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भारत अमेरिका के जितना करीब जाएगा, चीन उतना दूर छिटकेगा

भारत-चीन सीमा पर बढ़ते तनाव को देखते हुए जो विस्फोटक स्थिति पैदा हुई है, वह होना ही था.

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लद्दाख की गलवान घाटी में संघर्ष से हमें चकित नहीं होना चाहिए जिसमें बिहार रेजिमेंट के कर्नल संतोष बाबू और 19 अन्य भारतीय सैनिक शहीद हो गए और चीनी पक्ष को भी नुकसान पहुंचा है, जिसका आकलन नहीं हो पाया है. भारत-चीन सीमा पर बढ़ते तनाव को देखते हुए जो विस्फोटक स्थिति पैदा हुई है, वह होना ही था. सूत्रों के अनुसार चीनी पक्ष को दोगुना नुकसान झेलना पड़ा है.

विडंबना यह है कि हिंसा तब हुई जब तनाव को कम करने की प्रक्रिया चल रही थी.

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भारतीय सेना के बयान में जैसा कि उल्लेख है, “गलवान घाटी में तनाव कम करने की प्रक्रिया के दौरान कल रात (सोमवार, 15 जून) एक हिंसक भिड़ंत हुई जिसमें दोनों पक्षों को नुकसान हुआ है. भारतीय पक्ष से एक अफसर और दो सैनिकों की जान गयी है. दोनों ओर के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी परिस्थिति को इस वक्त सामान्य बनाने के लिए घटनास्थल पर बैठक कर रहे हैं.”

वास्तव में शनिवार, 13 जून को भारतीय सेनाध्यक्ष एमएम नरवाने ने खुद कहा था कि दोनों सेनाएं गलवान घाटी से “चरणबद्ध तरीके से पीछे हट रही हैं” और दोनों पक्षों के बीच सैन्य वार्ताएं “बहुत फलदायी” रही हैं और चीन की सीमा पर स्थिति नियंत्रण में है

भारत-चीन सीमा पर हिंसा : ध्वस्त हुई परस्पर विश्वास निर्माण की प्रक्रिया

विदेश मंत्रालय ने आरोप लगाया है कि यह घटना चीनी सैन्य बल की ओर से “यथास्थिति को एकतरफा बदलने की कोशिश” का नतीजा है. चीनी पक्ष यह समझाते दिखे कि परिस्थिति बिल्कुल उलट है.

अलग-अलग रिपोर्ट बताती हैं कि चीन की ओर बने एक टेंट को हटाने को लेकर झगड़ा हुआ, जिस बारे में उन्होंने पहले से वादा कर रखा था. तत्काल हाथापाई की यही वजह थी.

परिस्थिति हाथ से निकल गयी. लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा या फिर वे घायल हुए और दोनों पक्ष अब समस्या को बढ़ने देने से रोकने की कोशिशों में जुटे हैं. यह नोट करने की बात है कि लोहे की छड़ और पत्थर हालांकि बंदूक और चाकू नहीं होते, लेकिन वे समान रूप से जानलेवा होते हैं. और, यह आश्चर्य की बात है कि हाल के वर्षों में हुई अन्य झड़पों में अब तक कोई मरा नहीं था.

जो बात सबसे अहम है वह यह कि गलवान घाटी में हुई यह घटना 27 सालों से चली आ रही परस्पर विश्वास निर्माण (सीबीएम) की प्रक्रिया के टूट जाने का सबूत है. दोनों पक्ष कोशिश करते रहे थे कि परस्पर स्वीकार्य सीमा पर काम किया जाए और इस दौरान वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति भी बनी रहे.

इससे पहले भी भिड़ंत होती रही थीं. उदाहरण के लिए 1967 में हुई सिक्किम की भिड़ंत में बंदूकों का इस्तेमाल हुआ था जिसमें जानें गयीं थीं. फिर 1987 में समदोरोंग चू घाटी और तवांग के पास अन्य जगहों पर आमने-सामने की लड़ाई हुई थी, लेकिन बगैर किसी शारीरिक मुठभेड़ के उसका अंत हो गया था.

