2022 को एक अहम दशक की वर्षगांठ के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है.
अब से 10 साल यानी एक दशक पहले भारत में गरीबी रेखा के लिए नए मानक तैयार करने के लिए रंगराजन समिति बनाई गई थी. इस समिति ने 2014 में अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी लेकिन उस पर सरकार ने अभी तक कोई फैसला नहीं किया है. इसके साथ ही योजना आयोग द्वारा गरीबी के आंकड़े आखिरी बार 2011-12 के लिए जारी किए गए थे. उस समय जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 26.98 करोड़ या कुल जनसंख्या का 21.9 फीसदी आंकी गई थी. तब से लेकर अब तक 10 साल गुजर चुके हैं लेकिन भारत में गरीबी का कोई आधिकारिक अनुमान जारी नहीं किया गया है.
भारत जैसे लोकतंत्र के लिए जहां गरीबी उन्मूलन सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है और सरकार द्वारा यह बयानबाजी की जाती है कि वह "अभिजात वर्ग विरोधी" है, ऐसे में यह हैरान करने वाला है कि सरकार ने आखिर आठ साल तक इस स्पष्ट प्रश्न का सामना करना क्यों उचित नहीं समझा. रिकॉर्ड रखे जाने के बाद पहली बार भारत ने निजी उपभोग व्यय में गिरावट देखी. यह 2016 की नोटबंदी के बाद अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के तहस-नहस होने से हुआ.
1970 के दशक के बाद से बेरोजगारी अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई. इसके अलावा और भी सूचकांक है जो यह दर्शाते हैं कि स्थिति बिगड़ रही है, जैसे कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंक गिर रही है और ग्रामीण रोजगार गारंटी की मांग बढ़ रही है, यह दिखाता है कि संकट गहरा रहा है. इस सवाल का ईमानदारी से सामना करने की जरूरत है कि कितने भारतीय गरीब हैं और हम वास्तव में किस तरह की अर्थव्यवस्था हैं.
देश में गरीबों की संख्या 26.98 करोड़ आंकी गई थी. इस आंकड़े को जारी हुए 10 साल बीत चुके हैं, लेकिन तब से लेकर अब तक भारत में गरीबी का कोई आधिकारिक अनुमान जारी नहीं किया गया है.
यह महत्वपूर्ण है कि "80 करोड़" भारतीयों को सूखा राशन देने की सरकारी योजना अगले तीन महीने तक जारी रखी जाए.
भले ही भारत सरकार अप्रत्यक्ष रूप से गरीबी के आंकड़े दे रही हो, लेकिन इस भ्रम को दूर करने की जरूरत है कि भारत एक मिडिल क्लास यानी मध्यम वर्गीय देश है.
80 करोड़ को खाद्य सहायता की जरूरत की वास्तविकता को स्वीकारना भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक अच्छी शुरुआत होगी.
'80 करोड़' का महत्व
सरकार का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था जो महामारी के पहले से ही गंभीर संकट में है, ऐसे में अगर उसके आंकड़े जुटाकर सामने लाए जाते हैं तो इससे राजनीति में उथल-पुथल मच जाएगी. इसलिए यहां आंकड़ों का सूखा पड़ा हुआ है. इस संदर्भ में रिपोर्ट्स के अनुसार अगले तीन महीने तक "80 करोड़" भारतीयों को सूखा राशन देने वाली सरकारी स्कीम महत्वपूर्ण है.
"गरीबों को रक्षा कवच" प्रदान करने के नाम से यह स्कीम अप्रैल 2020 में शुरु की गई थी, तब से लेकर पहले ही इस योजना को छह बार आगे बढ़ाया जा चुका है. यह लगातार बढ़ती गरीबी की पुष्टि करता है. किसी अन्य आधिकारिक अनुमान की गैर मौजूदगी में 80 करोड़ का यह आंकड़ा उन लोगों की संख्या के लिए निकटतम आधिकारिक अनुमान है जो न सिर्फ गरीबी रेखा नीचे नहीं रह रहे हैं, बल्कि ये और भी बातें बताता है.
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत खाद्यान्न के लिए उनकी पात्रता के अलावा, प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलोग्राम मुफ्त भोजन यदि इतना बड़ा जीवन रक्षक है तो ऐसे में ये 80 करोड़ लोग अति गरीब नहीं हैं तो क्या हैं?
भारतीयों का भोजन का अधिकार
जैसा कि इन दिनों लगातार यह कहा जा रहा है कि भारत 'सबसे तेजी से बढ़ने वाला' देश है, ऐसे में यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारत की प्रति व्यक्ति आय 2,277 अमेरिकी डॉलर है, जो वैश्विक औसत 12,262 अमेरिकी डॉलर का एक छोटा सा हिस्सा है. यहां पर असमानता (2017 में उत्पन्न संपत्ति का 73% सबसे अमीर 1% के पास गया) और कम गतिशीलता (प्रमुख भारतीय परिधान कंपनी में शीर्ष वेतन पाने वाला कार्यकारी एक साल में जितना कमाता है उस स्थिति तक पहुंचने के लिए ग्रामीण भारत में न्यूनतम मजदूरी पर काम करने वाले वर्कर को 941 साल लगेंगे) के आंकड़ों को देखते हुए याद रखना अहम है कि यह 2,277 अमेरिकी डाॅलर भी औसत आय नहीं है. सरकार की ओर से गरीबों को लेकर जो अनुमान है उनमें से 80 करोड़ की संख्या सबसे निकटतम है, शाब्दिक तौर पर ये लोग अति गरीब हैं.
