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जलवायु परिवर्तन और भारत के अंदर बदलता ग्रामीण माइग्रेशन- यह पैटर्न क्या कहता है?

भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील 50 जिलों में से 14 बिहार में स्थित हैं.

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दुबई में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP28) की 28वीं बैठक में किसानों जैसे समाज के कमजोर वर्गों को जलवायु परिवर्तन के नुकसानदायक नतीजों से बचाने के लिए अनुकूलन और लचीलेपन वाले गतिविधियों को बढ़ाने और मजबूत करने की जरूरत पर जोर दिया गया. जलवायु परिवर्तन के असर से बढ़ते ग्रामीण प्रवासन (माइग्रेशन) और ग्रामीण इलाकों में घटते स्थानीय उत्पादन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को साफ तौर से प्रभावित किया है, जो बुनियादी रूप से कृषि प्रधान और आमतौर पर वर्षा आधारित है.

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महात्मा गांधी का यह कथन कि ‘असल भारत गांवों में बसता है’, यह देखते हुए कि भारत की लगभग 65 फीसद आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है, आज भी भारत के लिए सच है. हालांकि, पिछले कुछ दशकों में राष्ट्रीय घरेलू उत्पादन में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय कमी आई है. 1970 के दशक में कुल वर्कफोर्स का 84 फीसद हिस्सा गांवों में रहता था और कुल शुद्ध घरेलू उत्पादन का 62 फीसद से ज्यादा पैदा करता था. 2011-2012 तक वर्कफोर्स की हिस्सेदारी घटकर 71 फीसद रह गई.

हाल के सालों में भारत की कुल वर्कफोर्स में ग्रामीण इलाके की हिस्सेदारी 65 फीसद पर पहुंच गई है, और राष्ट्रीय घरेलू उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी घटकर महज 25 फीसद रह गई है.

इस कमी की वजह कृषि उपज और वस्तुओं और सेवाओं के स्थानीय उत्पादन में भारी कमी हो सकती है, जिससे रोजगार में बेहतरी और ज्यादा कमाई के लिए रूरल वर्कफोर्स की शहरी इलाकों पर निर्भरता बढ़ गई है. इसके चलते भारत में देश भर में ग्रामीण-शहरी आबादी की बसावट में बदलाव आ रहा है.

माइग्रेशन से बसावट में बदलाव: आंकड़े क्या बताते हैं?

हमारे नेट माइग्रेशन डेटा के रुझानों के मुताबिक, भारत के कुछ घनी आबादी वाले और खासतौर से कृषि प्रधान राज्यों में सालों से गांवों की आबादी का लगातार नेट माइग्रेशन आउटफ्लो देखा जा रहा है.

नीचे दिए गए हीट मैप दर्शाते हैं कि 2012 में उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे कुछ प्रमुख कृषि राज्यों से बड़ी संख्या में रूरल माइग्रेंट का आना हुआ. हालांकि 2019 में पैटर्न पलट गया, और इन राज्यों से माइग्रेंट का बाहर जाना बढ़ा, संभवतः नौकरी की संभावनाओं की कमी और जलवायु परिवर्तन के नुकसान की वजह से.

उदाहरण के लिए, बिहार जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहद संवेदनशील है, इसके उत्तरी और दक्षिणी इलाकों को क्रमशः बाढ़ और सूखे का सामना करना पड़ता है. असल में, जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील भारत के 50 जिलों में से 14 बिहार में हैं. इसी तरह झारखंड में बढ़ते तापमान के कारण बारहमासी (साल भर पानी वाली) नदियों के सूखने और जंगल में आग की बढ़ती घटनाओं से कृषि क्षेत्र पर नुकसानदायक प्रभाव पड़ सकता है.

ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश का रहा, जहां सरकार ने 2019 में स्वीकार किया कि जलवायु परिवर्तन से राज्य में गेहूं, मक्का, आलू और दूध के उत्पादन में कमी आने की उम्मीद है— जिन्हें आमतौर पर गांवों के लोगों का मुख्य भोजन माना जाता है. ये बदलते पैटर्न असर डालने वाली अनजानी वजहों को जानने की जरूरत पेश करती हैं.

माइग्रेंट्स के इस आने-जाने में गुजरात और कर्नाटक केंद्र बिंदु के रूप में उभरे हैं. गुजरात में भारी औद्योगिक विकास और कर्नाटक में रोजगार के बढ़ते अवसरों की वजह से इन राज्यों में रूरल माइग्रेंट का लगातार आना बढ़ा है. याद रहे कि 2019 में कर्नाटक में राष्ट्रीय औसत की तुलना में सबसे कम बेरोजगारी दर रही.

