पिछले छह वर्षों के दौरान दो परछाइयां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कूटनीति का पीछा नहीं छोड़ रहीं. पहली परछाई 2002 की हिंसा से जुड़ी है जिसने अमेरिका और यूरोप के कुछ हिस्सों में उन्हें पर्सोना नॉन ग्राटा यानी अवांछित व्यक्ति का दर्जा दिलाया है. दूसरी परछाई, उस छवि की है जिसे उन्होंने खुद ही परिकल्पित किया है- एक सख्त ‘मैक्सिमम लीडर’ की.
यूं विश्व मंच पर नरेंद्र मोदी के ‘आगमन’ की मुनादी कई तरह से की गई. एक ओर वह अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को उनके पहले नाम से बुला रहे थे, तो दूसरी ओर फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांकोइस होलांदे सहित कई विश्व नेताओं से गलबहियां कर रहे थे- उनसे गर्मजोशी से हाथ मिला रहे थे. इससे पहले लगभग एक दशक तक उन्हें विश्व के कई देशों में नकारा गया था. शायद यह उसका जवाब ही था.
यही नहीं, प्रधानमंत्री भारतीय प्रवासियों के साथ लगातार संवाद कर रहे थे- 2014 में मेडिसन स्क्वॉयर गार्डन का समारोह हो या 2015 में विम्बले स्टेडियम का कम्यूनिटी एड्रेस, या फिर 2019 में ह्यूस्टन और टेक्सास के कार्यक्रम. बेशक, भव्य व्यक्तित्व का असर, किसी भी कूटनीतिक लेखे-जोखे से अधिक होता है.
क्या भारत की चीन नीति सर्वाधिक निराशा पैदा करती है
जिस दौरान पश्चिमी देश प्रधानमंत्री को नजरंदाज कर रहे थे, उन्हें बीजिंग से निमंत्रण मिला. वह चार बार चीन हो आए. चीन के विकास के मॉडल के प्रशंसक भी बन गए (आलोचकों का कहना है कि वह उसके राजनैतिक मॉडल से भी प्रभावित थे और असंतोष को दबाने के तरीके से भी). सितंबर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अपने पहले शिखर सम्मेलन में उनका उत्साह देखते ही बन रहा था. पिछले छह वर्षों में दोनों नेता लगभग 18 बार मिले और मोदी ने पांच मौकों पर चीन की यात्रा की. लेकिन इन दौरों को सुनियोजित किया जा सकता है, उनके आधार पर समझौते नहीं किए जा सकते.
हां, इतना जरूर है कि अब तक किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने चीन की इतनी यात्राएं नहीं की हैं. यह बात और है कि इन यात्राओं से क्या हासिल हुआ, इस पर बहस की जा सकती है. क्योंकि हम एक परिवर्तनशील स्थिति में हैं. यह मूल्यांकन भी किया जाएगा कि सरकार की चीन नीति उसकी विदेश नीति की सबसे बड़ी नाकामी है या नहीं.
इस संदर्भ में ध्यान रखा जाना चाहिए कि अगर भारत इस घटनाक्रम से जूझ पाया है तो उसकी वजह उसकी कूटनीति नहीं, हमारे सुरक्षा बलों की क्षमताएं हैं. यहां कूटनीति तो विफल साबित हुई है क्योंकि वह चीन के मंसूबे भांप नहीं पाई.
मोदी जैसे नेता कम ही हैं जिन्होंने पर्सनल को अपना सिग्नेचर बनाया
17वीं शताब्दी के फ्रेंच राजनयिक और लुइस सोलहवें के विशेष दूत फ्रांकोइस द कलिएर ने कभी चेतावनी दी थी कि ‘युवराजों और उनके मंत्रियों के जुनून अक्सर उनके हितों को नियंत्रित करते हैं.’ इसके बाद उन्होंने सलाह दी थी कि इन हितों को बिचौलियों पर छोड़ दिया जाना चाहिए, आज के संदर्भ में अल्पभाषी और कठोर राजनयिकों पर. कूटनीति की विकास यात्रा में इस बात का खास महत्व है.
