सियाचिन ग्लेशियर में अपने कार्यकाल के बाद में मैं 1995 में पूर्वी लद्दाख के दरबुक के पास तंगसे में गढ़वाल राइफल्स को कमांड कर रहा था. मेरी टुकड़ी पैंगोंग त्सो के शुरुआती बिंदु लुकुंग और और चुरशुल में तैनात थी. सर्दियां उतरने के बाद अप्रैल 1996 में मुझे एक जरूरी काम के लिए लेह जाना था. बर्फीले पहाड़ के गिरने की चेतावनी और भारी बर्फबारी की वजह से पूर्वी लद्दाख के प्रवेश द्वार चांग ला को बंद कर दिया गया था. इसलिए मैंने ड्राइव करके चुरशुल और दुंगती होते हुए, फिर इंडस हाईवे पकड़कर लेह जाने का जोखिम उठाया. वैसे उन परिस्थितियों में इसे कोई भी मूर्खतापूर्ण और जोखिम भरा साहस कह सकता है.
यह पूरी यात्रा खुले मैदान में थी और लगभग 14,000 फीट की ऊंचाई पर. हां, रेजांग ला बैटलफील्ड के पास त्साका ला वाला हिस्सा करीब 15,200 फीट का था.
एक सिंगल निसान जोंगा में मुझे चुरशुल पहुंचने में करीब छह घंटे लगे थे. वैसे इस रास्ते में रास्ते जैसा कुछ नहीं था. वहां चारों तरफ सिर्फ बर्फ ही बर्फ थी.
दरअसल, लद्दाख स्काउट का एक जवान मेरी मदद कर रहा था. उसके पास रास्ता खोजने की विलक्षण कुशलता थी और वह पूरे रास्ते जरा भी गुमराह नहीं हुआ. इससे मुझे जिंदगी का एक बड़ा सबक मिला कि लद्दाख में सर्दियों के मौसम में बेफिजूल बहादुरी दिखाने की भूल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जैसा कि वहां कहा जाता है, लामा की भूमि में गामा बनने की जरूरत नहीं है (गामा पहलवान को भारत में अपनी बहादुरी के लिए जाना जाता है). बहादुरी आप कभी भी दिखा सकते हैं, अगर आपको जान-माल का जोखिम उठाने की इच्छा है. तो, इस आपबीती का निचोड़ यह है कि जोखिम मत उठाएं, लेकिन जोखिम से अपना मुंह भी न मोड़ें.
किसी भी आशंका के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए
अब इसे आज के लद्दाख के हालात की जगह रखकर देखें. सर्दियां आने में अभी लगभग छह हफ्ते का समय है. अधिकतर कूटनीतिज्ञों जिन्हें शायद पूर्वी लद्दाख का कोई अनुभव नहीं है, यह अनुमान लगा रहे हैं कि एक बार भारी बर्फबारी हो जाए तो वहां कोई ऑपरेशन मुमकिन नहीं है. ऐसे हालात में भारतीय सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को बंकर में दुबकना होगा. मैंने भी यही सोचा था, जब मैंने चुंगशुल और दुंगती के बीच एक तरह से सुसाइडल ड्राइव की थी.
लेकिन सैन्य-कूटनीतिक बातचीत के बावजूद किसी भी आशंका के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.
पीएलए के पास वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के इर्द-गिर्द लंबे समय तक परंपरागत स्तर पर मोर्चा संभालने की ताकत नहीं है, लेकिन वह सर्दियों के कुहासे में कुछ फ्रिक्शन प्वाइंट्स पर बड़े पैमाने पर बिल्ड अप कर सकती है, और संघर्ष के अलावा ठंड की वजह से भी लोगों के हताहत होने की आशंका जताई जा सकती है.
