जरा इन दो सिचुएशन की तुलना कीजिए:
भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी ने 2014 में उत्तर प्रदेश की रामपुर लोकसभा सीट सिर्फ 37 फीसदी वोटों के साथ जीती थी. इस संसदीय क्षेत्र में 50 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं. यहां से लंबे समय से मुसलमान नेता चुनकर संसद पहुंचते रहे हैं. 2014 आम चुनाव में यहां से 12 प्रत्याशी किस्मत आजमा रहे थे, जिनमें सात मुसलमान थे. बीजेपी को छोड़कर सारी बड़ी पार्टियों ने मुसलमान प्रत्याशी खड़े किए थे, जिससे अल्पसंख्यक वोटों का बंटवारा हुआ.
यह तो हुई 57 महीने पहले की बात, जब जनता को रोजगार के सपने दिखाए जा रहे थे. कालेधन के खात्मे के वादे किए जा रहे थे. हिंदुत्व की घुट्टी तो खैर पिलाई ही गई थी. ‘अच्छे दिन’ का वादा तब इतना लुभावना था कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती थी. ट्रोल आर्मी भी गाली-गलौज पर उतारू नहीं थी, न ही वह उतनी खतरनाक थी, जितनी आज हो गई है.
अब दूसरी सिचुएशन पर आते हैं.
इस साल उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए थे. राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के मुस्लिम प्रत्याशी ने 52 पर्सेंट वोट हासिल करके यहां से जीत हासिल की. इस सीट पर 38 पर्सेंट मुसलमान वोटर हैं. दो और मुस्लिम प्रत्याशियों के मैदान में होने के बावजूद संयुक्त विपक्ष की तरफ से आरएलडी प्रत्याशी ने ज्यादातर मुसलमानों के वोट हासिल किए.
इन दोनों से मामलों से पता चलता है कि मुसलमानों के वोटिंग करने के तरीके में एक बदलाव आया है, जो राजनीति के लिहाज से बहुत अहमियत रखता है. मुसलमान कभी एकजुट होकर वोट नहीं करते. 2014 में भी ऐसा ही हुआ था, लेकिन इधर हिंदुत्व को लेकर जो नंगी आक्रामकता दिख रही है, उससे मुसलमानों में वोट की ताकत दिखाने को लेकर सहमति बनती दिख रही है. उन्हें लग रहा है कि यही आगे का रास्ता है.
इधर नाम बदलने की भी एक मुहिम शुरू हुई है. देश की साझी विरासत पर इस्लाम की छाप मिटाने के लिए यह खेल खेला जा रहा है. यह हिंदुत्व की उसी नंगी आक्रामकता की एक कड़ी है.
कैराना से मुसलमानों ने एकजुट होने का दिया संकेत
कैराना उपचुनाव से मुसलमानों ने शायद यह संदेश दिया है कि वे आगे एकजुट होकर किसी प्रत्याशी या पार्टी के लिए वोट करेंगे. अगर ऐसा होता है, तो 2019 लोकसभा चुनावों पर उसका क्या असर होगा?
इसे समझने के लिए पहले कुछ आंकड़ों को देखते हैं. देश में 14 संसदीय क्षेत्र ऐसे हैं, जहां 50 पर्सेंट से अधिक मुसलमान वोटर हैं. असम में ऐसी चार सीटें हैं. पश्चिम बंगाल और जम्मू-कश्मीर में तीन-तीन सीटें. केरल में ऐसे दो संसदीय क्षेत्र हैं और बिहार में एक. लक्षद्वीप भी ऐसी ही सीट है.
इनके अलावा 13 सीटें ऐसी हैं, जहां 40 पर्सेंट से ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं. अगर दोनों को मिला दें, तो यह कहा जा सकता है कि 27 लोकसभा सीटों पर मुसलमान चाहें, तो किसी प्रत्याशी या पार्टी को जिता सकते हैं.