भारत-चीन सीमा पर हिंसा को हम क्यों नजरअंदाज नहीं कर सकते

अलग चश्मे से देखें तो 15 जून 2020 की रात गलवान में हुई घटना को परस्पर विश्वास बनाने (जीबीएम) के दौर की सफलता के रूप में भी देख सकते हैं. जो नुकसान हुआ है वह इसलिए नहीं कि एलएसी पर दोनों पक्षों ने जुटाए गए हथियारों का इस्तेमाल किया. बल्कि यह पत्थरबाजी का नतीजा है. दूसरे नजरिए से देखें तो यह उस हिंसक झड़प का दोहराव है जो 5-6 मई को पैंगोग त्सो में हुई थी जब दोनों ओर के सैनिक लोहे की छड़ें और पत्थर लेकर भिड़ गये थे जिसमें दोनों ओर से कई सैनिक घायल हो गये थे.

एलएसी पर जबरदस्त सैन्य जमाव को देखते हुए हमें परिस्थिति की गंभीरता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. वजह यह है कि पस्पर विश्वास निर्माण की प्रक्रिया (सीबीएम) विफल हो रही है और ऐसे में परिभाषित सीमा के अभाव में दोनों पक्षों के लिए खुद को रोक पाना मुश्किल होगा.

अगर दोनों पक्ष अपने-अपने दावों को बढ़-चढ़कर बताना जारी रखते हैं या नये दावे करते हैं तो हमारे बीच विवाद बड़ा होने के सारे तत्व मौजूद हैं. ऐसे समय में जब कोविड-19 वायरस से दोनों पक्ष लड़ रहे हैं तो किसी भी पक्ष के लिए दूसरे पक्ष को झेल पाना मुश्किल होगा.

बीजिंग सोचता है कि नई दिल्ली और यूएस एक हो जाएंगे तो दिक्कत होगी

यह बहुत साफ है कि चीन गलवान सेक्टर में एलएसी को नये सिरे से तय करना चाहता है. इस इलाके में 1962 के युद्ध के बाद से, जब भारतीय चौकियां हटा दी गयीं थीं या फिर उन्हें पीछे हटना पड़ा था, कोई भिड़ंत नहीं हुई थी. चीन का यहां दोहरा मकसद दिखता है. इनमें एक है डरबक को दौलत बेग ओल्डी से श्योक को जोड़ने वाली सड़क के लिए खतरा उपस्थित करना.

हालांकि, वो जानते हैं कि इससे LAC पर शांति बनाए रखना मुश्किल होगा. और, यहां ऐसा लगता है कि लगातार अमेरिकी खेमे में जाने को लेकर भारत को वह कोई संकेत देना चाहता है.

जब तक भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखता है तब तक वह इसके बदले चीन के ‘अच्छे व्यवहार’ की उम्मीद कर सकता है. लेकिन अगर बीजिंग सोचता है कि नयी दिल्ली ने तय कर लिया है कि वह अमेरिकी खेमे में जाएगा तो फिर परिस्थिति बिल्कुल बदल जाती है.

अभी यह साफ नहीं है कि क्या वास्तव में भारत ने अमेरिका का सैन्य साझीदार बनने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. मोदी सरकार ने कई कदम उठाए हैं जिनमें सेना से सेना के बीच गठबंधन को मजबूत बनाने के लिए तीन से चार आधारभूत समझौतों पर हस्ताक्षर शामिल हैं. मंत्री स्तर पर भी यह संवाद अपग्रेड हुआ है.

लेकिन एलएसी पर व्यापक पैमाने पर हुए नुकसान के बाद अब साउथ ब्लॉक से निर्णय लेने की शुरूआत होगी और यह अच्छी बात नहीं होगी.

भारत को सतर्क रहने और ‘अतिरिक्त नुकसान’ से बचने की जरूरत क्यों

सामान्य समय में परिस्थिति को नियंत्रित किया जा सकता था जैसा कि वास्तव में वुहान और चेन्नई समिट के दौरान हुआ भी था. लेकिन यह सामान्य समय नहीं है.

कोविड-19 ने अमेरिका-चीन के बीच तनाव को काफी बढ़ा दिया है और वाशिंगटन की बयानबाजी का संकेत है कि बीजिंग निशाने पर है. और हम जो भारत-चीन सीमा पर देख रहे हैं यह उसी का नतीजा है.

हमारी कोशिश बड़ी ताकतों के बीच संघर्ष से दूर रहने की होनी चाहिए जिसका हमें नुकसान उठाना पड़ सकता है. लेकिन जितनी बड़ी तादाद में सैनिक मारे गये हैं उससे भारत कार्रवाई को बाध्य हो सकता है जिसके अपने अलग ही नतीजे होंगे.

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