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‘सांड’ से ‘सूत्र’ तक, अफवाहों के जरिए दंगे और अब युद्ध उन्माद  

मीडिया के लिए आधिकारिक चुप्पी और राजनीतिक बयानबाजी ही ‘खबर की सच्चाई’ का आधार हो गयी.

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19 नवंबर को जब समूचा देश रानी लक्ष्मी बाई और इंदिरा गांधी की जयंती पर वीरांगनाओं को स्मरण कर रहा था तो शाम होते-होते पीटीआई और सूत्रों के हवाले से आती खबरों ने हर किसी को चौंका दिया. ख़बर थी कि भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर में पिन प्वाइंट स्ट्राइक की है. घुसपैठ की कोशिश कर रहे 300 आतंकियों के ठिकानों पर हमला बोला है. चंद हेडलाइंस का जिक्र कर लेते हैं घटना जीवंत हो जाएगी:

  • सीजफायर उल्लंघन पाक को पड़ा बहुत भारी, जवाबी एक्शन में POK में कई आतंकी अड्डे तबाह : नवभारत टाइम्स
  • पीओके में सेना की एक और बड़ी स्ट्राइक, कई आतंकी कैंप को टारगेट कर ध्वस्त किया : एबीपी न्यूज
  • India carrying out ''pinpoint strikes'' on terror launchpads inside PoK: Govt sources : आऊटलुक
  • Indian Army carrying out 'pinpoint strikes' on terror launchpads in PoK: Report : इंडिया टुडे
  • भारत की PoK में पिनप्वॉइंट स्ट्राइक, आतंकी ठिकानों को बनाया निशाना : फाइनान्शियल एक्सप्रेस
  • पाकिस्तान पर भारत की एक और स्ट्राइक, पाक अधिकृत कश्मीर में ध्वस्त किए आतंकी ठिकाने : अमर उजाला
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ये हेडलाइंस वेबसाइट से उठाई गई हैं, हू-ब-हू. ऐसी असंख्य हेडलाइन आपको मिल जाएंगी. न्यूज चैनलों में इस घटना को ब्रेकिंग बताते हुए क्या कुछ परोसा गया, उसकी तो कल्पना ही की जा सकती है. डिबेट सज गये. वर्दीधारी पूर्व सैन्य अधिकारी जिनके चेहरे जाने-पहचाने हैं, न्यूज चैनलों पर जम गये. सत्ताधारी दल के नेता, पाकिस्तानी पत्रकार और इक्के-दुक्के ‘सवाल उठाने वाले विपक्ष’ के प्रतिनिधि भी आ धमके. सेना की दिवाली, अब पीओके लेकर रहेंगे, एक और सर्जिकल स्ट्राइक, 56 ईंच का सीना, पहले वाला भारत नहीं रहा, घर में घुसकर बदला लेंगे, दुबक गया इमरान, होश में आओ पाकिस्तान...जैसे जुमले एक-दूसरे से स्पर्धा कर रहे थे. जो जितना जोर से कह रहा था वह उतना बड़ा देशभक्त था.

ट्विटर की बात भी कर लें. #airstrike, #IndiaStrikesPak, #AbkiBaarPokPaar, #surgicalStrike, #भारतीय सेना, #BIG BREAING जैसे हैशटैग चलने लगे. कहने की जरूरत नहीं कि यहां सीमा तोड़कर अभिव्यक्ति की छूट रहती है. सो, बहादुरी के किस्से भी सरहद पार बम बरसा रहे थे.

ताज्जुब की बात यह है कि सेना की ओर से कोई आधिकारिक बयान सामने नहीं आया और केंद्र के मंत्रियों में से किसी ने कुछ नहीं कहा. मगर, बीजेपी के नेता और बीजेपी की मीडिया सेल अपनी प्रतिक्रियाओं से पीओके में भारत के पिन प्वाइंट स्ट्राइक की पुष्टि लगातार करते रहे. कांग्रेस समेत विपक्ष के कई नेताओं ने राजनीतिक रूप से खुद को ‘सुरक्षित’ करते हुए इस स्ट्राइक का समर्थन भी कर डाला.

