ आ जाती है. आप नोटिस कर सकते हैं कि इन तस्वीरों में कहीं मांस या मीट नहीं दिखाई देता है, लेकिन त्योहारों के दिनों में भी हिंदू मीट का आनंद लेते हैं. वास्तव में, कुछ अवसरों पर यह प्रसाद का हिस्सा भी होता है. तो ऐसा क्यों है कि हम केवल शाकाहारी व्यंजनों से सजी-लदी हुई प्लेट्स देखते हैं और उन्हें शानदार उत्सवों के साथ जोड़ते हैं.

पुरातत्वविद् और पाक मानवविज्ञानी डॉ कुरुश एफ दलाल कहते हैं कि "कुल मिलाकर आज अधिकांश हिंदू परंपराओं में, विशेष रूप से धार्मिक प्रकृति वाले मौकों पर शाकाहार की प्रबलता को देख सकते हैं... क्योंकि ये उत्सव ब्राह्मण-संचालित हैं. और चूंकि अधिकांश ब्राह्मण वेजिटेरियन यानी कि शाकाहारी हैं, इसलिए शाकाहार सिद्धांत या शाकाहारवाद की प्रधानता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि "यहां पर सिर्फ शाकाहारवाद है."

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भोजन की धारणा में होती है सांस्कृतिक दबदबे की भूमिका

वास्तव में, नॉन-वेजिटेरियान फूड या मांसाहारी व्यंजन हिंदू धर्म में विभिन्न परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. खुद का परिचय सकलद्वीप ब्राह्मण के तौर पर कराने वाली झारखंड की प्रियांजलि मिश्रा कहती हैं कि "जब हम शादी-विवाह जैसे विशेष अवसरों पर अपनी कुलदेवी की पूजा करते हैं, तब हम बकरे की बलि देते हैं और बकरे का सिर कुलदेवी के सामने रखते हैं, वहीं बाकी के हिस्से को पकाते हैं. वास्तव में, यह हमारे उपनयन या जनेऊ संस्कार का भी एक हिस्सा है." उपनयन या जनेऊ संस्कार पारंपरिक रूप से "उच्च-कुल में जन्मे" हिंदुओं की दूसरे जन्म की स्थिति को दर्शाता है.

इससे भी बड़ी बात यह है कि मांस प्रसाद का भी हिस्सा बन जाता है. उदाहरण के लिए बंगाल के कुछ हिस्सों में नवरात्रि के नौवें दिन यानी कि नवमीं के दिन.

सूचना सेन बंगाल की कायस्थ हैं, वे कहती हैं कि "चूंकि मीट प्रसाद का हिस्सा होता है, इसलिए इसे बिना प्याज और लहसुन के पकाया जाता है." वे आगे बताती हैं कि "मेरी मां का परिवार वर्तमान में बांग्लादेश में है, उनके यहां दशमी पर हिल्सा (मीठे पानी की एक मछली) पकाई जाती है." विजयदशमी या दशहरा, नौ दिनों के त्योहार का समापन होता है, यह दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है.

हम इस तरह की विविध प्रथाओं के सामने खाने और जश्न मनाने की सिर्फ एक शैली को बेहतर कैसे मान सकते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि सांस्कृतिक दबदबा सहमति के साथ ही जबरदस्ती के साथ भी बनाया जाता है. बालमुरली नटराजन और सूरज जैकब लिखते हैं कि "मीडिया, सामुदायिक संगठन और स्वयंभू संस्कृति के रक्षक नियमित रूप से भोजन की प्रथाओं पर सार्वजनिक दावे करके एक तरह की प्रथा का दबदबा कायम रखते हैं. (उदाहरण के लिए, शाकाहारवाद को महत्व देना और बीफ खाने को कलंक और अपराधीकरण से जोड़ना)."

दलाल कहते हैं कि "दरअसल मीट या मांस की रोक वैष्णववादियों में है... शैववाद में मांस खाने को लेकर कोई रोक या प्रतिबंध नहीं है... मां देवी पंथ-संप्रदाय में भी मांस खाने को लेकर कोई रोक या मनाही नहीं है." अब वैष्णव संप्रदाय हावी है. वैष्णव वे हिंदू हैं जो विष्णु और उनके अवतारों जैसे राम और कृष्ण की पूजा करते हैं. एक संप्रदाय के वर्चस्व के कारण उनकी प्रथाओं को या तो डिफॉल्ट माना जाता है या कम से कम श्रेष्ठ माना जाता है.

फेस्टिवल फूड हैं स्पेशल

विक्रम डॉक्टर और वीर सांघवी जैसे पत्रकारों ने उस शाकाहारी और मांसाहारी बाइनरी पर सवाल उठाए हैं जिनका हम बार-बार सहारा लेते हैं. डॉक्टर उन फूड्स के बारे में बात करते हैं जो मांस और सब्जियों/दाल दोनों का सबसे अच्छा उपयोग करते हैं और ऐसे फूड को "अर्ध-शाकाहारी" कहते हैं.