कम से कम 50 सीटों के नतीजे तय कर सकते हैं मुसलमान वोटर
भरोसेमंद अनुमान के मुताबिक, देश में करीब 20 पर्सेंट से ज्यादा मुस्लिम वोटरों वाली 101 लोकसभा सीटें हैं. इनमें से 50 तो ऐसी हैं, जहां एक-तिहाई मुस्लिम वोटर हैं. इसके बावजूद 2014 में सिर्फ 22 मुसलमान ही लोकसभा पहुंचे.
अंग्रेजी अखबार 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, केवल 7 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश से मुस्लिम सांसद चुने गए. 22 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेश ने पिछले चुनाव में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं चुना!
कई संसदीय क्षेत्रों में संख्या बल होने के बावजूद मुस्लिम नेता हाशिये पर क्यों हैं?
मेरी रिसर्च के मुताबिक, ‘हाल में 6 राज्यों में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनाव के विश्लेषण के मुताबिक मुस्लिम जन-प्रतिनिधियों की संख्या में करीब 35 पर्सेंट की गिरावट आई है.'
मैंने अपनी रिसर्च में महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली को शामिल किया है. इन राज्यों में कुल 968 विधानसभा सीटें हैं. दो चुनाव के बीच इन राज्यों में मुस्लिम विधायकों की संख्या 35 से घटकर 20 रह गई. 22 मुस्लिम सांसद भी 62 वर्षों में सबसे कम संख्या है. सिर्फ आजाद भारत के पहले चुनाव में इससे कम मुसलमान सांसद चुने गए थे.
मुस्लिम प्रत्याशी बढ़े, लेकिन जीतने वालों की तादाद घटी
मेरी रिसर्च बताती है कि 2014 लोकसभा चुनाव में 2009 की तुलना में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या 5 पर्सेंट बढ़ी थी. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी उस साल ऐसा ही हुआ था. फिर क्यों कम मुस्लिम जन-प्रतिनिधि चुने जा रहे हैं?
यह मुस्लिम वोटों के बंटने से हो रहा है. लेकिन यह भी गुजरे वक्त की बात है, जब कुछ पार्टियों की कथित तौर पर ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण’ के लिए आलोचना हो रही थी. (मुझे नहीं पता कि इस शब्द का चलन कैसे बढ़ा, क्योंकि आंकड़ों से तो यही लगता है कि मुसलमानों का कभी तुष्टिकरण हुआ ही नहीं.)
कई जाने-माने स्कॉलर कहने लगे थे कि मुसलमानों में मुख्यधारा से जुड़ने की बेताबी बढ़ रही है. सच्चर कमेटी की सिफारिशों से संकेत मिला था कि मुस्लिम समुदाय के लोग तेजी से बढ़ने वाले बिजनेस से जुड़ रहे हैं. इससे उनकी आर्थिक ताकत बढ़ रही है, लेकिन इसी ताकत ने उन्हें राजनीतिक तौर पर और बांट भी दिया है. और जो सही भी है. एक कम्युनिटी की तरह वोट करना अपने निजी अधिकार को ग्रुप के मुद्दों से मिलाकर देखने जैसा है.
लेकिन अभी हालात बदल रहे हैं. मुसलमान जिन कारोबार से जुड़े हैं, उन्हें निशाना बनाया जा रहा है. मीट ट्रेड इसकी मिसाल है. इससे मुसलमान निराश हैं. इधर, मुसलमानों से जुड़ी हर चीज को नीचा दिखाए जाने की जो कोशिश हो रही है, उससे उनकी बेचैनी और बढ़ी है. साथ ही, उनमें वोट की ताकत का अहसास भी बढ़ा है.
अच्छा होगा कि सत्ताधारी बीजेपी और आक्रामक हिंदुत्व के पैरोकार इस ट्रेंड को समय रहते समझ लें, नहीं तो बड़ी देर हो जाएगी. हिंदू वोटों का कंसॉलिडेशन कभी नहीं हुआ है और न ही इसकी संभावना है, लेकिन अगर मायूस मुसलमानों ने एकजुट होकर वोट किया, तो बीजेपी के लिए 2019 में दिल्ली दूर जा सकती है.
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