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आजादी का अमृत महोत्सव: पाक-बांग्लादेश पर अटल-आडवाणी की राह पर चल सकते थे मोदी

RSS का प्रोजेक्ट 'अखंड भारत' न तो व्यावहारिक है, न मुमकिन. लेकिन क्या हम इन विभाजनों के कड़वे असर को नहीं बदल सकते?

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आजादी का अमृत महोत्सव: पाक-बांग्लादेश पर अटल-आडवाणी की राह पर चल सकते थे मोदी
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आजादी के अमृत महोत्सव (Azadi Ka Amrit Mahotsav) पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशियाई देशों तक हाथ बढ़ाने के दुर्लभ मौके को मिस कर दिया, जिसके केंद्र में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच दोस्ताना संबंध हों. उन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश और SAARC क्षेत्र के दूसरे देशों के नेताओं को इस वर्षगांठ समारोह में बुलाना चाहिए था. 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने ऐसा ही किया था. हमारे पड़ोसी देशों के नेताओं ने उनके निमंत्रण को स्वीकार भी किया था और नई दिल्ली आए थे. सबने मिलकर दक्षिण एशिया में एकजुटता की उम्मीद का संदेश दिया.

मोदी को आजादी की 75वीं सालगिरह पर भी ऐसा ही करना चाहिए था, जो कि किसी भी लिहाज से उनके शपथ ग्रहण समारोह से ज्यादा ऐतिहासिक मौका था.
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वैसे भी इस साल 14 और 15 अगस्त भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए आजादी का अमृत महोत्सव है. ये सच है कि जिस दिन पाकिस्तान का जन्म हुआ उस दिन विभाजन के कारण भारत के दो टुकड़े हो गए. पाकिस्तान के 1971 में दो टुकड़े हो गए जब पूर्वी पाकिस्तान ने आजादी हासिल की और बांग्लादेश बन गया. ये दो विभाजन हमारे उपमहाद्वीप के लिए बड़ी त्रासदी वाले हैं. ये भी सच है कि जो हो गया, उसे बदला नहीं जा सकता.

आरएसएस का प्रोजेक्ट 'अखंड भारत' न तो व्यावहारिक है, न मुमकिन. लेकिन क्या हम इन विभाजनों के कड़वे असर को नहीं बदल सकते, क्या हमें बदलना नहीं चाहिए? क्या इसके लिए दक्षिण एशिया में एकता के बड़े विजन के तहत भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच दोस्ती और सहयोग बढ़ाने की लगातार कोशिश नहीं करनी चाहिए? हम कर सकते हैं, हमें करना ही चाहिए.

वाजपेयी और आडवाणी ने तीनों देशों को करीब लाने की कोशिश की

इस संदर्भ में मुझे अटल बिहारी वाजपेयी का एक प्रेरक प्रस्ताव याद आता है. तब वो पीएम थे. जगह थी इस्लामाबाद में SAARC (South Asian Association of Regional Cooperation) की 12वीं समिट. तारीख थी 4 जनवरी, 2004. मैं वाजपेयी की इस ऐतिहासिक यात्रा में उनके साथ था.

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समिट में अपने भाषण में वाजपेयी जी ने कहा था :

''कोई भी संयुक्त कोशिश आपसी भरोसे और विश्वास की मांग करती है. पिछले कई दशकों से दक्षिण एशिया के देश, जिनका एक जटिल और मुश्किल औपनिवेशिक इतिहास रहा है, राजनीतिक मतभेदों को अलग करके आर्थिक साझेदारी नहीं बना पाए हैं. एक दूसरे पर शक और तुच्छ प्रतियोगिता ने हमें हमेशा परेशान रखा है. इसका नतीजा है कि हमारे इलाके में शांति नहीं कायम नहीं हो पाई है. इतिहास हमें गाइड कर सकता है, पढ़ा सकता है और यहां तक कि चेतावनी भी दे सकता है. इसे बेड़ियां नहीं लगानी चाहिए. अब हमें मिलजुलकर आगे की ओर देखना है''

वाजपेयी जी ने SAARC नेताओं का ध्यान अविभाजित इतिहास के अहम संकेत की ओर दिलाया.

