पटना कॉलेज के ठीक सामने की एक गली में खाने के कई ढाबे हुआ करते थे. गर्मी के महीने में लगातार कई क्लास अटेंड करने के बाद एक ढाबे में मैं खाने पहुंच गया. शुद्ध शाकाहारी खाना. लेकिन खाना खत्म करने के साथ ही मुझे पता चल गया कि मैं गलत जगह खाना खा आया. गलत जगह इसलिए कि वहां काम करने वाले मेरे धर्म के नहीं थे.
इसके बाद तो मेरे अंदर एक चेन रिएक्शन शुरू हो गया. भागा-भागा मैं पटना कॉलेज के पीछे गंगा नदी के पास चला गया. उल्टी की और गंगा में डुबकी लगाकर अपना पाप धोया.
जब बिहार से निकला संस्कारी बिहारी
साल 1992 से पहले मैं वैसा ही था- एक संस्कारी, अगड़ी जाति वाला बिहारी, जिसकी क्या और कहां खाना है की एक लंबी लिस्ट थी. किससे दोस्ती करनी है और किससे नहीं, इसका भी एक नियम था. और सबसे बड़ी बात- दूसरी बातों और विचारों को कैसे कोसों दूर रखना है इसको मैंने अपने संस्कार का ढाल बना लिया था.
उससे पहले दूसरी दुनिया से मेरा एक ही वास्ता था- उस समय की सोवियत यूनियन से निकलने वाली रादुगा प्रकाशन की सस्ती लेकिन अच्छी डिजायन वाली किताबें जिसमें मैक्सिम गोर्की और फ्योदोर दोस्तोएव्स्की की किताबें भी थीं. लेकिन वो तो किताबें थी- बेजान और बेअसर. मेरे गहरे संस्कार को हिलाने की उनमें क्षमता कहां थी.
दिल्ली यूनिवर्सिटीः दिमाग खोल देने वाली पाठशाला
इस भारी भरकम संस्कार के बोझ को लेकर मैं ठीक 25 साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंचा. शुरुआती कुछ हफ्ते तो झकझोरने वाले थे. लड़के-लड़कियां बेहिचक बातें करती दिखीं, प्रोफेसर और छात्रों के बीच हंसी-ठिठोली. लड़कियों के अजीबो-गरीब पोशाक, रात की पार्टी और शराब-सिगरेट की खुलेआम बातें.
दिल्ली विश्वविद्यालय के हॉस्टल जुबिली हॉल में पहली रात तो और भी चौंकाने वाली थी. रात के तीन बजे शोर से नींद खुली तो पता चला कि दो गुटों में लड़ाई हो रही है. तलवारें निकली हुईं हैं, देशी कट्टे लहराए जा रहे हैं. एक छात्र को खूब चोट लगी थी. खून बह रहा था. मामला शांत होने के बाद पूछताछ से पता चला कि- स्मार्ट बन रहा था. स्मार्ट बनेगा तो पिटाई खाएगा.
चार सालों ने बदल दी सोच
ये थी दिल्ली विश्वविद्यालय की शुरुआती झलकियां. मैं पूरी तरह से हिल गया था. शायद डीयू पूरी तरह से हिलाकर ही मुझे अपने अपनाना चाहता था. उसके बाद के चार साल ने मेरी सोच ही बदल दी. डीयू ने मुझे सिखाया कि वैचारिक मतभेदों को कैसे जिया जाता है.
मैंने पाया कि पार्टी की बात करने वाले भी उतने ही कूल हैं जितने बाकी सभी. कि बंगाली और मद्रासी भी बिल्कुल हमारे जैसे हैं. कि धर्म और संस्कार हमें जोड़ता है, इसका इस्तेमाल दिलों को तोड़ने के लिए तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए. कि देशभक्ति और देशद्रोही जैसी अवधारणाओं का मतलब समय और परिपेक्ष्य के साथ बदलता रहता है. कि आखिरी सच जैसा कुछ नहीं होता है और सवाल उठाना कुछ नया जानने के लिए एकदम जरूरी होता है. डीयू ने इन सब बातों को हमें आत्मसात करना सिखाया.
‘डीयू एक ऐसा चौराहा है जहां सारी फिजाएं मिलती हैं’
यह सब बड़ी बाते लगती हैं जो किताबों में लिखी जाती रहीं हैं. लेकिन डीयू में हमने इसे हर पल जिया. एक बिहारी को लाख खामियों के बावजूद बिना सवाल पुछे सबने अपनाया. यह बड़ी बात थी.
मेरे साथ कभी भी इस बात को लेकर भेदभाव नहीं हुआ कि मैं उनकी भाषा में निपुण नहीं था. फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोल पाता था, पार्टी में दिलचस्पी नहीं थी, अपनी बातें दमदार तरीके से नहीं कह पाता था. दिल्ली की सर्किल में मिसफिट होने के लिए यह सब काफी नहीं. लेकिन किसी ने इन वजहों से मुझे नकारा नहीं, कभी भेदभाव नहीं हुआ. कभी जात नहीं पूछी गई, कभी धर्म का खुलासा नहीं करना पड़ा. सबने दिल खोलकर अपनाया.
मेरे संस्कार ने कहा कि अगर वो मुझे इतनी सहजता से अपना सकते हैं और वो भी बिना किसी शर्त के, तो फिर उन्हें अपना कहने में झिझक क्यों?
लेफ्ट, राइट- ये सारी विचारधाराएं उस समय भी थी लेकिन किसी पर थोपने की जिद नहीं थी. एवीबीपी, एनएसयूआई, एएफआई और आईसा उस जमाने में भी था. लेकिन किसी को डीयू की आत्मा बदलने की इजाजत नहीं थी. डीयू एक ऐसा चौराहा था जहां सारी फिजाएं मिलती थी. और उस विविधता का सभी आनंद लेते थे.
कुछ दिनों की घटना ने डीयू की आत्मा पर चोट पहुंचाई है. लेकिन क्या यह विश्वविद्यालय अपनी आत्मा फिर से पा लेगा. मुझे पूरा भरोसा है कि ऐसा ही होगा. गुरमेहर कौर जैसी आवाजें सुनने के बाद यह भरोसा और भी बढ़ जाता है.
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