भारत-चीन संकट पर सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान से भूचाल आ गया है. भारतीय इलाके में चीनी घुसपैठ को नजरअंदाज कर – मोदी के राजनीतिक विरोधियों के मुताबिक – भारत ने प्रभावी रूप से पूर्वी लद्दाख में चीन के दावों के सामने हाथ खड़े कर दिए हैं. विरोधियों में जो थोड़े शिक्षित हैं उन्होंने मोदी की कार्रवाई की तुलना द्वितीय विश्व-युद्ध से पहले पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन द्वारा हिटलर की तुष्टीकरण से की है.
मोदी ने अपने बयान में सैन्य कार्रवाई के विकल्प को खारिज नहीं किया
पीएम के बयान के खिलाफ रोष, नैतिक और राजनीतिक तौर पर भले जायज लगता हो, लेकिन यह दो बड़ी वजहों से गैरजरूरी लगता है. पहला, लोग जो मायने लगा रहे हैं, उससे विपरीत, उनके बयान में सैन्य कार्रवाई के विकल्प को खत्म करने की कोई बात नहीं थी. दूसरा, जहां पूर्वी लद्दाख के मौजूदा हालात से निपटने के लिए ताकत का इस्तेमाल एक मात्र विकल्प, हालांकि बेहद खौफनाक, दिखता है, आने वाले समय में, भारत के सामने मौजूद विकल्प और साफ हो जाएंगे.
पीएम के बयान के बाद उनके दफ्तर की तरफ से आए स्पष्टीकरण – जिसमें कहा किया गया है वो गलवान घाटी में 15 जून के संघर्ष के बाद के हालात की बात कर रहे थे – से तस्वीर थोड़ी साफ हो गई.
हालांकि, कोई भी पूर्वी लद्दाख के दूसरे इलाकों में हुई घुसपैठ के मसले पर बोलने को तैयार नहीं दिखा, जिसमें पेंगॉन्ग लेक का वो विवादित इलाका भी शामिल है जहां चीन की सेना (PLA) प्रभावी तौर पर भारतीय मान्यता वाले Line of Actual Control के अंदर घुस आई है.
इससे लगता है कि जनता की उम्मीदों और उचित कार्रवाई की योजना के बीच बेहद सावधानी से बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की जा रही है.
भारतीय सैन्य कार्रवाई को लेकर हमें ये जरूर समझना चाहिए कि ‘जवाबी हमले के लिए चकमा देना जरूरी होता है’
चलिए इन दोनों अहम बातों को तथ्यों के आधार पर समझने की कोशिश करते हैं. फर्ज कीजिए कि पीएम मोदी ने ये मान लिया है कि चीन की सेना भारत के उस इलाके में घुस आई जिसे हमेशा से हम अपना मानते थे, चाहे वो अभी की बात हो या फिर पहले की बात हो. इससे इतना तो तय है कि सरकार पर इस बात का भयंकर दबाव है कि वो जल्द कार्रवाई करे. (खास तौर पर तब जब 15 जून के संघर्ष के बाद चीन ने पूरे गलवान वैली पर अपना दावा ठोक दिया है – जो कि एक नया दावा है – अब इस पर कार्रवाई का मतलब होगा सैन्य ताकत का इस्तेमाल कर चीन की सेना को पीछे धकेलना.)
ये संकट पिछले तीन महीने से जारी है, यानी मुमकिन है PLA ने वहां अपनी जमीनी ताकत मजबूत कर ली है, और सेना की पीछे की भी शक्ति बढ़ा ली हो, जिससे इतना तो साफ है कि भारतीय सेना के लिए यहां पर चीन की तैयारियों को लेकर हैरानी जैसी कोई बात नहीं है.
इसलिए, अब कोई भी सैन्य कार्रवाई ऐसी तैयारी के साथ होनी चाहिए जिसमें कुछ हासिल करने की संभावना हो. कामयाब हमले के लिए चकमा देना जरूरी होती है, हमलावर को अपनी मंशा छिपानी होती है.
अपनी मंशा को छिपाने के लिए, भारतीय पैदल सेना को फिर से व्यूह तैयार करना होगा, जिसमें हमले के लिए भारी तोप और हथियार तैनात करने होंगे. हवाई और समुद्री सैन्य संसाधनों को भी रक्षा के लिहाज से नए तरीके से तैनात करना होगा.
इन सबके लिए वक्त जरूरी है, हो सकता है इसलिए प्रधानमंत्री ने सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता को दरकिनार कर तैयारी के लिए जरूरी वक्त हासिल कर लिया है.
यहां दिमाग में एक और बात रखनी जरूरी है कि अगर चीन LAC पर अपने हथियारों की तैनाती बरकरार रखता है और उसकी सेना विवादित इलाकों में मौजूद रहती है, सीमा पर खतरे को देखते हुए भारतीय सेना की सैन्य कार्रवाई भी जायज साबित हो जाएगी.
बीजेपी कभी भी सैनिकों को नाराज नहीं कर सकती, वो पार्टी के समर्थक माने जाते हैं
चीन के तुष्टिकरण की बात एक तरफ रख दें, तो चुनावी गणित के हिसाब से भी LAC पर भारतीय सैन्य कार्रवाई की संभावना कम नहीं होती. 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी को सेना का – खास तौर पर चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत का – भरपूर समर्थन हासिल है.
LAC पर जो हुआ (विशेष तौर पर 15 जून के संघर्ष के बाद) उससे सेना और उनके परिवार वालों में मौजूद आक्रोश को देखकर, ऐसा नहीं लगता है कि बीजेपी – खास कर मुख्य राज्यों में इस साल और अगले साल होने वाले चुनावों को देखते हुए - अपने समर्थकों के अहम हिस्से को नाराज करेगी.
