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अमेरिका में बाइडेन और हैरिस की सरकार भारत के लिए अच्छी या बुरी?

ट्रंप भारत के साथ लेन-देन वाला रिश्ता रखते थे, बाइडेन/हैरिस को हमारी सरकार की इज्जत करनी होगी

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डेमोक्रेटिक नेशनल कंवेंशन (DNC) ने जो बाइडेन और कमला हैरिस को नवंबर में होने वाले चुनावों के लिए शानदार तरीके से नॉमिनेट किया. इसे शायद ही कोविड प्रभावित वर्चुअल इवेंट कहा जा सकता है.

डेमोक्रेटिक कंवेंशन में पहली बार रिपब्लिक पार्टी के बड़े नेता-कॉलिन पावेल, जॉन केसैक से लेकर सिंडी मैकैन तक की मौजूदगी रही. मुझे ये सोचकर भी सिहरन हो रही है कि अगर इन लोगों पर भारत का पुराना पड़ चुका दल-बदल कानून लागू होता तो क्या कानूनी दाव पेंच शुरू हो गए होते.

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चाहे जो होता, इस मध्यमार्गी सामंजस्य/मेल-जोल की राजनीति के इस असाधारण केंद्र ने बाइडेन/हैरिस को मौजूदा ट्रंप/पेंस की जोड़ी पर जीत हासिल करने का एक वास्तविक मौका दे दिया है.  

कभी लोगों को इस बात की संभावना भी नहीं नज़र आती थी लेकिन अब ऐसा हो सकता है, इसलिए अब सवाल ये उठता है कि क्या भारत बाइडेन और हैरिस की ‘सेंटरिस्ट’ सरकार के तहत बेहतर करेगा या खराब? भारत-अमेरिका के संबंध यहां से आगे कितने सफल होंगे?

ट्रंप का अमेरिका अशांत और भटका हुआ

भारत और साथ ही पूरी दुनिया के लिए 2016 में डोनल्ड ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रपति चुना जाना अशांति से भरा और भटका हुआ साबित हुआ। संक्षेप में देखा जाए तो उन्होंने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप को रद्द कर दिया, पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को अलग किया, नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनिजेशन (NATO) में अमेरिका के सहयोगियों पर बरसे. उत्तर कोरिया और रूस जैसे विरोधियों से संबंध सुधारने की कोशिश की, लेकिन यूनाइटेड नेशंस से लेकर वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन जैसी वैश्विक संस्थाओं का मजाक उड़ाया, चीन के साथ ट्रेड वार शुरू किया, और ईरान के साथ न्यूक्लियर डील को खत्म किया, ओबामा सरकार ने जो प्रतिबंध हटा लिए थे उन्हें फिर से लगा दिया.

उनकी ‘अमेरिका पहले’ की नीति ने एशिया के साथ हर जगह पर अमेरिका की गतिविधियों को कम कर दिया, इस पुराने पश्चिमी विश्व व्यवस्था के खत्म होने से जो खाली जगह बनी वो अपना दबदबा बढ़ाने के लिए चीन के मन माफिक थी.  

कोविड 19 महामारी के नियंत्रण में पूरी तरह असफल होने के कारण ट्रंप लोगों के गुस्से, उपहास का पात्र बन गए और शायद नवंबर के चुनावों में उनकी हार तय दिखने लगी तो वो अपने ध्रुवीकरण के पुराने दाव पर और भी मजबूती के साथ लौट आए.

पूर्व राष्ट्रपति बुश और ओबामा के विपरीत ट्रंप का रवैया भारत को लेकर निश्चित तौर पर लेन-देन वाला था.

एक विभाजनकारी ट्रेड वार की शुरुआत कर अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत पर अनुचित तरीकों के इस्तेमाल का आरोप लगाया और हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर भारत के ज्यादा टैक्स के मुद्दे को लेकर द्विपक्षीय संबंध तोड़ने की धमकी दी. और 2018 में अमेरिका ने ईरान से तेल खरीदने वाले देशों पर प्रतिबंध लगा दिया जो-अस्थायी छूट के बाद भी- भारत के लिए ज्यादा परेशानी भरा था, क्योंकि ईरान हमारा सबसे बड़ा सप्लायर है.