बेशक, हर नेता का अपना दृष्टिकोण होता है और द्विपक्षीय या बहुपक्षीय संबंधों की दिशा को बदलने की तमन्ना भी, और राजनयिकों को यही सिखाया जाता है कि नेताओं के इरादों और मंशा को किस तरह पढ़ा जाए.
लेकिन नेताओं में भी यह क्षमता होनी चाहिए कि वे जितनी सहजता से अपने रास्ते पर आगे बढ़ें, उतनी सहजता से अपने व्यक्तिगत संबंधों से भी अछूते रहें.
जैसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा और शी जिनपिंग के संवाद का नतीजा जून 2013 में कैलिफोर्निया शिखर वार्ता की अनौपचारिकता में नजर आया लेकिन जल्द ही दोनों कुशलतापूर्वक पूर्वलिखित पाठ पढ़ने लगे. इतिहास ऐसे कितने ही शिखर सम्मेलनों का साक्षी रहा है, कुछ अत्यंत सफल रहे तो कुछ बुरी तरह विफल भी.
ऐसे नेता कम ही हैं जिन्होने ‘अनौपचारिकता’ या ‘पर्सनल’ को अपनी विशिष्ट शैली बनाया है. मोदी का यह शैली तभी से नजर आ रही है, जबसे उन्होंने प्रधानमंत्री पद संभाला है.
2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने, तभी से लोगों के मन में जोश भी था, और संशय भी. लेकिन किसी को उम्मीद नहीं थी कि विश्व मंच पर कद्दावर नेताओं से मुलाकात के दौरान मोदी ऐसे अति उत्साह का परिचय देंगे.
मोदी का नेताओं से गलबहियां करना और हाथ मिलाना, भले पुरानी बात हो गई है लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वह किस हद तक व्यक्तिगत रिश्ते बनाने की कोशिश करते रहे हैं. हालांकि यह उनकी उस पुरानी छवि से एकदम उलट है जो उन्होंने अपने मुख्यमंत्री काल के दौरान बनाई थी. जब वह कूटनीतिक या सुरक्षा से जुड़े मसलों पर टिप्पणियां करते थे.
समोसे और खिचड़ी से कूटनीति
जून 2020 की शुरुआत में तिकोने समोसे ने भारत ऑस्ट्रेलिया वर्चुअल शिखर वार्ता में सबका ध्यान आकर्षित किया. यह वार्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के बीच हुई थी. यहां समोसे के रूपक से समझा जा सकता है कि इस वार्ता में चीन के साथ भारत और ऑस्ट्रेलिया के त्रिकोणीय संबंधों के कितने तीखे मसाले डाले गए. यह वार्ता इतनी प्रभावशाली रही कि दोनों देशों ने सात समझौतों पर हस्ताक्षर किए और संयुक्त वक्तव्य जारी किए.
कोविड-19 महामारी के कारण मॉरिसन की भारत यात्रा रद्द जरूर हुई लेकिन उन्होंने भारत के साथ अपने रिश्तों में गर्मजोशी दिखाने के लिए एक दिलचस्प तस्वीर पोस्ट की. इस फोटो में उनके हाथ में घर के बने समोसों की प्लेट है जिसमें आम की चटनी भी है, और वह कह रहे हैं कि ‘इस लजीज नाश्ते को उन्होंने खुद अपने हाथों से बनाया है, जिसे वह ऑल मेड फ्रॉम स्क्रैच कह रहे हैं, यानी उन्होंने इसे बनाने का सारा काम खुद ही किया है.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, दोनों नेताओं की वर्चुअल वार्ता में इस बात पर भी चर्चा हुई है कि मॉरिसन अगली बैठक तक गुजराती खिचड़ी बनाना जरूर सीख लेंगे. दोनों नेताओं के बीच कुछ ऐसी खिचड़ी पकी कि प्रधानमंत्री गदगद दिखे. उन्होंने प्रफुल्लित होकर कहा- मॉरिसन और उनके बीच समोसा वार्ता हुई. गुजराती लोग भी प्रसन्न हो सकते हैं कि मॉरिसन उनकी खास खिचड़ी के रसिया हो गए.