“कुछ ही समय पहले मैं अंडमान द्वीपों पर गया था, जहां औपनिवेशिक काल में बहुत सारे राजनीतिक कैदियों को जेल में रखा गया था. तब मुझे सेलुलर जेल की दीवारों पर कई नाम खुदे हुए दिखे. इसमें तीनों दक्षिण एशियाई देशों के लोग थे. हमारे पूर्वज धर्म, भाषा और इलाके से परे आजादी की लड़ाई लड़े. वो 1857 से ही हमारे सामान्य शोषक के खिलाफ लड़े. ये हमें याद दिलाता है कि हममें से कई का एक ही इतिहास है और ये इतिहास हमारे हालिया विभाजन से पुराना है.”
अटल बिहारी वाजपेयी
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अटल बिहारी वाजपेयी ने तब एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया था कि "दो साल में, हम उस उग्र विद्रोह की 150वीं वर्षगांठ में प्रवेश करेंगे. एक साझी बगावत के हमारे संयुक्त संघर्ष की याद में शायद भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक साथ मिलकर उस वर्षगांठ का जश्न मना सकते हैं. हमें दूसरे देशों के अनुभव से उचित सबक सीखना होगा. सदियों के आपसी संघर्षों और युद्धों के बाद, यूरोप अब दुनिया के सबसे शक्तिशाली आर्थिक समूह के रूप में उभरने के लिए एकजुट हो रहा है."

"पड़ोस में आसियान देशों ने अपनी राजनीतिक समस्याओं अपने आर्थिक सहयोग के रास्ते में बाधा नहीं बनने दिया. अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और कैरिबियाई देशों में लगातार गहरे होते क्षेत्रीय सहयोग के उदाहरण देखे जा सकते हैं, जबकि यहां देशों का एक-दूसरे के प्रति शत्रुता का एक लंबा इतिहास रहा है. ये सभी उदाहरण हमें याद दिलाते हैं कि दक्षिण एशिया में राजनीतिक पूर्वाग्रहों पर तर्कसंगत अर्थशास्त्र को जीत प्राप्त करनी चाहिए."
अटल बिहारी वाजपेयी

2005 में लाल कृष्ण आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा

बीजेपी के तात्कालिक दूसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 2005 में पाकिस्तान का दौरा करते समय वाजपेयी के ही सुझाव को दोहराया था. मुझे भी इस यात्रा में उनके साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. लाल कृष्ण आडवाणी ने दौरे पर सुझाव दिया कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश 1857 में ब्रिटिश-विरोधी स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ पर तीन-राष्ट्रों का स्मरणोत्सव आयोजित करें.

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इस सवाल पर कि क्या इसका मतलब 'अखंड भारत' है, उन्होंने कहा-

"विभाजन को पलटा नहीं जा सकता है, क्योंकि भारत और पाकिस्तान का दो अलग और संप्रभु राष्ट्र बनना इतिहास की एक अपरिवर्तनीय वास्तविकता है. हालांकि, विभाजन के कुछ दोषों को पूर्ववत किया जा सकता है, और उन्हें पूर्ववत किया जाना चाहिए.

वाजपेयी और आडवाणी दोनों ही भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच शांति, दोस्ती और सहयोग के एक नए युग की शुरुआत करने और इसे दक्षिण एशिया में व्यापक सहयोग के लिए उदहारण बनाने के विचार से प्रेरित थे.

