पाकिस्तान में इमरान खान और जनरल बाजवा के बीच जारी गतिरोध का फैसला अभी तक नहीं हुआ है और देश का भाग्य अधर में लटका हुआ है. इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस के मौजूदा डायरेक्टर (DGISI) जनरल फैज हमीद के पेशावर कॉर्प में ट्रांसफर और कराची के मौजूदा कॉर्प कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम के DGISI पद पर नियुक्त किए जाने को लेकर पाकिस्तान सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा और प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच सार्वजनिक लड़ाई कई लोगों के समझ के परे है.
एक ऐसे देश में जहां ये सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि सेना प्रमुख ही सबसे ताकतवर हैं और हमेशा से प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकतवर रहे हैं, पाकिस्तान पर नजर रखने वालों के लिए ये समझना मुश्किल है कि इमरान खान ने किस वजह से न सिर्फ जनरल बाजवा को चुनौती दी बल्कि नए DGISI की नियुक्ति के नोटिफिकेशन पर हस्ताक्षर न कर सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया. कई लोगों के लिए इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात ये है कि स्थिति ऐसी कैसे बन गई जब इमरान खान, जनरल बाजवा के 10 साल के प्रोजेक्ट का हिस्सा थे और इमरान खान क्यों जनरल फैज हमीद को बनाए रखना चाहते हैं जबकि हमीद बाजवा के प्रोजेक्ट का ही एक अहम हिस्सा थे.
हमीद अकेले इमरान को सत्ता में लेकर नहीं आए थे, इस काम में सेना की पूरी मशीनरी उनके पीछे थी. अगर हमीद ने इस काम को अंजाम दिया तो बाजवा इस प्रोजेक्ट के मास्टरमाइंड थे.
इमरान और उनकी पार्टी हमेशा ये बताने की कोशिश करती रहती है कि उनका सत्ता में आना लाखों वोटर्स के वोट का नतीजा था और उनके बयान के मुताबिक जो वोटर करोड़ों के हिसाब से बढ़ रहे हैं. सामने कुछ भी होता नजर नहीं आ रहा है और दोनों ओर की चुप्पी और अनिश्चितता के कारण कई लोग चाकू की धार पर टिके हुए हैं.
हस्ताक्षरित नोटिफिकेशन के इंतजार में
खैर, पिछले तीन सालों में काफी कुछ बदल चुका है. सेना और इमरान खान का एक साथ होना, हालांकि पिछले दो सालों में कई बार दोनों में मतभेद हुए और फिर साथ आए, अब ऐसा लगता है कि पूरी तरह से इसकी संभावना खत्म हो गई है. चाहे इमरान खान अपनी जिद पर अड़े रहें या फिर हार मान लें, इतना नुकसान हो चुका है कि उसे बदला नहीं जा सकता.
पिछले कॉर्प कमांडर की बैठक में कमांडर्स ने इस बात पर जोर दिया कि जनरल हमीद के ट्रांसफर की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए और प्रधानमंत्री के आदेश में अब और देरी नहीं होनी चाहिए. जनरल बाजवा ने भी इस पर सहमति जताई. खबरों के मुताबिक सेना इससे पहले तीन बार इस ट्रांसफर से पीछे हट गई थी- दो बार पिछले साल और एक बार इस साल के वसंत के मौसम में. इमरान खान को ये बात बताई गई थी लेकिन उन्होंने पिछले कुछ दिनों में कड़ा विरोध किया था. दोनों पक्षों के बीच इधर-उधर के विषय एक तरफ आकर्षक तर्क देते हैं और दूसरी तरफ इमरान के पक्ष में तर्कहीन बातें कहते हैं.
इमरान के लिए हमीद अहम क्यों हैं
इमरान ने शुरुआत में जनरल हमीद को अगले साल मार्च तक, फिर कम से कम दिसंबर तक ट्रांसफर न करने को कहा था और फिर हमीद को पेशावर कॉर्प का अतिरिक्त प्रभार देने के लिए कहा! लेकिन उन्हें बताया गया कि जनरल हमीद इस पद पर बने रहने के लिए कुछ ज्यादा ही विवादित हो गए हैं. इसके बाद उन्होंने जनरल नदीम अंजुम की जगह आसिफ गफूर को DGISI बनाने की मांग की लेकिन उन्हें बताया गया कि सेना एक संवेदनशील पद पर एक विवादित अधिकारी से दूसरे विवादित अधिकारी से नहीं बदलना चाहती है. साफ है कि सेना अब खुद को अपने ही प्रोजेक्ट से अलग करना चाहती है जिससे उसे जनता की नजरों में काफी नुकसान हुआ है.