स्पष्ट है, मॉरिसन ने भली भांति जान लिया है कि मोदी में व्यक्तिगत कूटनीति के प्रति अनुराग है- इसीलिए उन्हें इसी के जरिए लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. इस तरह ऑस्ट्रेलिया त्रिपक्षीय एक्सरसाइज मालाबार का हिस्सा बन सकता है और भारत को चीन की बढ़ती हिम्मत का जवाब देने के लिए एक नया मित्र मिल रहा है.
कूटनीति में संतुलन कायम करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए
कहा जाता है कि एक आदमी के दिल तक पहुंचने का रास्ता उसके पेट से होकर गुजरता है. मॉरिसन ने इस बात को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया और समोसे को इसका जरिया बनाया. वर्चुअली ही सही, उन्होंने व्यक्तिगत कूटनीति की क्षुधा को शांत करने के लिए इस चटपटे व्यंजन का सहारा लिया. टेबल पर समोसे की प्लेट सजाई. इरादा था, मोदी ऑस्ट्रेलिया के साथ गहरे संबंध बनाएंगे और इस बीच चीन के साथ उसकी तनातनी का भी ध्यान रखेंगे.
यूं मॉरिसन वह पहले व्यक्ति नहीं जिन्होंने कूटनीति की औपचारिक दुनिया में अनौपचारिक होने की कोशिश की. हां, इस दौरान संतुलन बनाने पर खास ध्यान दिया जाना चाहिए. यह राजनयिक विमर्श का जरूरी नियम है जिसे बरकरार रखा जाना चाहिए. किसी नेता का स्वभाव उसकी विशिष्टता नहीं बन जाना चाहिए.
भारत-चीन सीमा विवाद की बात करें तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पूर्वी लद्दाख क्षेत्र, खास तौर से वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के दोनों तरफ की स्थिति, व्यक्तिगत कूटनीति की हद को दर्शाती है.
इस पर क्या बहस हो सकती है कि मानचित्र को खेल का मैदान बनाने के इरादे से जब विदेश यात्रा का लुत्फ उठाया जाएगा तो कूटनीतिक प्राथमिकताएं पीछे छूट जाएंगी. विश्व के विभिन्न देशों के सफर में यह ख्वाहिश साफ तौर से देखी जा सकती है जिसकी योजना वरीयता के आधार पर कभी नहीं बनाई गई.
चीन जैसे देश और शी जैसे नेता जानते हैं कि जनादेश को कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है. अधिकतर स्थितियों में विदेश नीति को बनाने या उसे आगे बढ़ाने के दौरान घरेलू मतदाताओं को भी ध्यान में रखा जाता है.
बीजेपी ने भी बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि प्रधानमंत्री ने ‘भारतीय पासपोर्ट की ताकत में इजाफा किया है’ और ‘दुनिया भर में भारतीयों को सम्मान दिलाया है’. हालांकि यह व्यक्तिनिष्ठ मापदंड हैं लेकिन इसी के जरिए लोगों के भोलेपन से खिलवाड़ किया गया है. इसका बहुत बड़ा श्रेय पब्लिसिटी मशीनरी और मीडिया के एक बड़े तबके को दिया जा सकता है.
इसके विपरीत मोदी ने दो आम चुनावों में जो अपार जनादेश हासिल किया है, इससे कई देश बहुत प्रभावित हैं और वे मोदी की रुचि के अनुसार दांव चल रहे हैं.
लेकिन जहां तक चीन और उसके नेता शी की बात है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि जनादेश को कैसे सुरक्षित रखा जाता है. नतीजतन वे भारत और उससे जुड़े मसलों पर प्रतिक्रिया देते वक्त दूसरी बातों पर भी ध्यान देते हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं कि उलझे रिश्तों को सुलझाने के लिए व्यक्तिगत संबंध बहुत काम आते हैं. लेकिन यह समझना कहां की बुद्धिमानी है कि नदी नारे झूला झूलने से अतीत की खटास दूर हो सकती है. खास तौर, जब नजरिए इतने जुदा हों. यह कूटनीतिक विशेषज्ञों के अथक प्रयासों का विकल्प तो बिल्कुल नहीं हो सकता. इस बात को अब पहले से भी अधिक समझे जाने की जरूरत है.
(लेखक दिल्ली स्थित लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘डेमोलिशन: इंडिया एट द क्रॉसरोड्स’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ जैसी किताबें लिखी हैं. उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है.)
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