लेकिन, मनमोहन सिंह, जो 2007 में भारत के प्रधान मंत्री थे, ने 1857 की 150वीं वर्षगांठ के मौके पर संयुक्त समारोह के लिए कोई पहल नहीं की. इतना ही दुखद रहा है कि पीएम मोदी ने भी अपनी ही पार्टी के दो संस्थापक नेताओं द्वारा दिए गए सुझाव की भावना की अवहेलना की है. उन्होंने भारत और पाकिस्तान की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ को साथ मनाने का अवसर गंवा दिया.

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अगस्त 1947 में जब भारत और पाकिस्तान के झंडे एक साथ फहराए गए

भारत और पाकिस्तान द्वारा स्वतंत्रता के जश्न को साथ मनाने का विचार उतना अजीब और अवास्तविक नहीं है जितना ही हमें लगता है. दोनों देशों के लोग और नेता अब भूल गए हैं कि दोनों देशों के जन्म के समय कराची और कलकत्ता में मोहम्मद अली जिन्ना और महात्मा गांधी की उपस्थिति में, भारतीय और पाकिस्तानी झंडे एक साथ फहराए गए थे.

सबसे पहले मुझे आप फ्लैशबैक में 15 अगस्त 1947 को कराची (नए बने पाकिस्तान की पहली राजधानी) में ले चलने दीजिये जहां एक अविश्वसनीय घटना हुई थी. मैं यह भारतीय इतिहासकार अजीत जावेद, Secular and Nationalist Jinnah किताब के लेखक के हवाले से कह रहा हूं.

पाकिस्तान की स्थापना दिवस के ठीक एक दिन बाद जिन्ना ने भारत की आजादी के पहले दिन एक स्वागत समारोह की मेजबानी की. मेहमानों में हिंदू, सिख, ईसाई और पारसी समुदायों के कई प्रमुख लीडर शामिल हुए. उस दिन जिन्ना के आदेश पर एक साथ भारत और पाकिस्तान के झंडे फहराए गए थे. जिन्ना से यह अपील बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और मुस्लिम लीग के साथी नेता हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने की थी. हुसैन शहीद सुहरावर्दी थोड़े समय के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी बने थे.

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सुहरावर्दी ने अगस्त 1947 में कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगों की लपटों को बुझाने के लिए महात्मा गांधी से हाथ मिलाया था. सुहारावर्दी ने सुझाव दिया कि प्रत्येक भारतीय और पाकिस्तानी देशभक्त को एक साथ भारत और पाकिस्तान के झंडे फहराने चाहिए.

जिन्ना के हिंदू मित्र और कराची के डेली गजट के संपादक शर्मा ने अपने अखबार के ऑफिस में दो झंडे फहराए. साथ ही जिन्ना के सुझाव पर सिंधी हिंदुओं के जाने-माने नेता हेमंडास वाधवानी के साथ पाकिस्तान अल्पसंख्यक संघ का गठन किया गया.

पाकिस्तान के लिए जिन्ना ने जिस झंडे को मंजूरी दी थी, वह कम महत्वपूर्ण नहीं था. झंडे का दो-तिहाई हिस्सा हरा था. शेष एक-तिहाई एक सफेद पट्टी. जो शांति और अल्पसंख्यकों की स्वीकृति का प्रतीक थी. जिन्ना ने लाहौर के एक हिंदू कवि जगन नाथ आजाद को पाकिस्तान के राष्ट्रीय गीत लिखने का काम सौंपा. जगन नाथ आजाद ने गीत तराना-ए-पाकिस्तान लिखा, जिसे रेडियो के जरिए 14 अगस्त 1947 की रात को पाकिस्तान की स्थापना की घोषणा के तुरंत बाद ब्रॉडकास्ट किया गया था. यह गीत डेढ़ साल तक पाकिस्तान का राष्ट्रगान रहा, लेकिन जिन्ना की मृत्यु के बाद राष्ट्रगान के रूप में एक नया गीत चुना गया, जिसे कवि हफीज जालंधरी ने लिखा था.