कोविड 19 महामारी और घातक भारत-चीन विवाद जब चरम पर था, तब उन्होंने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की आपूर्ति के लिए दबाव बनाया, H-1B वीजा धारकों पर अड़ंगा लगाया, और ऑनलाइन क्लासेस जारी रहने तक अमेरिका में विदेशी छात्रों के आने पर रोक लगाई, इन सभी कदमों का सबसे ज्यादा असर भारत के लोगों पर हुआ.

स्नैपशॉट
  • पूर्व राष्ट्रपति बुश और ओबामा के विपरीत ट्रंप का रवैया भारत को लेकर निश्चित तौर पर लेन-देन वाला था
  • भारत और अमेरिका के बीच संबंधों के लंबे इतिहास में ट्रंप का शासन सिर्फ एक छोटा सा हिचकोला है
  • स्वाभाविक रूप से सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र में कई समानताएं हैं शायद जितना वो स्वीकार करते हैं उससे ज्यादा
  • सबसे अहम बात ये है कि विश्व को लेकर भारत और अमेरिका का नजरिया एक समान है, लोकतंत्र को बढ़ावा देने पर केंद्रित, इस्लामी आतंकवाद को रोकने, चीन पर नियंत्रण और सामान, लोगों और विचारों की स्वतंत्र आवाजाही को सुनिश्चित करना
  • ब्रिटेन और जापान की तरह हम अमेरिका के साथ लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता और इसकी पूरी स्वतंत्रता, नागरिक और आर्थिक दोनों, साझा करते हैं
  • ये लेन-देन वाले ट्रंप के लिए मायने नहीं रखता होगा लेकिन बाइडेन/हैरिस प्रशासन को स्पष्ट तौर पर हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सम्मान करना होगा

लेकिन अमेरिका और भारत को एक-दूसरे की जरूरत

भारत- अमेरिका के बीच लंबे समय से चले आ रहे ऐतिहासिक संबंधों में ट्रंप का शासनकाल सिर्फ एक छोटा सा हिचकोला है. आखिर 21वीं सदी की घटनाएं भारत और अमेरिका के हितों को स्वभाविक तौर पर एक-दूसरे के करीब लाई हैं. हमारी साझा रणनीतिक चुनौतियां हैं -इस्लामी चरमपंथ, चीन का दबदबा, मध्य पूर्व में अस्थिरता. सुरक्षा और व्यापार में बढ़ते संबंध से दोनों को फायदा है. हम दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है.

स्वभाविक रूप से सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र में कई समानताएं हैं शायद जितना वो स्वीकार करते हैं उससे ज्यादा.  

200 साल के अंतर पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजाद हुए, भारत और अमेरिका दोनों देशों में विविधता से भरी, बड़ी आबादी है जिनका मुक्त बाजार में विश्वास है, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों पर बुनियादी भरोसा है और जो सरकार से पारदर्शिता की उम्मीद रखते हैं. और भारत और अमेरिका दोनों देशों के पास चीन, जापान और यूरोपीय यूनियन की तेजी से बूढ़ी होती आबादी के विपरीत आने वाले दशकों में काम करने के लिए युवा, ऊर्जावान आबादी है

सबसे अहम बात ये है कि विश्व को लेकर भारत और अमेरिका का नजरिया एक समान है, लोकतंत्र को बढ़ावा देने पर केंद्रित, इस्लामी आतंकवाद को रोकने, चीन पर नियंत्रण और सामान, लोगों और विचारों की स्वतंत्र आवाजाही को सुनिश्चित करना  

दोनों देशों की अर्थव्यवस्था की ताकत संरचनात्मक है जिनमें उपभोक्ताओं के ज्यादा खर्च करने की क्षमता, मजबूत निर्यात, घटता वित्तीय घाटा, एक उद्यमशील निजी क्षेत्र और तकनीकी कौशल शामिल है जिससे उन्हें न केवल 2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी बल्कि हाल की बड़ी घटनाओं जैसे ब्रेग्जिट, चीन में मंदी, सीरिया की शरणार्थी समस्या और बड़े स्तर पर रूसी हैकिंग का सामना करने में भी मदद मिली। कोविड के बाद आर्थिक झटके से दोनों देश कैसे उबरेंगे ये तय हो चुका है.