इस इलाके में आवाजाही की रफ्तार धीमी है और सैन्य दस्ते पर हमला करने की युद्धक श्रेष्ठता अधिक होनी चाहिए- जिसकी वजह यह है कि यहां कवर नहीं मिलता, आर्टिलरी का बहुत अधिक असर नहीं होता और हवाई ताकत का इस्तेमाल करीब-करीब नहीं किया जा सकता. यहां प्रतिरक्षक यानी डिफेंडर विजेता साबित होता है और कई बार अप्रत्याशित घटनाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.
क्या भारतीय सेना बहुत अधिक ठंड को बर्दाश्त कर सकती है?
सियाचिन ग्लेशियर में सालतोरो रेंज के साथ-साथ कई शिखरों पर छोटे सैन्य दस्ते तैनात किए जाते हैं. वहां आवाजाही के रास्ते कम हैं और उन्हें फायरिंग से कवर करना आसान होता है. अगर इनसे लोहा लेना है तो एक दिलेर कोशिश यह की जा सकती है कि रस्सियों के सहारे ढलानों पर चढ़ा जाए. जैसे 1987 में सूबेदार मेजर और मानद कैप्टन बाना सिंह पीवीसी और उनके बहादुर साथियों ने पाकिस्तान की कायद पोस्ट को इसी तरह फतह किया था. लेकिन चुरशुल और दूसरे कई इलाकों में वैसी चोटियां नहीं हैं, इसलिए वहां ऑपरेशन चलाना उतना मुश्किल नहीं है, वहां रस्सियों की जरूरत नहीं पड़ती और हिमस्खलन भी कम होता है, खास तौर से पीएलए की टुकड़ियों की तैनाती वाली जगहों पर.
कश्मीर और कारगिल से अलग, पूर्वी लद्दाख में हिमस्खलन के हादसे कम होते हैं.
स्नो एंड एवलांच स्टडी स्टैबलिशमेंट (एसएएसई) की चेतावनियां भी कम आती हैं. इसलिए इन इलाकों में हर समय आवाजाही संभव है, बनिस्बत उन इलाकों में जहां बर्फीले पहाड़ों के टूटकर गिरने की ज्यादा उम्मीद होती है. वहां सुबह दस बजे के बाद आवाजाही को ऐसा माना जाता है, मानो आप खुदकुशी करने की मर्जी रखते हैं.
भारतीय सेना सर्दियों में कैसे काम करती है और क्या वह बर्फीले इलाकों में दुश्मन से दो-दो हाथ कर सकती है?
बेशक, भारतीय सेना की कई इन्फेंटरी यूनिट्स सियाचिन ग्लेशियर में, या सब सेक्टर नॉर्थ (एसएसएन) और सब सेक्टर हनीफ (एसएसएच) में तैनात रही हैं. इसके अलावा वे कारगिल, कश्मीर और चीन के साथ लगी उत्तरी सीमा में डटी रही हैं. मैंने यह देखा है कि मैदानी इलाकों के कई दस्तों, जाट और मराठा रेजिमेंट के जवानों में जबरदस्त ठंड को बर्दाश्त करने की अद्भुत क्षमता है और उनकी लड़ने की ताकत भी कमजोर नहीं पड़ती.
चीनी सेना सर्दियों में दिलेरी के लिए तैयार होगी
माना जाता है कि पीएलए में रूंगरूटों को जबरदस्ती रखा जाता है, और उनमें से कई शॉर्ट टर्म के लिए भर्ती किए जाते हैं. उन्हें ऐसा लंबा-चौड़ा प्रशिक्षण भी नहीं दिया जाता, जैसा भारतीय सेना की टुकड़ियों को मिलता है. लेकिन इससे उलट एक और सच्चाई है. 1962 में जसवंतगढ़ (नेफा) में पीएलए के साथ लड़ाई में शामिल और युद्ध बंदी बनाए गए 4 गढ़वाल राइफल्स के कुछ पूर्व सैनिकों ने मुझे बताया था कि उस वक्त पीएलए के सैनिकों की सर्वाइवेबिलिटी बहुत अधिक थी. उन्हें राशन में क्या दिया जाता था, आप अंदाजा लगा सकते हैं? उन्हें सत्तू मिलता था. हर सैनिक अपने पास सात दिनों का सत्तू का स्टॉक रखता था. हो सकता है कि आधुनिकीकरण के असर ने पीएलए को कुछ कोमल बना दिया हो लेकिन अपने प्रतिद्वंद्वी को कमजोर समझना हमारी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो सकती है.