जैसे कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले हुआ, सैन्य कार्रवाई से होने वाला चुनावी फायदा मोदी के राजनीतिक फैसलों पर जरूर हावी होगा. अब तो इसकी जरूरत और ज्यादा होगी जब महामारी के बीच प्रवासी मजदूरों के साथ हुए बर्ताव और इसके आर्थिक असर को लेकर सरकार को भारी आलोचना झेलनी पड़ रही है.
चीनी सेना को ताकत के बल पर पीछे धकेलने के विकल्प में फायदा-नुकसान का हिसाब किताब जरूरी
अगर प्रधानमंत्री का भाषण और इस संकट की जमीनी हकीकत पर सरकार का दोहरा रुख एक सोची समझी रणनीति है तो क्या बीजिंग को चकमा दिया जा सकता है?
मान लें ये मुमकिन नहीं है, तो भी हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी सैन्य कार्रवाई के लिए, अभी या बाद में, हमें बड़ी कीमत चुकानी होगी, जिसमें LAC पर तनाव और बढ़ सकता है और जानें जा सकती हैं.
इसलिए, चीन की सेना को खदेड़ने का विकल्प चुनने से पहले इससे जुड़े फायदा-नुकसान का पूरी सावधानी से लेखा-जोखा करना होगा, साथ ही पर्याप्त वॉर-वेस्टेज का भंडार तैयार रखना होगा. गौर से देखा जाए तो इस संकट ने भारत को अपनी युद्ध क्षमता का आकलन करने के लिए मजबूर कर दिया है, जिससे पता चल सकेगा कि भारतीय सेना के पास दुश्मन को डराने की कितनी ताकत मौजूद है.
सीमा-संघर्ष: भारत के पास क्या विकल्प हैं?
LAC के दूसरे सेक्टर में बदले की कार्रवाई के तहत हमला करने का विकल्प खत्म हो चुका है.
यह मान लेना वाजिब होगा कि चीन ने इस संभावना की आशंका को देखते हुए पहले ही दूसरे इलाकों में अपनी मुस्तैदी मजबूत कर ली होगी. अगर ऐसा नहीं भी हो तो भी सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में होने वाली भारी बारिश के बीच बदले की कार्रवाई के तौर पर चीन की जमीन पर कब्जा कर उसे लद्दाख में पुरानी स्थिति बहाल करने को मजबूर करना मुमकिन नहीं होगा.
भारत के पास जो बचे हुए विकल्प हैं, पूरी तरह साफ हैं: या तो ये जानते हुए भी चीन के साथ बातचीत जारी रखी जाए कि सैन्य-ताकत में हमारी स्थिति कमजोर है, या फिर ताकत का इस्तेमाल कर युद्ध का खतरा मोल लें, चाहे वो शुरुआत में कितना भी छोटा क्यों ना हो.
कुछ लोगों को लगता है कि पिछले कुछ महीनों में चीन द्वारा कब्जा की गई जमीन को खाली कराने के लिए भारत के पास आर्थिक हथियार मौजूद हैं, लेकिन हकीकत तो ये है कि नई दिल्ली के पास इस मामले में कोई खास विकल्प मौजूद नहीं है. – जैसे कि चीन से भारत आयात किए जाने वाले सामानों पर कर बढ़ा देना (जो कि चीन के कुल आयात का महज 3 फीसदी है), या चीनी कंपनियों को 5G ट्रायल की इजाजत नहीं देना.
सच तो ये है कि जहां तक आर्थिक व्यवस्था और कारोबार की बात है, पिछले कुछ सालों में चीन या चीन की कंपनियों के मुकाबले भारत उन पर ज्यादा निर्भर रहा है.
दुश्मन की ऐसी किसी कार्रवाई को भारत भविष्य में कैसे रोक पाएगा?
LAC पर चीन ने जैसी हरकत की उसे भविष्य में रोकने के लिए क्या किया जा सकता है? दुश्मन के अंदर डर ताकत के इस्तेमाल से ही संभव है, और इसके लिए या तो दुश्मन को हर हाल में किसी तरह की बढ़त से रोका जाए, या उसे ऐसी भयंकर सजा दी जाए कि वो भविष्य में ऐसी हरकत करने से बचे. पहले कदम में देश के भू-भाग की रक्षा के लिए जरूरी है कि भारी मात्रा में निवेश किया जाए, दूसरे कदम के लिए जरूरी है कि दुश्मन के जेहन में युद्ध के खतरे का डर बैठा दिया जाए.
जब भू-भाग से जुड़ा दांव छोटा हो, जैसे कि ताजा मामले में नजर आता है, तो इसमें शामिल लागत – खास तौर पर दांव को बढ़ाने के लिए – मौजूदा कूटनीतिक उद्धेश्य के हिसाब से असंगत दिखता है, क्योंकि फिलहाल कोशिश ये की जा रही है कि इस संकट से बाहर कैसे निकला जाए. हालांकि ऐसी गणना से दुश्मन का हौसला बढ़ सकता है और वो भविष्य में दोबारा ऐसा करने की कोशिश कर सकता है.
वक्त आ गया है कि नई दिल्ली में बैठे रणनीतिकार इस अप्रिय सच का रचनात्मक तरीके से सामना करें.
(Abhijnan Rej नई दिल्ली स्थित रक्षा विश्लेषक है. उन्हें @AbhijnanRej पर ट्वीट किया जा सकता है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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