पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट के जज डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए IIT बॉम्बे को निर्देश दिया कि वो उस दलित छात्र को एडमिशन दे. जिसका एडमिशन इसलिए छीन लिया गया था क्योंकि वो तय वक्त पर फीस नहीं जमा कर पाया. जस्टिस चंद्रचूड़ ने IIT बॉम्बे के अधिकारियों को फटकार भी लगाई. अपनी टिप्पणी में उन्होंने कहा, “ वो एक दलित लड़का है, उनकी बहन ने आपको पैसे ट्रांसफर किए , आपको समझना चाहिए कि आखिर किन मुश्किल हालातों से वो दो चार होते हैं.”
आगे अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “ यह इंसाफ के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ है कि एक दलित छात्र को पैसे जमा करने में दिक्कत आने की वजह से उसका नाम बॉम्बे IIT के पोर्टल से हटा दिया गया और आखिर उसे अपने हक के लिए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा.”
कोर्ट का फैसला और सुनवाई सिर्फ एक झलक है कि शिक्षा के मंदिर यानि इन आला संस्थानों में दलित और वंचित जातियों को किन हालातों से दो चार होना पड़ता है. इनमें जाति का दंश और योग्यता/मेरिट के मानकों वाले अत्याचारी नियम हैं.
भारत के शैक्षणिक संस्थानों IIT, IIM और AIIMS में ‘योग्यता/मेरिट’ को हथियार बनाया गया है .
आरक्षण नीतियों को प्रभावी तरीके से लागू करने के उपाय सुझाने के लिए केंद्र ने एक कमिटी बनाई थी लेकिन इस कमिटी ने सिफारिश कर दी कि IIT में फैकल्टी नियुक्तियों में आरक्षण से छूट दी जाए.
संसद में शिक्षा मंत्रालय ने एक डाटा साझा किया था जो IIT में PHD करने वाले छात्रों में भारी सामाजिक असमानताओं का खुलासा करता है.
IIT, IIM और यहां तक कि एम्स में फैकल्टी नियुक्तियों को देखने से पता चलता है कि इसमें अपर कास्ट की नियुक्ति की प्रवृति है. वंचित समुदायों के उम्मीदवारों को 'मेरिटलेस' माना जाता है.
IIT और IIM ‘अपर कास्टनेस’ के सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभरे हैं.
इसीलिए, यह समझना महत्वपूर्ण है कि कैसे 'योग्यता/मेरिट' को सामान्य रूप से भारत के शिक्षा संस्थानों में खासतौर पर IIT, IIM और AIIMS में एक ‘वैचारिक हथियार’ बनाया गया है. सुविधाभोगी लोगों का मानना है कि ‘योग्य’ और 'मेधावी' को ही सिर्फ IIT जैसे "उत्कृष्ट संस्थानों" में प्रवेश करना चाहिए. यह दरअसल ऐतिहासिक तौर पर बनाई गई नैरेटिव है जिसका इस्तेमाल उच्चजाति का दबदबा और विशेषाधिकार बनाए रखने में होता है.
मेरिट के विचार को कैसे बढ़ाया गया?
उच्च शिक्षा संस्थानों में उच्च जातियों का वर्चस्व आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद जारी है. मुख्य रूप से, राष्ट्रीय महत्व के विज्ञान, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन और चिकित्सा संस्थान छात्रों के प्रवेश और प्रोफेसरों की नियुक्तियों में विविधता बनाए रखने में गंभीर नहीं हैं. ब्राह्मणों और अन्य सवर्ण उच्च जातियों के जातिगत वर्चस्व को बनाए रखते हैं.
IIT निदेशकों और सरकारी अधिकारियों के आठ सदस्यीय पैनल ने मेरिट के विचार को आधिकारिक तौर पर बढ़ावा दिया. भर्ती और प्रवेश में आरक्षण नीतियों के प्रभावी तौर से लागू करने के उपायों का सुझाव देने के लिए केंद्र सरकार ने कमिटी बनाई थी. इसमें इसने सिफारिश की कि IIT को फैकल्टी नियुक्तियों में आरक्षण से छूट दी जाए.