लेकिन इमरान खान अपने सत्ता में बने रहने को लेकर ज्यादा चिंतित हैं और ऐसा लगता है कि वो ऐसा सोचते हैं कि जनरल हमीद की ‘मदद’ के बिना वो लंबे समय तक पद पर बने नहीं रह सकेंगे. वो मदद जो जनरल हमीद चाहे चुनाव या जज या मीडिया या चुनाव आयोग या नेशनल एकाउंटिबिलिटी ब्यरो (NAB), या विपक्षी नेताओं या सीनेट चुनाव आदि को मैनेज करके कर रहे हैं.
पद पर बने रहने और सबसे महत्वपूर्ण अगला चुनाव जीतने के लिए इमरान खान को कुछ अलग-अलग संरचनात्मक बदलाव जारी रखने में सक्षम होने की जरूरत है.
उनकी एक योजना है चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) के इस्तेमाल के लिए विधेयक लाना जिस पर सभी राजनीतिक पार्टियां और सबसे अहम चुनाव आयोग और बार एसोसिएशन भरोसा नहीं करती हैं. चुनाव आयोग और बार एसोसिएशन का दावा है कि EVM के जरिए चुनाव में गड़बड़ी करना आसान होगा और बड़े पैमाने पर किया जा सकेगा. इमरान का एक और अहम क़दम NAB अध्यादेश को कानून में बदलना है जो NAB के वर्तमान अध्यक्ष के असंवैधानिक विस्तार को सक्षम बनाता है और NAB के दायरे से उनकी सरकार, सरकारी निकायों और कैबिनेट को बचाता है.
कई और अधूरे काम बाकी
कई और अधूरे काम जिसमें उन्हें उम्मीद है कि जनरल हमीद मदद करेंगे वो है उनको चुनौती देने वाले मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त के दफ्तर से उत्पीड़न को रोकना, जस्टिस शौकत सिद्दीकी की अपील राजनीति से प्रेरित हमीद के निष्कासन के खिलाफ एक आरोपपत्र है. संक्षेप में, जस्टिस सिद्दीकी की अपील ये बताती है कि कैसे नवाज शरीफ की सजा को जनरल हमीद ने 2018 के आम चुनाव से पहले इमरान खान के लिए रास्ता साफ करने के लिए तैयार किया था.
इसमें कहा गया है कि जनरल फैज ने 2017 की गर्मियों में दो बार जस्टिस सिद्दीकी से मुलाकात की और पूर्व पीएम नवाज शरीफ की अपेक्षित अपील (एक निर्णय के खिलाफ जो अभी तक दिया भी नहीं गया था और जिसका मतलब जनरल फैज पहले से ही अभी तक अनिर्णीत NAB कोर्ट केस का नतीजा जानते थे) को खारिज करने के लिए दबाव बना रहे थे) संक्षेप में, जनरल फैज़ ने जस्टिस से अपेक्षित अपील को खारिज करने को कहा “नहीं तो हमारी दो साल की कड़ी मेहनत बेकार चली जाएगी” ये एक बड़ा आरोप है.
एक और मुद्दा जो इमरान खान चाहते हैं कि जनरल हमीद सुलझाएं वो है किसी तरह सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस काजी फैज इसा को हटा दिया जाए, जो कि 2023 में, अगले आम चुनाव के साल में चीफ जस्टिस बनने की कतार में हैं और जिनसे 2018 में जस्टिस साकिब निसार की तरह चुनावों में धांधली का समर्थन करने की उम्मीद नहीं है. भ्रष्टाचार पर प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के जरिए उन्हें हटाने की पिछली कोशिश एक गंभीर हमला था लेकिन आखिरकार ये असफल रहा. न्यायपालिका की राय अलग थी लेकिन पूरे बार एसोसिएशन - बड़े अधिकारियों की राय उन्हें लेकर अलग थी. कुछ जज हमले के खिलाफ खड़े हो गए और किसी तरह इसा की कुर्सी बची. बहुत कुछ अधूरा काम है जिसके लिए इमरान खान को जनरल हमीद की जरूरत है. लेकिन अब तक अनुमति नहीं मिली है.
ईश निंदा की तलवार
ईश निंदा की तलवार इस बात की बहुत चर्चा है कि इमरान खान का जनरल फैज को जाने देने से इनकार करना कुछ मजबूत पक्षों के समर्थन के बिना नहीं संभव है. दूसरे लोग इसे सीधे नहीं कहेंगे लेकिन मैं ये बात सीधे कहता हूं. सूत्रों ने दावा किया है कि इसके पीछे जनरल फैज हमीद खुद हैं. उनके करीबी कई एंकर और यूट्यूब चैनल चलाने वाले इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उन्होंने आदेश का पालन करने और जनरल बाजवा के फैसले के मुताबिक ट्रांसफर किए जाने का इरादा जाहिर किया है.
