लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए आखिरकार, राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. राहुल ने 25 मई को कांग्रेस वर्किंग कमेटी में ही कह दिया था कि अपना नया अध्यक्ष चुन लीजिए. लेकिन पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी. 40 दिन तक उन्हें मनाने का सिलसिला चलता रहा, लेकिन राहुल अपने फैसले पर डटे रहे.
राहुल का ये फैसला अपने आप में एक नई चीज है. वो पार्टी को ये मैसेज देना चाहते हैं कि हार हुई तो किसी को तो जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी. इस एक फैसले से राहुल न सिर्फ गुटबाजी करने वालों पर नकेल कसना चाहते हैं बल्कि नए अध्यक्ष को पूरी ताकत भी देना चाहते हैं. वो चाहते हैं कि वंशवाद और परिवारवाद की काली छाया से मुक्त होकर कांग्रेस सही मायने में कार्यकर्ताओं के हाथ में चली जाए. पार्टी में ‘व्यक्ति से बड़ा संगठन’ वाली संस्कृति पनपे.
अब वक्त तय करेगा कि उनका ये कदम कांग्रेस को धीरे से लगा जोरदार झटका है या फिर उसके लिए संजीवनी बूटी जुटाने की जुगत! लेकिन इस समय इस बात पर गौर करना बेहद दिलचस्प होगा कि महज 565 दिनों के राहुल के कार्यकाल (16 दिसंबर 2017 से लेकर 03 जुलाई 2019) को कांग्रेस और देश किस तरह से याद रखेगा?
राहुल गांधी के साथ नेहरू-गांधी परिवार की विरासत जरूर है, लेकिन उनकी छवि कभी जन्मजात नेता की नहीं बनी. परिवार के वफादारों ने सोनिया के उत्तराधिकारी के रूप में राहुल की पहचान वैसे ही की, जैसी कम्यूनिस्ट और बीजेपी के सिवाय देश की हरेक क्षेत्रीय पार्टी में होती रही है. उन्हें पहले सांसद बनवाया गया. फिर कांग्रेस का महासचिव और उपाध्यक्ष.
कांग्रेसियों की जिद थी कि वही सोनिया के बाद अध्यक्ष बनें. आखिरकार, तमाम ना-नुकुर के बाद वो निर्विरोध अध्यक्ष बन भी गए. लेकिन उन्हें कभी किसी ने न तो नैचुरल नेता माना और ना ही सियासत का धुरंधर. वो ओजस्वी वक्ता भी नहीं बन सके. ना ही उन्होंने अपनी प्रशासनिक और सांगठनिक क्षमताएं साबित कीं. लेकिन राहुल ने पूरी मेहनत की.
राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकारी बनाई. गुजरात विधानसभा चुनाव में भी पार्टी सरकार बनाने के लिए जादुई आंकड़े के करीब आ गई थी. हालांकि, अरूणाचल और गोवा जैसे राज्य पार्टी के हाथ से चले गए. ये सब तब हुआ जब राहुल गांधी ने सॉफ्ट हिन्दुत्व का कार्ड भी आजमाया. किसानों और युवाओं को कांग्रेस से जोड़ने की कोशिश की. राहुल ने कॉलेजों में भी जनसंपर्क किया.
राहुल-काल में ही कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर बीजेपी का मुकाबला करना शुरू किया. हालांकि, बाजी अक्सर बीजेपी के ही हाथ लगती रही. मोदी की तरह ही कांग्रेस ने भी चुनाव में राहुल गांधी पर ही सारा दांव लगाया.
मुकाबले में पिछड़ने पर बहन प्रियंका को आगे लाया गया, लेकिन इसमें अच्छी खासी देरी हुई. प्रियंका तुरुप का पत्ता नहीं बन सकीं. कांग्रेस के सहयोगी संगठनों जैसे सेवादल, एनएसयूआई, यूथ कांग्रेस, महिला कांग्रेस, इंटक वगैरह में भी नया जोश नहीं भरा जा सका. समाज के बुद्धिजीवियों और मध्यम वर्ग में कांग्रेस अपने सकारात्मक पक्ष को नहीं पहुंचा सकी. जबकि इसी वर्ग पर बीजेपी के चरित्र-हनन की रणनीति ने सबसे ज्यादा प्रभाव छोड़ा. रही-सही कसर व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की ओर से फैलाए गए झूठे सच्चे संदेशों ने पूरा कर दिया.
बीजेपी और संघ परिवार के सच्चे-झूठे प्रचार ने राहुल गांधी का जैसा चरित्र-हनन किया, वैसा कांग्रेस के किसी बड़े नेता को नहीं झेलना पड़ा. लेकिन 40 दिन से अपने इस्तीफे पर अड़े रहकर राहुल ने इतना तो साबित किया ही कि वो पद के लालची नहीं हैं. कुर्सी के भूखे नहीं हैं.
राहुल के इस्तीफे की पृष्ठभूमि से साफ है कि कांग्रेस का अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से नहीं होगा. यानी, न तो सोनिया फिर से कांग्रेस की कमान संभालेंगी और ना ही प्रियंका अगला विकल्प बनेंगी. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस पार्टी पर से गांधी परिवार का प्रभाव खत्म हो जाएगा.
कांग्रेस पर जैसा साया गांधी परिवार का है, वैसा ही बीजेपी पर संघ परिवार का है. वैसे सच्चाई ये है कि परिवारवाद से कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं है. सिर्फ कम्यूनिस्ट ही वंशवाद से दूर हैं. बाकी सभी क्षेत्रीय दलों में भी परिवारवाद का परचम लहराता रहा है. अब तो मायावती और ममता की पार्टियों में भी यही हो रहा है. बीजेपी में भी नेताओं के बच्चों की भरमार है.
(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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