भारत में हंगर पर काम करने वालों का कहना है कि 80 करोड़ का यह आंकड़ा थोड़ा कम प्रतीत होता है यह 10 करोड़ कम है. इन लोगाें के अनुसार यह आंकड़ा कम से कम 90 करोड़ है. इसके अलावा 24 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने सभी प्रासंगिक तथ्यों पर विचार करते हुए सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम (2013) के दायरे का विस्तार किया जाए; कोर्ट ने कहा कि "यदि कोई एक फार्मूला और /या उचित नीति/योजना हो तो उसके साथ सामने आएं, ताकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत दिया जाने वाला लाभ 2011 की जनगणना के अनुसार तक ही सीमित न हो बल्कि इससे अधिक से अधिक जरूरतमंद नागरिकों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लाभ प्राप्त हो सके. इसे भी ध्यान में रखे जाने की जरूरत है कि न्यायालय द्वारा निर्णयों के क्रम में देखा और निर्णय लिया गया है कि "भोजन का अधिकार" भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिया गया एक मौलिक अधिकार है."
ध्यान भटकाने के तौर पर हैं 'मुफ्त की रेवड़ियां'
इस स्थिति में केंद्र सरकार द्वारा किसी तरह सुप्रीम कोर्ट पर इस बात को लेकर हस्तक्षेप करने का दवाब है कि राज्य सरकारें अपने यहां के गरीबों को राहत प्रदान करने के जो प्रयास कर रही हैं उस पर तुरंत रोक लगा दी जाए, इसके गंभीर हानिकारक परिणाम हैं. बीजेपी के अलावा अन्य राजनीतिक दलों को अपने लोगों पर खर्च करने का विकल्प कैसे चुनना चाहिए, इसको लेकर शीर्ष अदालत को 'निर्णय' करने के लिए किसी भी तरह का दवाब, भारतीय लोकतंत्र को मौलिक रूप से नुकसान पहुंचाता है. इसके साथ ही यह एक ही झटके में संघीय सिद्धांत और मतदाताओं के चुनाव करने के अधिकार, दोनों को ठेस पहुंचाता है.
यदि चुनावी बांड (और जिस तरीके की असमानता इसमें देखी गई) पार्टियों को चुनाव के लिए धन प्राप्त करने के तरीके पर बांधने का एक तरीका था, ऐसे में 'मुफ्त की रेवड़ियों' पर प्रस्तावित प्रतिबंधों ने दूसरे छोर को बंद करने का काम किया होता, जिससे एक व्यक्ति और एक योजना के पूर्ण यूनिटरी रूल की ओर अग्रसर होता. भारत की वास्तविकता कई भारतीयों की है और इसकी समस्याओं से निपटने के कई तरीके हैं, इसलिए कई नवाचार यहां संभव हो सके, अगर ऐसा नहीं होता तो भारत की गरीबी और असमानता के आंकड़े और भी बदतर होते. 2022 में 'मुफ्त की रेवड़ियों' की बात करने वालों ने तमिलनाडु में मध्याह्न भोजन या केरल में सार्वजनिक स्वास्थ्य पहल का जोरदार विरोध किया होता.
सच्चाई का सामना करना चाहिए
भले ही भारत सरकार अप्रत्यक्ष रूप से गरीबी के आंकड़े दे रही हो, लेकिन इस भ्रम को दूर करने की जरूरत है कि भारत एक मिडिल क्लास यानी मध्यम वर्गीय देश है. इस भ्रम को दूर करना महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे ध्यान में रखने के महंगे परिणाम होते हैं. अपने देश के गरीबों को न देख पाना ठीक वैसा ही है जैसे कि विदेशी नेताओं के कार मार्ग पर आने वाली झुग्गियों को अदृश्य बनाने के लिए दीवार या बैरिकेट्स लगा दिए गए हों. यदि हम अपनी स्थिति को लेकर सचेत नहीं होंगे तो इससे नीतियां कमजोर पड़ जाएंगी. इससे समृद्ध लोग "मुफ्त रेवड़ियों" में कटौती करने के बारे में बेतुकी और गुमराह करने वाली बातों को उछालते रहते हैं और दूसरी ओर भारत के अरबपतियों की लिस्ट को देखकर खुश होते रहते हैं.
विशेष रूप से, 2015 में प्रधान मंत्री ने मनरेगा को "विफलता के स्मारक" के तौर पर बताते हुए उसका जमकर मजाक उड़ाया था, लेकिन मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा वही योजना है जिसने लाखों लोगों को कुछ आधारभूत सहायता प्रदान की है. हम जहां खड़े हैं, उसे पहचानकर हमें गरीबी पर आधिकारिक डेटा नहीं होने के दस वर्षों को चिह्नित करना चाहिए. 80 करोड़ को खाद्य सहायता की जरूरत की वास्तविकता को स्वीकारना भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक अच्छी शुरुआत होगी.
(सीमा चिश्ती, दिल्ली में स्थित एक लेखिका और पत्रकार हैं. अपने दस साल से ज्यादा के करियर में वह बीबीसी और द इंडियन एक्सप्रेस जैसे संगठनों से जुड़ी रही हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seemay है. यह राय लेखक के निजी है. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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