संघवी जटिल आहार रीति-रिवाजों की बात करते हैं, जो घर पर "शुद्ध शाकाहारी" होते हैं लेकिन घर के बाहर "मांसाहारी" होते हैं. "पार्ट टाइम" शाकाहारवाद की इस तरह की समझ को ऐसे मांस खाने वाले हिंदुओं पर भी लागू किया जा सकता है जो सप्ताह के कुछ दिनों में या धार्मिक/आध्यात्मिक महत्व की कुछ निश्चित अवधियों (आमतौर पर उपवास के समय) के दौरान मांसाहारी भोजन से परहेज करते हैं.

इसलिए भले ही सांस्कृतिक वर्चस्व उत्सव के अवसरों पर शाकाहारी प्रथाओं को समझने का एक तरीका है, लेकिन इसे एक व्यक्तिगत पसंद के तौर पर भी देखना संभव है जिसे लोग आध्यात्मिक और धार्मिक कारणों से अपनाते हैं.

विक्रम डॉक्टर कहते हैं कि "दुनिया भर में एक आम चलन है कि त्योहारों के लिए आप विशेष भोजन करते हैं या आप ज्यादा सीमित मात्रा में खाते हैं ... आंशिक तौर पर यह कुछ ऐसा है जैसे कि आप खुद को शुद्ध कर रहे हैं. उदाहरण के लिए योम किप्पुर पर यहूदी खमीर वाले किसी भी भोज्य पदार्थ को नहीं खाएंगे… इसलिए यह त्योहारों को थोड़ा और खास बनाने का एक तरीका है."

वे इन व्यंजनों को विश्व की सबसे महान शाकाहारी परंपरा- भारतीय शाकाहारी परंपरा का उत्सव मनाने के रूप में देखते हैं. यह उनके लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है, जहां एक ओर भारत में शाकाहारवाद को हथियार बनाया जा रहा है, उन्होंने पाया कि मांसाहारवाद को भी हथियार बनाया जा रहा है. वे कहते हैं कि मांस खाने को अब भारत में प्रोग्रेसिव राजनीति के साथ जोड़ा जा रहा है.

आज के संदर्भ में जो चीज शाकाहारी भोजन को खास बनाती है, वह है मांस (विशेषकर चिकन) की आसान उपलब्धता. यह आसान उपलब्धता भारत में कमर्शियल पोल्ट्री फार्मिंग के आने की वजह से हुई है.

भारत में बड़े पैमाने पर मुर्गी पालन की शुरुआत 1960 के दशक में की गई, इससे मांसाहारी भोजन अधिक किफायती और ज्यादा आम हो गया.

डॉ दलाल कहते हैं कि "जब तक मुर्गियां अंड़े देती हैं तब तक उन्हें रखा जाता है, जब वे आप को अंड़े देना बंद कर देती है तब उन्हें करी (चिकन करी) में तब्दील कर दिया जाता है."

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सांप्रदायिक उत्सवों और कुर्बानी में जिन जानवरों को मारा जाता था उनका आकार बड़ा होता था. कुर्बानी या बलि के बाद उस जानवर का मांस सबके बीच बांट दिया जाता था. आज भी देश के कुछ हिस्सों में यह उत्सवों की खासियत है. न्यूट्रिनिस्ट रुजुता दिवाकर के अनुसार महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में गौरी-गणपति फेस्टिवल के अंत में "उत्सव के भोजनों में मांस भी शामिल है.... जहां... देवी को एक बकरा अर्पित किया जाता है और पूरे गांव में उस बकरे का मांस शेयर किया जाता है."

बेयरुथ यूनिवर्सिटी में फूड सोशियोलॉजी की जूनियर प्रोफेसर डॉ टीना बार्टेल्मे के अनुसार, हालांकि वांछनीय खाद्य पदार्थों के प्रचार-प्रसार में सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर स्टडी की गई हैं लेकिन वास्तविक खाद्य व्यवहार में इसका क्या प्रभाव पड़ता है यह स्पष्ट नहीं है. हालांकि यहां पर जो बात स्पष्ट है वो यह कि सोशल मीडिया वांछनीय खाद्य पदार्थों के बारे में विचारों को आकार दे सकता है. हालांकि डॉ बार्टेल्मे की जो स्टडी है वह अच्छे पोषण पर केंद्रित है, लेकिन खाने पर सोशल मीडिया का क्या असर होता है, ये भी पता चलता है.

कुमाऊं के सहस के क्षत्रिय समूह से ताल्लुक रखने वाली सिंधुजा शाह कहती हैं, “हमारी संस्कृति में मटन त्योहारों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है. शादी, दशहरा और दीवाली के बाद टीका में यह बनता है. मटन को कभी भी बुरा नहीं माना जाता था क्योंकि आखिरकार यह प्रसाद है. यह देवी को चढ़ाया जा रहा है और आप इसे खा रहे हैं. एक तरह से आप हर चीज के लिए सिर्फ देवताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं."

सेन कहती हैं कि "कुल मिलाकर विचार यह है कि भोजन एनर्जी है और हमें सब कुछ खाने की स्वतंत्रता है." भले ही इनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर न आएं.

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