चूंकि पीएलए जबरदस्त ठंड में भी दिलेरी दिखा सकती है, इसलिए भारतीय सेना को भी लद्दाख और काराकोरम में अपनी सैन्य तैनाती को कम नहीं करना चाहिए.
उसने बड़े पैमाने पर लॉजिस्टिक्स तैनात किए हैं जोकि हमारी मजबूती को कायम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. अपेक्षित स्तर के स्टॉक की कमी हो सकती है और लॉजिस्टिक स्टाफ सर्दियों के बुरे दिनों से भी वाकिफ है (जब हवाई मदद नहीं मिल सकती). फिर भी चिनूक युटिलिटी हेलिकॉप्टर के इंडक्शन का यही मुफीद समय है. इन सर्दियों में इसका कई तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है. ठीक उसी तरह जिस तरह लेह को फिक्स्ड विंग लिफ्ट के लिए सी-17 ग्लोबमास्टर उपलब्ध था.
व्हाइट शॉड ऑप्स भारतीय सेना की बड़ी ताकत है
खुद को गर्म रखने और सुखाने के काम के लिए एक चीज सबसे जरूरी है. वह है मिट्टी का तेल. ऑर्डेनेंस स्टोर्स में स्नो बूट्स, पारका, स्लीपिंग बैग और स्नो टैंट जरूरी होते हैं. दिल्ली में ऐसी खरीद करने वालों को इन चीजों को जत्थे में शामिल करना चाहिए. सिग्नल उपकरणों, जनरेटरों और वाहनों को स्टॉक में रखा जाना चाहिए ताकि परिवहन, बिजली सप्लाई और कम्यूनिकेशन जैसी जरूरतों में कोई कमी न आए. अर्ध स्थायी बसाहट के लिए पूरे देश भर में मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट्स हैं जिन्हें महामारी के असर के कम होने पर नए ऑर्डर मिल सकते हैं. अस्थायी तौर से रहने के लिए फाइबर ग्लास हट्स और मीडियम आर्कटिक टेंट्स भी अच्छे साबित होते हैं.
वैसे सर्दियों में बड़े पैमाने पर सैन्य दस्तों को तैनात करने से सर्दियों में कई किस्म की दुर्घटनाएं होने की आशंका भी रहती है.
सेना के पास समय-समय पर चेतावनियां और सावधानी भरे संदेश देने की भी अच्छी खासी क्षमता है. लेकिन फिर भी उसे इस बात की कोशिश करनी होगी कि 18,000 फीट की ऊंचाई पर बर्फ से अटी सड़कों पर वाहन कम से कम दुर्घटनाग्रस्त हों. इसके अलावा, जब गोला बारूद का टनों जखीरा जमा हो तो आगजनी के हादसों को रोकना भी जरूरी होता है.
व्हाइट शॉड अभियान भारतीय सेना की एक बड़ी ताकत है और अगर पीएलए पाकिस्तानी सेना से सलाह लेगी तो समझ जाएगी कि भारतीय सेना ने सियाचिन में क्या कमाल किए हैं. पाकिस्तान सेना आसानी से पीएलए से कह सकती है कि ‘बर्फीले मौसम में भारतीयों से पंगा मत लो.’
(लेखक भारतीय सेना के 15 कॉर्प्स के पूर्व जीओसी और अब कश्मीर यूनिवर्सिटी के चांसलर हैं. वह @atahasnain53 पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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