ADVERTISEMENTREMOVE AD

भारत और हिजाब: बंटे हुए फैसले,मिसालें और मुस्लिम महिला छात्राओं का भविष्य

Hijab Controversy का न्यायिक मूल्यांकन, धार्मिकता से परे जाकर, चुनने की आजादी और इसकी वैधता की जांच के बारे में है

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

हिजाब विवाद पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एक बंटा हुआ फैसला सुनाया है, इस वजह से कर्नाटक में हिजाब पहनने को लेकर शैक्षणिक संस्थानों द्वारा प्रतिबंधित छात्राओं के भविष्य को लेकर बड़े पैमाने पर अस्पष्टता बनी हुई है.

कर्नाटक में सरकारी और निजी शैक्षणिक संस्थानों द्वारा अपने-अपने परिसर में हिजाब पहनने पर लगाए गए कई प्रतिबंधों को खारिज करने के लिए माननीय न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और सुधांशु धूलिया की एक पीठ (बेंच) याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी.

पूर्व में कर्नाटक हाई कोर्ट ने यह कहते हुए प्रतिबंध को बरकरार रखा कि इस्लाम में हिजाब एक आवश्यक प्रथा नहीं है, इस वजह से ये प्रतिबंध छात्राओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है. वर्तमान में जो याचिकाएं लगाई गई थीं वे हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील थीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अनसुलझा फैसला आने के साथ इस मामले में असमंजस की स्थिति खत्म होने से काफी दूर है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

कहां से शुरु हुआ यह हिजाब विवाद

इसी साल फरवरी में कर्नाटक के उडुपी में हिजाब पहनने की वजह से छह छात्राओं को एक सरकारी महिला कॉलेज में इस आधार पर प्रवेश करने से रोक दिया गया था कि यह (हिजाब) कॉलेज के यूनिफार्म ड्रेस कोड का उल्लंघन करता है. इस तरह के प्रतिबंधों के खिलाफ जैसे-जैसे विरोध बढ़ता गया, उसी तरह से कर्नाटक में कई अन्य स्कूलों और कॉलेजों द्वारा हिजाब पर प्रतिबंध लगाया गया.

दरअसल, कर्नाटक के राज्य शिक्षा विभाग ने जल्द ही एक नोटिफिकेशन जारी करते हुए सभी शैक्षणिक संस्थानों को यूनिफ़ॉर्म ड्रेस कोड लागू करने को कहा. हालांकि नोटिफिकेशन में स्पष्ट तौर पर 'हिजाब' का उल्लेख नहीं था, कई लोगों का मानना ​​था कि यह प्रतिबंध को मान्य करता है और इसे हाई कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई.

 'यूनिफार्म' के आधार पर कर्नाटक हाई कोर्ट ने बैन लगाया

उच्च न्यायालय के समक्ष सवाल यह था कि क्या प्रतिबंध ने छात्राओं के 'धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार' का उल्लंघन किया है, जो भारतीय संविधान द्वारा संरक्षित है.

भारत में धार्मिक स्वतंत्रता मुख्य रूप से चार संवैधानिक प्रावधानों में निहित है.

सबसे पहले, अनुच्छेद (आर्टिकल) 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है जबकि अनुच्छेद 15 धर्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकता है, जबकि अनुच्छेद (आर्टिकल) 15 धर्म या किसी अन्य श्रेणी के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकता है, अनुच्छेद 19(1) में नागरिकों को स्वतंत्र रूप से खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार दिया गया है, जिसमें पहनावा चुनने की स्वतंत्रता एक अभिन्न हिस्सा है.

अंत में, अनुच्छेद 25 देश के नागरिक को अपने धर्म का स्वतंत्र रूप से अभ्यास करने और उसे मानने का अधिकार देता है.

इसलिए हाई कोर्ट ने इसी चश्मे से हिजाब प्रतिबंध को देखा और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि "इस बात का कोई सबूत नहीं है कि हिजाब पहनना इस्लाम में एक धार्मिक प्रथा है" वहीं इसके बजाय "स्कूल यूनिफार्म्स सद्भाव को बढ़ावा देते हैं." इसने प्रतिबंध को प्रभावी ढंग से बरकरार रखा और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वर्तमान याचिकाओं में इसे चुनौती दी गई.

सुप्रीम कोर्ट के बंटे हुए फैसले ने टकराव को बरकरार रखा

कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने कुल 26 अपीलों पर सुनवाई की, जिसमें जस्टिस गुप्ता ने प्रतिबंध को बरकरार रखते हुए और जस्टिस धूलिया ने इसे खारिज करते हुए "अलग-अलग मत" व्यक्त किए.

जस्टिस धूलिया ने विद्यार्थियों के शिक्षा के अधिकार पर सबसे अधिक महत्व दिया और बिजो इमैनुएल मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1986 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कोर्ट ने धार्मिक बाधाओं की वजह से राष्ट्रगान गाने से इनकार करने वाले तीन बच्चों के निष्कासन के आदेश को उलट दिया था.

कोर्ट ने उक्त मामले में कहा था कि स्कूल के नियमों के नैतिक व्यवहार से विद्यार्थियों के निष्ठापूर्ण धार्मिक मान्यताओं का उल्लंघन हुआ था. इसी लाइन पर, जस्टिस धूलिया ने कहा कि इस मुद्दे का निष्कर्ष अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19(1) के तहत दी गई चुनने की स्वतंत्रता पर निर्भर करता है और इस प्रकार, उन्होंने हिजाब पर लगा प्रतिबंध हटा दिया.