मीडिया के लिए आधिकारिक चुप्पी और राजनीतिक बयानबाजी ही ‘खबर की सच्चाई’ का आधार हो गयी. मीडिया ने खबर के सत्यापन की बुनियादी आवश्यकता तक को भुला दिया. इस बीच कई पत्रकारों ने अपने स्तर पर सेना के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक पीओके में भारत की ओर से गुरुवार को किसी भी कार्रवाई के होने का खंडन सामने रखा.

इस पर सवाल उठाने वाले ही भारी पड़े. मीडिया घरानों में कोई भी इस खबर से पीछे हटकर ‘टीआरपी’ गंवाना नहीं चाहता था. वे डटे रहे. ‘न्यूज’ और ‘फेक न्यूज’ के बीच की लड़ाई में वे ‘तटस्थ’ हो गए.
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इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते 1971 में जब पाकिस्तान की सेना ने समर्पण किया था, तब समूचे देश ने जो आनंद और गर्व का अनुभव रेडियो सुनकर और अखबार पढ़कर किया था, उससे कहीं ज्यादा आनंद और गर्व का अनुभव लाइव खबर देखते-सुनते लोग कर रहे थे. मगर, न्यूज सुनकर उछलता हुआ दिल बैठ जाए तो दिल पर क्या गुजरती है यह उन लोगों से पूछिए जिनके दिलों पर ‘फेकन्यूज ने आरी चला दी. एएनआई ने रात 7 बजकर 51 मिनट पर भारतीय सेना के डीजी मिलिट्री ऑपरेशन्स लेफ्टिनेंट परमजीत सिंह के हवाले से पीओके में भारतीय सेना की कार्रवाई को ‘फेक’ करार दिया.

सांड के कारण भगदड़ और फिर पैदा हुई अफवाहों से सांप्रदायिक दंगा होते तो सुना गया था. मगर, अब तो न्यूज एजेंसियों के नाम से सूत्रों को जोड़कर किसी विजुअल को दिखाते हुए ‘अफवाह’ फैलाई जा रही है. क्या अब अफवाह से सांप्रदायिक दंगों की तरह युद्ध उन्माद फैलाया जा रहा है?

90 के दशक में जब मंदिर-मस्जिद विवाद चरम पर था और देश में सबसे ज्यादा सांप्रदायिक दंगे दर्ज किए गये थे, तब जमशेदपुर में एक वाकया ऐसा भी हुआ था जब सांड के बेकाबू होने से भगदड़ मच गयी और फिर अफवाह ऐसी फैली कि प्रशासन को कर्फ्यू लगाना पड़ा. पूजा स्थल के बाहर मांस के लोथड़े फेंककर भी शरारती तत्वों ने सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ा है. ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं.
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सांप्रदायिक दंगे हों या युद्ध, दोनों ही स्थितियों में एक पक्ष खुद को सही और दूसरे को गुनहगार ठहराता है. दोनों पक्ष खुद को श्रेष्ठ, अभिमानी और सही बताते हैं. दोनों ही पक्ष सांप्रदायिक दंगे और युद्ध को गलत मानते हुए भी कहते हैं कि सबक सिखाने के लिए उनकी ओर से की गयी कार्रवाई सही थी. हर स्थिति में भुगतते निर्दोष लोग हैं.

चाहे सांप्रदायिक दंगा हो या फिर युद्ध की स्थिति- यह माहौल ही होता है जो जान लेने को धर्म बना देता है और खून की प्यास को जरूरत बता देता है. ‘हमने नहीं मारा तो वो मार देंगे’ वाला माहौल बन जाता है. फिर भी अनुभवों ने हमें सांप्रदायिक दंगों से निबटना सिखाया है.

अफवाहों को रोकने के तरीके हमने निकाले हैं. हालांकि तकनीकी विकास के साथ-साथ अफवाहों से लड़ने का संघर्ष जारी है. मगर, इस युद्धोन्माद से कैसे निबटा जाए जहां अफवाह का नाम ‘फेक न्यूज़’ है. अफवाह फैलाने वाले लोग जिम्मेदार पत्रकार हैं, नेता हैं, राजनीतिक दल हैं! अफवाहों के कारण दंगों को रोकना तो हमने सीखा है, सवाल यह है कि ‘फेक न्यूज’ के कारण युद्ध का उन्माद कौन रोकेगा?

(प्रेम कुमार जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्‍व‍िंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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