पिछले हफ्ते विदेश मंत्रालय ने सरकार के दूसरे मंत्रालयों और विभागों को एक नोट भेजा, जिसमें लिखा था कि वे उन इवेंट्स में शामिल ना हों, जहां दलाई लामा की मौजूदगी हो. इसमें लिखा था कि भारत और चीन के रिश्ते नाजुक मोड़ पर हैं और हमें चीन को नाराज नहीं करना चाहिए.
चीन नाराज हो या न हो, लेकिन विदेश मंत्रालय के नोट ने कई लोगों को नाराज कर दिया है. उन्हें लग रहा है कि भारत चीन के आगे झुक गया है. उनका मानना है कि शी जिनपिंग की सरकार हमें धमका रही है और हम उससे डर गए हैं.
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एक और सोच यह है कि दोनों देश दुनिया की बड़ी ताकत बनना चाहते हैं. इसलिए भारत और चीन का आपसी रिश्ता बदल गया है. चीन के साथ हमारा रिश्ता वैसा होना चाहिए जैसा कि शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और रूस के बीच था.
चीन में भारत के राजदूत, विदेश सचिव और एनएसए रहे शिवशंकर मेनन ने इस नजरिये का समर्थन किया है. उनका कहना है कि भारत और चीन को 1993 के एग्रीमेंट का पालन करना चाहिए, जिसमें दोनों देशों के बीच एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखने पर सहमति बनी थी.
अगर भारत और चीन के संबंध में बदलाव आ चुका है, तो पहले वाला तौर-तरीका कैसे चलेगा? इसे ऐसे समझिए, अगर आपका कुत्ता पागल हो जाता है, तो उसके साथ पागल होने से पहले जैसे सलूक कैसे किया जा सकता है? अगर आपका कुत्ता नहीं, बल्कि पड़ोसी पागल हो गया हो, तब आप क्या करेंगे?
शी जिनपिंग के साथ हम इसी समस्या का सामना कर रहे हैं. सत्ता में बने रहने की उनकी भूख से पता चलता है कि वह आत्ममुग्ध नेता हैं. वह नेपोलियन, हिटलर, सद्दाम हुसैन, जिया-उल-हक जैसे लीडर हैं. ऐसे लोगों के साथ तीन दिक्कतें होती हैं.
- पहला, उन्हें यह लगता है कि वो जो कहते हैं, वही सही है.
- दूसरा, दुनिया उन्हें मिटाने की कोशिश कर रही है.
- तीसरा, एग्रेशन सबसे सही रास्ता है.
हर किसी को लगता है कि उसकी सोच सही है, लेकिन जब इस सोच के साथ कोई इंसान असुरक्षा की भावना का शिकार हो और उसे एग्रेशन हर मर्ज की दवा लगती हो, तो इससे युद्ध की नौबत आती है.
शी जिनपिंग के साथ हमें इस दिक्कत का सामना करना होगा. अगर उन्हें लगता है कि चीन को किसी चीज की जरूरत है, तो वह उसके लिए ताकत का इस्तेमाल कर सकते हैं. कहने का मतलब यह है कि एक तरफ सीमा पर हमें एक पागल से जूझना होगा, जो हिंसा का इस्तेमाल कर सकता है, तो दूसरी ओर पाकिस्तान सेना से, जो मूर्खों की फौज है.
चीन और पाकिस्तान दोनों के पास मजबूत सैन्य ताकत है. दोनों देशों का शासन सेना के हाथों में है. चीन में भी सेना के सपोर्ट के बिना किसी लीडर का वजूद नहीं हो सकता. चीन और पाकिस्तान दोनों की नजर भारतीय क्षेत्रों पर है. दोनों के पास परमाणु हथियार हैं. उनमें से एक कह चुका है कि जरूरत पड़ने पर वह परमाणु हथियार का पहले इस्तेमाल करने से नहीं हिचकेगा.
चीन की परमाणु हथियार पर कोई पॉलिसी नहीं है, जबकि भारत ने इस पर नो फर्स्ट यूज पॉलिसी अपनाई हुई है. चीन ने इस मामले में अपने ऑप्शंस खुले रखे हैं. इसका मतलब यह है कि वह परमाणु हथियार का इस्तेमाल पहले भी कर सकता है. भारत को चीन और पाकिस्तान की गैर-जिम्मेदाराना लीडरशिप से जूझना होगा.
मार्क्सवादी कहते थे कि किसी भी घटना के पीछे ऐतिहासिक ताकतें होती हैं. हालांकि, यह बात सिर्फ छोटी घटनाओं पर लागू होती है. बड़ी घटनाओं की वजह सत्ता पर काबिज शख्सियतें होती हैं. यह बात खासतौर पर युद्ध के बारे में सही है. वॉर हमेशा ऐसे नेताओं की वजह से हुई है, जो अपने सिवाय किसी और की नहीं सुनते थे. मुझे लगता है कि शी जिनपिंग भी ऐसे ही शख्स हैं. वह दुनिया और चीन को बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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