IIT दिल्ली के निदेशक वी रामगोपाल राव की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा कि अगर फैकल्टी के लिए SC, ST, या ओबीसी उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं या एक साल तक सीट खाली रह जाती है तो फिर उसे गैर आरक्षित वर्ग से भर दिया जाए.
आंकड़े भयावह हैं
शिक्षा मंत्रालय की तरफ से संसद में साझा किए गए डाटा के मुताबिक IIT में जो PHD करते हैं उनमें बड़ा सामाजिक भेदभाव का खुलासा होता है. साल 2021 का डाटा दिखाता है कि किस तरह IIT जाति और सामाजिक बहिष्कार का केंद्र बन चुके हैं. खड़गपुर, इंदौर, दिल्ली, गांधीनगर, तिरुपति, मंडी और भुवनेश्वर के IIT में, सामान्य श्रेणी के छात्र ज्यादातर उच्च जातियों से आते हैं.
कुल आवेदकों में 51.8%, 41.2%, 52.7%, 49.9%, 42.1%, 43.1% और 47.9% उच्च जाति के हैं. हालांकि, प्रवेश में उनकी हिस्सेदारी क्रमशः 62.6%, 63.8%, 70.5%, 74.4%, 59.7% 63.3% और 58.7% थी.
इन्हीं IITs में पीएचडी के लिए SC उम्मीदवारों ने जो आवेदन दिया वो क्रमश: 13.9%, 12%, 12.2%, 10.3%, 14.6%, 10.6% और 11.6% थे, जबकि दाखिले का प्रतिशत 10.9%, 5.5%, 5.8%, 3.1%, 1.6%, 6.6% और 8% थे.
IIT भिलाई ने समाज के दो सबसे हाशिए के समुदायों से 10.9% और 1.6% आवेदन प्राप्त करने के बावजूद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के पीएचडी आवेदकों को स्वीकार नहीं किया है. इसी तरह, अनुसूचित जनजातियों के उम्मीदवार जिनको भर्तियां मिलती हैं वो बहुत कम होते हैं भले ही इनके आवेदनों का हिस्सा काफी ज्यादा है. सभी IIT के कुछ विभागों में तो जीरो के बराबर SC , OBC और ST उम्मीदवारों को प्रवेश दिया जा रहा है.
भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) भी सामाजिक न्याय और जाति विविधता को कायम रखने में पूरी तरह विफल रहे हैं. 20 IIM में से केवल 15 ही एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों के उम्मीदवारों के लिए पीएचडी कार्यक्रमों में आरक्षण प्रदान करते हैं.
इसी तरह, हाल ही में भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII), पुणे में विरोध प्रदर्शन सामने आए, जहां भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान छात्रसंघ (FTIISA) ने अधिकारियों पर आरक्षण को खत्म करने और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों को नहीं भरने का आरोप लगाया.
एकतरफा भर्ती प्रक्रिया
इसी तरह से IIT , IIM और यहां तक कि एम्स में फैकल्टी नियुक्तियां भी जो होती है वहां भी अपरकास्ट माइंडसेट काम करता है. वंचित समुदायों से आए उम्मीदवारों को 'मेरिटलेस' माना जाता है.
सेंट्रल यूनिवर्सिटी में भी हालात अच्छे नहीं हैं. शिक्षा मंत्रालय ने संसद में जो डाटा दिया है उससे पता चलता है कि 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एससी के लिए मंजूर 2,297 फैकल्टी पदों में से 1,004 सीटें खाली पड़ी हैं. एसटी के लिए, फैकल्टी भर्ती के लिए मंजूर पदों की संख्या 1,144 है, जिनमें से 582 खाली हैं.
