एक छुटभैए-बड़बोले नेता एक बार सस्ते गहने बेचने की कोशिश में सोशल मीडिया पर वायरल हो गए, कथित तौर पर उन्होंने चीन की ई-कॉमर्स कंपनी अलीबाबा से खरीदकर उन आभूषणों की रिब्रांडिंग की दी थी. और चीनी सामानों के जरिए कट्टर राष्ट्रवाद की हवा तैयार करने के लिए लोगों ने उनकी बड़ी निर्ममता से ट्रोलिंग कर दी. विंडबना ये थी कि नेता जी भी उसी परिवेश के हिस्सा थे जो चीनी फोन का इस्तेमाल कर ट्विटर पर बार-बार चीन के सामान के बहिष्कार की मांग उठाते हैं.
ये देखने सुनने में पाखंड जैसा लग सकता है लेकिन सच्चाई इतनी ही सरल नहीं है. जरूरी नहीं कि हम चीनी सामान का इस्तेमाल करते हुए उसके बहिष्कार या उसे बदले जाने की इच्छा नहीं जाहिर कर सकते. भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में समय-समय पर ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार की मांग उठती रही है. कई लोग अपनी इच्छा से मैनचेस्टर में बने कपड़े फेंक देते थे, लेकिन घर लौट कर विदेश से मंगाई गई चीजों का उपयोग करते थे. ब्रिटिश राज में जीवनयापन का ये एक अपरिहार्य पहलू था.
भारत बेहिसाब तौर पर चीन के सामान पर निर्भर है
चाहे हमें मालूम हो या नहीं, ये एक सच है कि भारत बेहिसाब तरीके से चीन से आयात किए गए सामान पर निर्भर है. स्मार्टफोन को छोड़ भी दें, जिसका तीन-चौथाई हिस्सा चीन से मंगाया जाता है, तो रोजाना इस्तेमाल में लाई जाने वाली ऐसी अनगिनत चीजें हैं जिनका निर्माण तो भारत में होता है, लेकिन उन्हें तैयार करने वाली चीजों के लिए हम बड़े पैमाने पर चीन पर आधारित हैं.
उदाहरण के लिए, जब आप बिजली की खपत कम करने के लिए भारत में बने LED बल्ब खरीदते हैं, तो आपको पता नहीं होता कि उसे तैयार करने वाली 30 से 40 फीसदी चीजें चीन से आयात की जाती हैं. हम जो दवाइयां खरीदते हैं, उन्हें तैयार तो भारत में किया जाता है, लेकिन उनमें इस्तेमाल होने वाली कम से कम दो तिहाई सामग्री चीन से मंगाई जाती है.
हमारे इस्तेमाल में आने वाली कई उपकरणों में छोटे चिप्स लगे होते हैं जो कि उनके उपयोग को बेहद आसान और सहज बनाते हैं. ऐसे ज्यादातर चिप्स चीन से ही आयात किए जाते हैं.
इसलिए, चीन के साथ सैन्य-संघर्ष होने के बावजूद, हमारे लिए चीन में बने सभी सामानों का बहिष्कार करना व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं है. और इसमें कोई शर्म की बात नहीं है. आज वैश्वीकरण के जिस माहौल में हम जी रहे हैं, उसमें पूरी तरह आत्मनिर्भर होने में हमें कई दशक लग जाएंगे.
2014 से भारत में चीनी निवेश में भयानक बढ़ोतरी हुई
भारत में चीनी निवेश एक जटिल मसला है. ब्रूकिंग्स इंडिया के लिए अनंत कृष्णन की एक स्टडी के मुताबिक, जिसे लॉकडाउन के ठीक पहले प्रकाशित किया गया, 2014 तक भारत में चीन का निवेश करीब 1.6 बिलियन डॉलर था, इसी साल नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे. अगले तीन सालों में, ये निवेश पांच-गुना बढ़कर 8 बिलियन डॉलर हो गया. कृष्णन कहते हैं कि असल आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है, क्योंकि भारतीय कंपनियों में शेयर के तौर पर चीन की हिस्सेदारी और तीसरे देशों से रास्ते किए गए निवेशों का हिसाब-किताब इस आंकड़े में शामिल नहीं है.
इस स्टडी में उन मुख्य क्षेत्रों की पहचान की गई है जिसमें चीन की कंपनियां या तो पहले से निवेश कर चुकी है या अगले कुछ सालों में करने वाली है. भारत में अपना कारोबार शुरू करने वाली पहली कंपनियों में से एक हैं भारी उपकरण बनाने वाली कंपनियां सैनी और लिगांग. जहां साल 2010 से सैनी का एक प्लांट महाराष्ट्र के चाकन में काम कर रहा है, लिगॉन्ग ने मध्य प्रदेश के पीतमपुरा में एक फैक्ट्री लगाई है.
चीन की स्टील कंपनियों ने भारत में बड़े प्लांट्स लगाए हैं. भारत की ज्यादातर पावर कंपनियां चीन में बने ऊर्जा-उपकरणों का इस्तेमाल करती हैं, और दुनियामें उपकरणों के सबसे बड़े निर्यातक TBEA ने गुजरात में चीनी इंडस्ट्रियल पार्क तैयार किया है.
एक अनुमान के मुताबिक चीन की कंपनियां लैनी, लॉन्गी सोलर और CETC नवीकरणीय ऊर्जा यानि Renewable energy के क्षेत्र में 3.2 बिलियन डॉलर निवेश करने की ताक में हैं. वहीं ऑटो, रियल एस्टेट और दूसरे कई सेक्टर में चीनी कंपनियां पहले से ही सेंध मार चुकी है.