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बड़बोले नहीं मध्यमार्गी बाइडेन/हैरिस भारत को गले लगाना चाहेंगे

अमेरिका के साथ हमारे आर्थिक और रणनीतिक संबंध पहले से कहीं अधिक मजबूत हैं. दोनों देशों के बीच 100 बिलियन डॉलर का व्यापार है. अमेरिका भारत का सबसे बड़ा साझीदार बन गया है, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, उबर, वॉलमार्ट और अमेजन सहित 600 से ज्यादा अमेरिकी कंपनियां भारत में काम कर रही हैं. एप्पल अपने नए आइफोन भारत में तैयार करने के लिए योजना बना रही है. भारत में अमेरिकी निवेश कई गुना बढ़ गया है. हमारे सामरिक संबंध भी नई ऊंचाई पर पहुंचे हैं, हम इस अनिश्चित विश्व की स्थिरता के लिए अभूतपूर्व तरीके और जगहों पर जुड़े हैं. हम और आगे भी जा सकते हैं.

सच्चाई ये है कि अमेरिका, खासकर एक मध्यमार्गी बाइडेन/हैरिस प्रशासन के तहत बिना किसी दिखावे लेकिन कई छोटे-छोटे तरीकों से भारत को गले लगाना चाहेगा. भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है-2022 तक इसके चीन से आगे जाने की संभावना है-पीपीपी में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और दुनिया की चौथी सबसे मजबूत सेना है.

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बाइडेन/हैरिस प्रशासन को स्पष्ट तौर पर हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सम्मान करना होगा

2050 तक चीन 106 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी (पीपीपी में करीब 62 ट्रिलियन डॉलर) के साथ दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश हो जाएगा. 2030 के करीब विश्व की जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी सबसे ज्यादा लगभग 20 फीसदी होने की उम्मीद है और इसके बाद ये कम होने लगेगी। इसी दौरान अमेरिका और भारत दूसरी और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे

पीपीपी (क्रय शक्ति समानता)में मापने पर 2050 तक भारत की जीडीपी अमेरिका से थोड़ी ज्यादा होने की उम्मीद है और भारत दूसरे नंबर पर आ जाएगा, ये मानकर चलने पर कि कोविड 19 पर नियंत्रण होते ही भारत तेजी से अपने औसत जीडीपी में लौट आएगा.  

और 2050 तक वैश्विक जीडीपी में इसका हिस्सा पीपीपी में 2014 के 7 फीसदी से बढ़र 13.5 फीसदी हो जाएगा जो करीब-करीब अमेरिका के जितना ही होगा. आधी शताब्दी तक पहुंचने तक जापान जीडीपी रैंकिंग में तीसरे से सातवें स्थान पर चला जाएगा और तीनों देशों की जीडीपी विश्व की जीडीपी का करीब 35 फीसदी हो जाएगी जो उन्हें सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाला गुट बना देगी. यह उनके रणनीतिक और कूटनीतिक एजेंडा की वैश्विक प्रमुखता की गारंटी देगा.

ब्रिटेन और जापान की तरह हम अमेरिका के साथ लोकतंत्र और उसकी स्वतंत्रता, नागरिक और आर्थिक दोनों, की प्रतिबद्धता साझा करते हैं. लेन-देन वाले ट्रंप के लिए ये बहुत मायने नहीं रखती होगी लेकिन बाइडेन/ हैरिस प्रशासन को हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सम्मान करना होगा. कूटनीतिक गतिरोध जैसे ईरान के मुद्दे पर हुआ, हमें अपने रिश्तों के लचीलेपन को जांचने देंगे, शायद नए समझौते या कम से कम एक-दूसरे के संप्रभु हितों के सम्मान की सीख देंगे.

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