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कलकत्ता में हिंदू-मुस्लिम सद्भाव

हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अमन और मैत्री को बढ़ावा देने में महात्मा गांधी का उदाहरण बहुत महत्वपूर्ण है. अगस्त 1947 भारतीयों और पाकिस्तानियों के लिए उत्सव का महीना होने जा रहा था. यह ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाने वाला महीना था. लेकिन यह शोक का समय भी था, क्योंकि तब विभाजन की वजह से सांप्रदायिक हिंसा भी हुई. लाखों हिंदू, सिख और मुस्लिम मारे गए. बड़े पैमाने पर सीमा पार से पलायन हुआ. लोगों में दोनों तरफ ये पीड़ा साफ नजर आ रही थी.

जब भारत को आजादी मिली तो दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू और स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य नेताओं ने दिल्ली में जश्न मनाया, लेकिन उस वक्त महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं थे. वो हिंदू-मुस्लिम दंगों की आग बुझाने के लिए कलकत्ता गए थे.

उनके शांति मिशन ने जो हासिल किया वो किसी चमत्कार से कम नहीं था. वही लोग जो उनके आने से पहले एक-दूसरे का गला दबा रहे थे, एक-दूसरे को गले लगाने लगे. इसका सबसे अच्छा वर्णन ‘महात्मा गांधी-द लास्ट फेज’ में किया गया है, जो उनके विश्वसनीय सचिव प्यारेलाल द्वारा लिखी गई है.

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“ये ईद का मुस्लिम त्योहार था. गांधीजी के आवास (हैदरी हवेली, एक मुस्लिम घर जो अब एक स्मारक में परिवर्तित हो गया है) में मुसलमानों की एक अंतहीन भीड़ सुबह से ही आना शुरू हो गई. कलकत्ता के मुस्लिम मित्रों ने बड़ी संख्या में मिठाई और फलों के उपहार भेजे. जब गांधी जी अपना साप्ताहिक मौन धारण कर रहे थे, उन्होंने उन्हें ईद की शुभकामना देने के लिए बधाई का एक छोटा संदेश लिखा और उन्हें फल बांटे. कलकत्ता से 14 मील उत्तर में बैरकपुर में पिछले दिन एक जुलूस निकालने को लेकर कुछ परेशानी हुई थी. गांधीजी ने दोपहर में बैरकपुर का दौरा किया, लेकिन उनके मौके पर पहुंचने से पहले ही सब कुछ खत्म हो गया और भाईचारे में बदल गया. वहां पहुंचने पर उनका स्वागत जोरदार नारों और जयकारों से किया गया."

शेष भारत के लिए एक प्रेरक कहानी

"एक मुसलमान ने कहा: 'कृपया हमें हमारी सभी चूकों के लिए माफ करें. हम जानते हैं कि हमने अतीत में गंभीर गलती की है. लेकिन अब हम हिंदुओं के साथ भाइयों की तरह रहेंगे.' इसके साथ ही भीड़ में शामिल हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे से गले मिल गए. एक हिंदू प्रतिनिधि ने कहा: 'हम अपने मुस्लिम भाइयों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहते. हम मस्जिदों के सामने संगीत बंद कर देंगे.' कागज की एक पर्ची पर गांधीजी ने लिखा: 'मुझे उम्मीद है कि नमाज के समय मस्जिदों के आसपास संगीत नहीं रखने का निर्णय सभी को स्वीकार्य है और केवल मौके पर मौजूद लोगं के लिए नहीं बल्कि सभी हिंदुओं के लिए बाध्यकारी माना जाएगा. लीग और कांग्रेस सभी मतभेदों को शांतिपूर्ण तरीकों से और बिना बल प्रयोग के हल करने के लिए सहमत हुए हैं."