इसलिए चीन की कंपनियों द्वारा बेचे जाने वाले कई सामान दरअसल भारत में बनाए जाते हैं. सबसे बड़ी मिसाल है भारत के मोबाइल-फोन बाजार में चीन का दबदबा, जहां 5 में से 4 सबसे बड़े ब्रांड चीनी हैं. मोबाइल फोन मार्केट का नेतृत्व करने वाली शाओमी कंपनी की भारत में 7 फैक्ट्रियां हैं, जो कि 500 मिलियन डॉलर का निवेश कर रीटेल में अपनी मौजूदगी को और बढ़ाने की योजना बना रही है. शाओमी के प्रतिद्वंदी BBK Electronics, जो कि तीन अलग ब्रांड - ऑपो, वीवो और वन प्लस - के मोबाइल फोन बेचती है, की दो फैक्ट्रियां उत्तर प्रदेश में हैं और जल्द ही वो तीसरी फैक्ट्री खोलने की योजना बना रहा है.
भारतीय स्टार्ट अप में चीन का निवेश
चीन भारतीय कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी खरीदने में भी पूरा जोर लगा रहा है. ब्रुकिंग्स पेपर के मुताबिक साल 2017 में ग्लैंड फार्मा और फोसुन के बीच एक बिलियन डॉलर का सौदा अब तक की सबसे बड़ी हिस्सेदारी मानी जा रही है. इसके अलावा भारत की सैंकड़ों स्टार्ट अप कंपनियों में चीन की फाइनेंस कंपनियां अलीबाबा और टेंसेंट ने भरपूर पैसे लगाए हैं. पेटीएम को अलीबाबा लगभग पूरी तरह खरीद चुका है. ई-कॉमर्स कंपनी स्नैपडील और फूड डिलीवरी ऐप जोमैटो में अलीबाबा ने बड़ा निवेश किया है. मनोरंजन और मीडिया के क्षेत्र में भी अलीबाबा बड़ी हिस्सेदारी खरीदने की योजना बना रहा है.
अलीबाबा के प्रतिद्वंदी टेंसेंट ने भारत में कैब मुहैया करने वाली कंपनी ओला में करीब 10 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली है. Flipkart, Byju’s, Swiggy और Gaana जैसी कंपनियों से टेंसेंट काफी अहम सौदा कर चुका है. उधर, शाओमी ने मोबाइल फोन के क्षेत्र से बाहर निकलकर अपनी निवेश कंपनी शुनवेई के साथ भारत की सैंकड़ों स्टार्टअप कंपनियों में हिस्सेदारी खरीदना शुरू कर दिया है.
इनमें से ज्यादातर निवेश प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में हुए. इन कंपनियों के खिलाफ उठाए गए कदम भारत के स्टार्टअप कंपनियों के एक बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचा सकते हैं. ठीक इसी तरह, भारत में निर्माण के क्षेत्र में लगी चीनी कंपनियों की जिंदगी मुश्किल करने पर ना सिर्फ रोजगार पर बुरा असर पड़ेगा बल्कि भारी उपकरण और इलेक्ट्रॉनिक सामानों की सप्लाई को नुकसान पहुंचेगा, जिनके बगैर कोई भी आधुनिक अर्थव्यवस्था काम नहीं कर सकती.
‘सीमा पर तनाव को सावधानी से सुलझाने की जरूरत’
मौजूदा समय में मोदी सरकार पर निशाना साधना आसान है, क्योंकि चीन के साथ भारत का रवैया ठीक वैसा ही नहीं हो सकता जैसा पाकिस्तान के साथ होता है. शासनकला का मतलब है वस्तुस्थिति को समझना और समझदारी से व्यावहारिक फैसले लेना. इसमें कोई शक नहीं कि चीन निर्यात के लिए भारत पर उतना निर्भर नहीं है जितना हमारी अर्थव्यवस्था चीनी सामान और पूंजी पर निर्भर है. इसलिए एक जिम्मेदार और समझदार सरकार इस तनाव को सावधानी से सुलझाने की कोशिश करेगी.
एक बार पूरी तरह साफ है, चीन के साथ हमारा संबंध एक नाजुक मोड़ पर पहुंच चुका है. हमारे चारों तरफ - खासकर पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल में - ड्रैगन की भवायह मौजूदगी का सामना करने के लिए हमें नए साथियों से हाथ मिलाने की जरूरत है. चीनी दबदबे को प्रभावहीन करने का एक तरीका है भारत में उसके बढ़ते कारोबार को संतुलित करना और साथ-साथ अमेरिका से सैन्य संबंधों को मजबूत करना.
सोवियत संघ के अंत के अब तक तीन दशक पूरे हो चुके हैं और इस इलाके में पाकिस्तान और अमेरिका के स्वाभाविक मित्र होने की बात भी एक दशक पुरानी हो चुकी है. ये मोदी सरकार के लिए मौके की घड़ी है, जिसका उसे इस्तेमाल करना चाहिए. ऐसा करने से घरेलू स्तर पर कुछ लोगों के अहंकार को ठेस पहुंच सकता है, लेकिन उस पर सार्वजनिक बातचीत से काबू किया जा सकता है. ये एक ऐसी बात है जिसे पीएम मोदी को सिखाने की जरूरत नहीं है.
(लेखक एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी प्रॉफिट के सीनियर मैनेजिंग एडिटर रहे हैं. वह इन दिनों स्वतंत्र तौर पर यूट्यूब चैनल देसी डेमोक्रेसी चला रहे हैं. आप उनके ट्वीट यहां @AunindyoC फॉलो कर सकते हैं. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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