पिछले साल, IIT मद्रास कथित तौर पर जातिगत भेदभाव के कारण सहायक प्रोफेसर विपिन पी वीटिल के इस्तीफे को लेकर चर्चा में था. वीटिल ने द न्यूजमिनट के लिए एक कॉलम में लिखा है कि कैसे फैकल्टी की भर्ती प्रक्रिया (आवेदन से लेकर इंटरव्यू पैनल तक) को अपर कास्ट के एकेडमिक ब्यूरोक्रेट परिवार के लोगों के हिसाब से बनाया जाता है.
“ध्यान दें कि नई फैकल्टी की भर्ती छात्रों के किसी खास कोर्स की मांग से संबंधित नहीं है. बल्कि, फैकल्टी के लिए जो विज्ञापन दिए जाते हैं उसमें पारदर्शिता का अभाव रहता है. इनका फायदा एकेडमिक ब्यूरोक्रेट अपने परिजनों को अंदर घुसाने में करते हैं. क्योंकि ज्यादातर एक ही तरह की जाति से आते हैं इसलिए विज्ञापन तैयार करने की मनोवृति सबकी एक जैसी ही होती है."विपिन पी वीटिल
हार्वर्ड की अजंता सुब्रमण्यम ने अपनी पुस्तक 'द कास्ट ऑफ मेरिट, इंजीनियरिंग एजुकेशन इन इंडिया' में IIT मद्रास पर अपना शोध किया है. इसमें वो लिखते हैं उनका काम कास्ट कैपिटल यानि जाति की जो अहमतियत है उसको सामाजिक तौर पर फिर से बनाए रखने की प्रक्रिया यहां उजागर होती है.
सुब्रमण्यम लिखते हैं: “IIT मद्रास में योग्यता का दावा सिर्फ मध्यवर्गीय ब्राह्मणवाद को संस्थागत तरीके से आगे बढ़ाना है. यह निश्चित तौर से क्षेत्र में जाति निर्माण में योग्यता को विशिष्ट ब्राह्मणवादी नजरिया जो रहा है उस पर जोर दिया गया है. लेकिन दूसरे उदाहरणों से अलग ही पिक्चर बनती है. इसमें मेरिट का तर्क अब सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमीत नहीं रहता है बल्कि जो दूसरी उच्च जातियां हैं उनका भी इसमें दबदबा बन रहा है.
‘अलग थलग बनाए रखने का केंद्र’
शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों ने हाल ही में IIT, IIM, एम्स और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक भेदभाव की कलई खोल दी है. इससे पता चलता है कि वंचित जाति के छात्रों, विद्वानों और फैकल्टी इन सेंटरों पर किन हालात में रहते हैं और किस तरह से उनका अपमान और उन्हें एक निश्चित दायरे में रहने के लिए विवश किया जाता है. दरअसल ज्यादातर राष्ट्रीय संस्थाएं समावेशी यानि सबको साथ लेकर चलने की जगह सामाजिक अलगाव बढ़ाने और बहिष्कार का केंद्र बन गए हैं.
शिक्षा संस्थानों को वंचित समुदायों की तरफ से ‘जाति मुक्त सेंटर’ बनाने की कोशिश का मखौल उड़ाया जाता है. ज्यादातर SC, ST, OBC छात्र और प्रोफेसर राष्ट्रीय महत्व वाले कैंपस में इस उम्मीद से आते हैं कि उनका इंटेलेक्चुअल एप्रीसिएशन होगा यानि बौद्धिक तौर पर विकास होगा लेकिन यहां आकर वो ‘अन्य’ बन जाते हैं और उनके साथ बर्ताव भी वैसा होता है.
डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने विज्ञान को लोकतांत्रिकरण का नैतिक ताकत समझा था लेकिन आज विज्ञान उनके विजन का नाश कर रहा है. IITs और IIMs आज अपरकास्टनेस यानि उच्च जातिवाद का चैंपियन बन गया है.
(सुभाजीत नस्कर जादवपुर यूनिवर्सिटी, कोलकाता में अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग के सहायक प्रोफेसर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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