हाल की कुछ घटनाएं इस बात का मजबूत संकेत देती हैं कि ताकतवर सेना प्रमुख को काबू में करने के लिए इमरान खान और जो भी उनके समर्थक हैं, उनके दिमाग में क्या हो सकता है.
जनरल बाजवा को कुछ समय पहले उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण अहमदी होने के आरोप का सामना करना पड़ा था और अहमदिया संप्रदाय पाकिस्तान में गैर मुस्लिम घोषित है.
इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण ये बात है कि ये ईशनिंदा माना जाता है. ये आरोप तब सामने आए जब पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ उन्हें सेना प्रमुख के तौर पर चुना था. उस दुख भरी कहानी का अंत तत्कालीन DGISI रिजवान अख्तर के अचानक रिटायर लेने के साथ अंत हुआ जिन्हें कथित तौर पर इस अभियान का मास्टरमाइंड बताया गया था और जनरल बाजवा ने अपनी राह में आने वाली बाधा को पार कर लिया.
पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून की लड़ाई के मौजूदा संरक्षक के तौर पर तहरीक लब्बैक पाकिस्तान (TLP) का नाम आता है. और इमरान-बाजवा गतिरोध के चरम पर TLP नेता, मरहूम खादिम हुसैन रिजवी के बेटे, उत्तराधिकारी और मौजूदा TLP प्रमुख हाफिज साद रिजवी लाहौर डिप्टी कमिश्नर के आदेश पर रिजवी के खिलाफ "सरकार की आपत्ति वापस लेने" के बाद आसानी से रिहा हो गए. इसके बाद संगठन की ओर से लाहौर में एक बड़ा शक्ति प्रदर्शन किया गया.
इसको जुम्मे के धार्मिक उपदेश के दो दिन के अंदर खादिम हुसैन की रहस्मयी मौत के साथ देखना महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने अपने हैंडलर का नाम बताने की धमकी दी थी. साथ ही साद रिजवी और उनके समर्थकों पर कठोर कार्रवाई, जब उन्होंने पाकिस्तान में फ्रांस के राजदूत को पैगंबर मोहम्मद के चित्रण पर निष्कासित नहीं किए जाने पर विरोध में इमरान खान सरकार को धमकी दी थी. TLP ही वह संगठन है जिसे आईएसआई ने जनरल फैज हमीद के नेतृत्व में मौजूदा सरकारों के पक्ष में या खिलाफ इस्तेमाल किया है.
ये भी याद करना महत्वपूर्ण होगा कि 2017 में TLP और नवाज शरीफ की सरकार के बीच हुए बदनाम समझौते (फैजाबाद को पूरी तरह पंगु बना देने वाले TLP के धरना प्रदर्शन को खत्म कराने के लिए) जिसने पाकिस्तान मुस्लिम लीग (N) की सरकार को काफी नुकसान पहुंचाया था, उसके गवाह और उस पर हस्ताक्षर करने वाले जनरल फैज अहमद के अलावा कोई और नहीं थे.
TLP की बड़ी-बड़ी बातों को इमरान खान के रविवार को अश्र रहमातुल अलामीन अथॉरिटी बनाने की घोषणा को उनके धार्मिक कार्ड खेलने की नई कोशिश और ईशनिंदा कार्ड को तैयार रखने के तौर पर देखा जा रहा है.
ये कदम नमूस-इ-रिसालत और खत्म-ए-नबूअत का राजनीतिक संरक्षक बनने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. मौजूदा गतिरोध में, ये बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि अहमदिया संप्रदाय को ईश निंदापूर्ण माना जाता है क्योंकि इस पर पैगंबर मोहम्मद की अंतिम अवस्था को स्वीकार नहीं करने के आरोप लगे थे. एक अड़ियल बाजवा को सिर्फ ईशनिंदा के हथियार से डराने से संतुष्ट नहीं होने के बाद इमरान खान ने रविवार को उन्हें हटाने और उनकी जगह किसी और को लाने की एक तरह से सीधे-सीधे सरेआम धमकी देकर सबसे बड़ा अपमान किया. बिना किसी संदर्भ के और कहीं से भी अचानक से ही उन्होंने हजरत उमर के लड़ाई के बीच में ही अपने जनरल खालिद बिन वलीद को हटाने का जिक्र किया.