इसके उलट, 11 मुख्य कानूनी मुद्दों से जूझते हुए जस्टिस गुप्ता ने प्रतिबंध के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या अपने आप में हिजाब पहनना अनुच्छेद 25 के दायरे में संरक्षित किया जा सकता है, हिजाब वाकई में एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है या नहीं, क्या धार्मिक पोशाक पहनने का कोई मौलिक अधिकार है, एक स्कूल के निर्धारित ड्रेस कोड का उल्लंघन करना, क्या इस तरह के प्रतिबंध को लागू करने में सरकार का कोई हित निहित था और क्या प्रतिबंध का आदेश अपने आप में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत परिभाषित 'उचित प्रतिबंध' के रूप में न्यायसंगत था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

न्यायपालिका के बारे में यह फैसला क्या बताता है?

आमतौर पर, जब कोई बेंच आम सहमति पर नहीं पहुंच पाती है तब मामले को तीसरे जज या बड़ी बेंच के पास भेज दिया जाता है, जहां मामले पर अंतिम फैसला सुनाया जाता है.

डिवीजन बेंच (दो सदस्यीय बेंच) में बंटे हुए फैसले दुर्लभ हो सकते हैं, लेकिन शायद ही अभूतपूर्व हों. वास्तव में, ऐसे कई उदाहरण हैं जहां विभिन्न अपीलीय कोर्ट के जजों ने अक्सर एक-दूसरे से कानून की व्याख्याओं के साथ-साथ मामले के तथ्यों पर भी असहमति जताई है.

कानूनी दिग्गजों के लिए, यह एक स्वागत योग्य घटना है. अमेरिका के 11 वें मुख्य न्यायाधीश चार्ल्स इवांस ह्यूजेस ने एक बार कहा था कि "सर्वोच्च अदालत में होने वाली असहमति कानून की चिंता की भावना को और आने वाले दिनों की बुद्धिमता को अपील करती है जो शायद गलतियों को ठीक कर सकेगी जिसकी वजह से असहमत जज को लगता है कि कोर्ट को धोखा हुआ है."

हाल ही में हमने देखा कि दिल्ली हाई कोर्ट ने संविधान के दायरे में वैवाहिक बलात्कार की आपराधिकता का निर्णय करते हुए एक बंटा हुआ फैसला दिया. दिलचस्प बात यह है कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले में भिन्नता सहमति के सवाल पर थी जबकि मौजूदा मामले में बेंच पसंद या चुनने के सवाल में उलझी हुई थी.

यह इस बात को रेखांकित करता है कि कैसे हिजाब विवाद का न्यायिक मूल्यांकन इसकी धार्मिकता से परे जाता है और इसकी कानूनी उपयुक्तता की जांच करता है.

तीसरे जज की यथार्थता

बंटे हुए फैसले के एक अन्य मामले में कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस गिरीश गुप्ता और जस्टिस तपब्रत चक्रवर्ती 2014 में एक बंगाली अभिनेता और बंगाल के तत्कालीन सांसद तपस पाल द्वारा दी गई हेट स्पीच के मुद्दे पर सहमत होने में विफल रहे थे. तब यह मामला उसी हाई कोर्ट के तीसरे जज के पास गया, जिसने आखिरकार अंतिम फैसला दिया था.

इस मामले में, तीसरे जज को इस सवाल का सामना करना पड़ा कि क्या वह बंटे हुए फैसले की स्थिति में अपना विचार रख सकते / सकती हैं. मौजूदा मामले में भी यह एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है.

यहां पर, 1956 के फैसले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज देसाई द्वारा की गई टिप्पणी महत्वपूर्ण है- "जब जज समान रूप से बंटे हुए होते हैं तब समान विभाजन को असमान विभाजन में बदलने के लिए तीसरे जज की राय होनी चाहिए ताकि बहुमत के दृष्टिकोण को प्रभावी किया जा सके."

हालांकि, हिजाब मामले को एक बड़ी पीठ द्वारा उठाए जाने की संभावना है और यह निश्चित रूप से संभव है कि पूरी तरह से एक नया दृष्टिकोण सामने आए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

ईरान हो या भारत, 'चुनने' के सवाल से लगातार जूझ रही हैं महिलाएं 

हालांकि विभाजित निर्णय निश्चित रूप से न्यायाधीशों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रदर्शित करते हैं, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी करना असंभव है कि वे कुछ हद तक न्यायिक देरी का कारण बनते हैं. इसलिए, जैसे-जैसे हिजाब विवाद में जांच आगे बढ़ती है, किसी को विधायी प्रक्रिया की अनदेखी नहीं करनी चाहिए, भले ही कानून अपने हिसाब से काम करे.

हिजाब पर प्रतिबंध लागू होने के बाद से कर्नाटक में 16% मुस्लिम छात्राओं ने अपने संबंधित शिक्षण संस्थानों को छोड़ दिया है और यह संख्या बढ़ने का अनुमान है. एक और सवाल है जिसका आकलन किया जाना बाकी है कि क्या हिजाब इस्लाम के लिए जरूरी है या नहीं? इसके अलावा क्या हिजाब पहनने वाली छात्राओं को प्रवेश न करने देना संविधान के अनुच्छेद 29 (2) के तहत गारंटीकृत उनके सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों का उल्लंघन है?

यह देखना दिलचस्प होगा कि हिजाब न पहनने के अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए ईरानी महिलाओं की लड़ाई और भारतीय छात्राओं की हिजाब पहनने की पसंद में से आखिरकार कानून किसका समर्थन करता है.

(यशस्विनी, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की एक पहल न्याय में आउटरीच लीड के रूप में काम करती हैं. यह संस्था सभी के लिए सरल, कार्रवाई योग्य, विश्वसनीय, सुलभ कानूनी जानकारी प्रदान करने का काम करती है. यशस्विनी के पास SOAS, लंदन विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री है. वह ट्विटर पर @yashaswini_1010 पर उपलब्ध हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×