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“मुस्लिम दोस्तों ने गांधी जी को बताया कि उनकी महिलाएं उन्हें देखने के लिए बहुत उत्सुक थीं. गांधी जी ने उन्हें निराश नहीं किया और उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया. जैसे ही उनकी कार बाजार से गुजरी, मुस्लिम महिलाओं ने दोनों तरफ की छतों और बालकनियों में भीड़ लगा दी. शाम की प्रार्थना सभा मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब के मैदान में हुई और इसमें कम से कम पांच लाख लोगों ने भाग लिया. कलकत्ता के हिंदुओं और मुसलमानों को कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना देश के अन्य हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ एक प्रेरक तस्वीर थी. गांधी जी ने खड़े होकर हाथ जोड़कर उन्हें ईद की शुभकामनाएं दीं, जिस पर उन्होंने गांधी जी की जय-जयकार की.”

जब 2 जगहों पर फहरा दिए गए 'गलत' झंडे

प्यारेलाल लिखते हैं कि 4 लाख लोग 20 अगस्त को गांधीजी की संध्या प्रार्थना में शामिल हुए थे. पर समस्या आई राष्ट्रीय ध्वज फहराने को लेकर. बंगाल प्रांत के शुरुआती विभाजन के तहत खुलना और चिट्टागोंग के हिंदू बाहुल्य जिलों को पश्चिम बंगाल में और मुस्लिम बाहुल मुर्शिदाबाद जिले को पूर्वी बंगाल में शामिल किया गया था. हालांकि, बाद में सीमा आयोग ने इस फैसले को पलट दिया था.

इस विभाजन (Notional Division) के तहत भारत और पाकिस्तान के इन इलाकों में 14 और 15 अगस्त को आजादी मनाई गई. लेकिन, 2 दिन बाद ये विभाजन वापस होने के बाद इन इलाकों में जो झंडे फहराए गए वो असल में गलत थे. इसके बाद तनाव की स्थिति पैदा हो गई.
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अब जब ये मामला गांधी जी के पास पहुंचा, तो उन्होंने कहा कि गलत झंडों को सही झंडों से बदलने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए. निजी तौर पर गांधी जी की राय थी कि दो दोस्ती के संबंध रखने वाले देश आखिर एक दूसरे का झंडा क्यों नहीं फहरा सकते? ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका और इंग्लैंड कर सकते हैं. उन्होंने आगे कहा ''अगर पाकिस्तान में ऐसा नहीं किया जा सकता तो भारत में तो होना चाहिए. हम क्यों न खुद सही तरीका अपनाएं भले ही सामने वाला पक्ष न अपना रहा हो''

21 अगस्त तो पार्क सर्कस में तकरीबन 7 लाख लोग प्रार्थना सभा में शामिल हुए. कांग्रेस और लीग के कार्यकर्ताओं ने एक के बाद एक भारत और पाकिस्तान के झंडे लगाए.

दक्षिण एशियाई सहयोग को फिर से जागरुक करना

75 साल बाद जब भारत और पाकिस्तान गांधी और जिन्ना के रास्ते से काफी दूरी जा चुके हैं. आजादी का अमृत महोत्सव साथ मनाना तो दूर, इन 2 देशों के नेता पड़ौसी होने के नाते एक सामान्य बातचीत तक का रिश्ता कायम नहीं रख पा रहे हैं. बात रही दक्षिण एशियाई देशों के आपसी संबंध की, तो SARC ही एकमात्र मंच है.

आखिर कहां हैं राजनेता? वो दूरदर्शी लोग कहां हैं? 1.8 अरब लोगों के इस उपमहाद्वीप में अतीत की गलतियों को सुधारने और सभी के लिए एक उज्ज्वल भविष्य बनाने का संकल्प कहां है? अब वक्त है सोचने का और फिर इस दिशा में काम करने का.

(सुधींद्र कुलकर्णी ने पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के रूप में कार्य किया है और भारत-पाकिस्तान-चीन सहयोग द्वारा संचालित न्यू साउथ एशिया फोरम के संस्थापक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @SudheenKulkarni है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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