सेना ने इमरान खान की गुस्ताखी पर अब तक कोई जवाबी हमला नहीं किया इसका कारण वो हथियार है जिसका इस्तेमाल इमरान कर रहे हैं. लेकिन हमला एक तरफा नहीं है. पिछले दिनों जनरल फैज हमीद पर मरयम नवाज का तीखा हमला विपरीत दिशा से था और इसका टेलीविजन चैनलों पर बिना किसी “बीप” के लाइव दिखाया जाना, कम महत्वपूर्ण नहीं था. इससे जनता दंग रह गई. एक और घातक और चौंकाने वाला हमला उसी दिशा से देखा गया जब पत्रकार और एंकर हामिद मीर इस साल मई के अंत में जनरल फैज हमीद पर अश्लील व्यंग्य के जरिए निंदा करते दिखाई दिए.
इस बार दोनों तैयार
तो, लड़ाई नई नहीं है और कुछ समय से अंदरखाने चल रही है- लेकिन हर बार विश्वसनीय लगने वाली अस्वीकार्यता और छुपाने की कोशिश की गई. हालांकि मौजूदा गतिरोध के साथ ऐसा लगता है कि दोनों खुलकर सामने आ गए हैं. अंत में एक पक्ष को झुकना होगा क्योंकि ये हथियार से ज्यादा हिम्मत का खेल है. लेकिन अगर आखिरकार इमरान खान की ओर से नोटिफिकेशन नहीं आता है तो जनरल बाजवा का इख्तियार पूरी तरह से कम हो जाएगा और तब ये कहना उचित होगा कि पहली बार पाकिस्तान की सेना को उसी ने हरा दिया जिसे सेना ने बनाया. कोई ये उम्मीद नहीं कर रहा कि ऐसी स्थिति आएगी लेकिन एक बात तय है कि जनरल बाजवा लंबे समय से उस दिन को कोस रहे हैं जब उन्होंने इमरान खान को हमीद की मदद से अपने 10 साल के प्रोजेक्ट का चेहरा बनाने का फैसला किया था.
अब क्या? क्या जनरल बाजवा की बिसात में ऐसी कोई चाल है जिससे वो इमरान खान को एक निर्णायक झटका दे सकें? साफ तौर पर नहीं, अगर होता तो वो ये कदम उठा चुके होते. ऐसा लगता है कि ट्रांसफर में देरी को अनुमति देकर वो सही गोटियां चलने के लिए कुछ समय निकाल रहे हैं. इस समय की स्थिति ऐसी है: जहां जनरल बाजवा के पीछे सेना का समर्थन है, वहीं इमरान खान ने अल्लाह को अपने साथ कर लिया है. इसलिए जनरल बाजवा को एक असली और सक्षम ढाल की जरूरत है, साथ ही जिस परेशानी में वो पड़ गए हैं उससे बाहर निकलने के लिए मौजूदा सरकार के एक विकल्प की भी जरूरत है.
उनकी ढाल या पलटवार का हथियार भी धर्म का ही होना चाहिए, लेकिन ये देवबंदी प्रकार का होना चाहिए चूंकि बरेलवी इमरान खान के साथ हैं.
ये जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (JuI) के मौलान फज्ल उर रहमान के साथ मतभेद खत्म करने की ओर इशारा करता है. और उनका वास्तविक राजनीतिक विकल्प मियां नवाज शरीफ और मरयम नवाज के नेतृत्व वाली लोकप्रिय PMLN है. वो उनकी शर्तों को समय पर पूरा कर पाएंगे या करना चाहेंगे इसका कोई भी अनुमान लगा सकता है.
इस खतरनाक स्थिति में एकमात्र हंसने-हंसाने वाली बात ये है कि सेना के प्रतिष्ठान के भूतपूर्व एक पेज में जवाब देने वाले और स्वघोषित प्रवक्ता इस बात से अनजान हैं कि कौन जीतेगा और इसलिए छुपते फिर रहे हैं. इतिहास में पहली बार आंतरिक मंत्री शेख रशीद ने हमेशा की तरह शेखी बघारने की बजाए सवालों को सूचना मंत्री फवाद चौधरी की ओर बढ़ा दिया जो असामान्य रूप से शांत हैं. हवा का रुख बताने वाले इन नेताओं की घबराहट व्याप्त अनिश्चितता की गंभीरता बताती है.
(गुल बुखारी पाकिस्तानी पत्रकार हैं. उन्हें @GulBukhari पर ट्वीट किया जा सकता है. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)