इन माइग्रेशन रुझानों का अध्ययन आर्थिक आयामों और आबादी के आवागमन के बीच परस्पर संबंध पर रौशनी डालता है. यह हमें रोजगार परिदृश्य और इसके चलते किसी इलाके की आबादी पर पड़ने वाले नतीजों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है.

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मजबूर करने और आकर्षित करने वाली वजहें

गांवों-से-शहरी माइग्रेशन सिर्फ आबादी की बसावट का बदलाव नहीं है, बल्कि कई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का नतीजा है. मजबूर करने वाली घटनाओं में जलवायु परिवर्तन और सूखा, बाढ़ और हीट वेव जैसी प्राकृतिक आपदाओं का गहरा असर शामिल है, जिनसे प्राकृतिक संसाधनों का घट जाना; भयानक गरीबी का जाल; और ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती आय असमानताएं पैदा होती हैं.

इसके नतीजे में, बहुत से माइग्रेंट बेहतर कमाई की तलाश में अनौपचारिक लेबर मार्केट की ओर बढ़ जाते हैं.

इसके उलट आकर्षित करने वाले कारकों में अच्छी आमदनी की उम्मीद; बेहतर जॉब की संभावनाएं; अच्छा जीवन स्तर; और क्वालिटी हेल्थकेयर, शिक्षा और कौशल विकास सुविधाओं की उपलब्धता शामिल है. बेहतर बुनियादी ढांचा कनेक्टिविटी भी बेहतर भविष्य की संभावनाओं की तलाश में लोगों को शहरों की ओर खींचती है.

इन आकर्षित करने वाले कारकों से इस तरह के माइग्रेशन पैटर्न से शहरी आबादी में बढ़ोत्तरी होती है, जिससे शहरी संसाधनों पर और दबाव बढ़ता है. इसलिए, संतुलित विकास और समग्र टिकाऊपन कायम रखने के लिए गांवों और शहरी इलाकों के बीच सहजीवी संबंध बनाना जरूरी है

टिकाऊ भविष्य के लिए ग्रामीण लचीलेपन को मजबूत करना

हालिया माइग्रेशन पैटर्न ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बहाल करने के लिए एक समग्र, समावेशी और व्यापक रणनीति की जरूरत पर जोर देता है. गांवों से शहरों को माइग्रेशन में योगदान देने वाले मजबूर करने और आकर्षित वाले कारकों पर ध्यान देना ज्यादा लचीली ग्रामीण आजीविका तैयार करने की कुंजी है.

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ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के लिए स्थानीय उत्पादन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और नीति निर्माण प्रक्रिया में स्मार्ट कृषि तकनीकों और टेक्नोलॉजी से लैस रिसोर्स मैनेजमेंट जैसे नए उपायों को अपनाना चाहिए. माइग्रेंट वर्कर के आने और जाने वाली जगहों और कामकाज का डेटा तैयार करने से माइग्रेशन के लिए जिम्मेदार रियल टाइम कारकों को समझने और समाधान करने के उपाय तैयार करने में भी मदद मिल सकती है.

इसके अलावा समावेशी शहरी प्लानिंग और असरदार मोबिलिटी मैनेजमेंट पॉलिसी से ग्रामीण-शहरी माइग्रेशन से जुड़ी समस्याओं को कम करने और प्रवासियों की सामाजिक-आर्थिक क्षमता के बेहतर इस्तेमाल में मदद मिल सकती है.

ग्रामीण विकास और गरीबी के खात्मे के लिए राष्ट्रीय योजनाओं और कार्यक्रमों को सफलता से लागू करने के लिए उनको माइग्रेशन, जलवायु परिवर्तन और कृषि पर नीतियों के साथ एकीकृत करना चाहिए. असरदार कृषि नीतियां और आपदा प्रबंधन स्ट्रेटजी ग्रामीण समुदायों को जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले माइग्रेशन के प्रति ज्यादा लचीला बनाने में मददगार हो सकती हैं.

जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन का असर गहरा होता जाएगा, आने वाले सालों में भारत के रूरल माइग्रेशन में कई मोड़ देखने को मिल सकते हैं. COP28 ने संवेदनशील आबादी पर जलवायु परिवर्तन के नुकसानदायक असर के बारे में बहुत साफ नजरिया सामने रखा है. गांव-से-शहर को माइग्रेशन पैटर्न की निगरानी करने और शुरुआती स्थान और नए ठिकाने के बीच संतुलित आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के लिए, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के मकसद से नई नीतिगत पहल जरूरी है. भारत के गांवों को बचाने के लिए आर्थिक विकास, जलवायु लचीलापन और सामाजिक बराबरी को एकीकृत करने वाले उपायों की जरूरत है.

(लेखक एक शोध-आधारित थिंक टैंक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (CSTEP) में सस्टेनेबिलिटी के क्षेत्र में काम करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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