ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी राजदूत की नियुक्ति राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला बन जाए, लेकिन सीनेट द्वारा भारत में अमेरिकी राजदूत के पद पर एरिक गार्सेटी (Eric Garcetti) की नियुक्ति को मंजूरी देने में यही हुआ.
आरोपों और तकरीबन दो साल चली उलझाऊ प्रक्रिया के बाद सीनेटरों ने बहुमत से, जिनमें कुछ रिपब्लिकन भी शामिल थे, गार्सेटी के पक्ष में वोट दिया क्योंकि उन्हें नई दिल्ली में राजदूत नियुक्त करना ज्यादा जरूरी था. उन पर आरोप है कि लॉस एंजिल्स का मेयर (Mayor of Los Angeles) रहते हुए अपने ही चीफ ऑफ स्टाफ द्वारा अपने ऑफिस में कथित तौर पर किए जा रहे यौन उत्पीड़न (sexual harassment) को रोकने में नाकाम रहे थे.
आरोपों और तकरीबन दो साल चली जांच के बाद ज्यादातर सीनेटरों, जिनमें कुछ रिपब्लिकन भी शामिल हैं, ने गार्सेटी की भारत में अमेरिकी राजदूत के तौर पर नियुक्ति के पक्ष में वोट दिया.
उन पर आरोप है कि वह अपने ऑफिस में अपने ही चीफ ऑफ स्टाफ द्वारा किए जा रहे यौन उत्पीड़न को रोकने में नाकाम रहे.
एक अमेरिकी सीनेटर ने चीन से निपटने के लिए हिंद-प्रशांत (Indo-Pacific) क्षेत्र में अमेरिका के साथ मिलकर काम करने के वास्ते भारत से करीबी बढ़ाने के लिए ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला दिया.
गार्सेटी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में बाइडेन के शुरुआती समय से सपोर्टर रहे हैं और उनके 2020 के अभियान में उस भी साथ थे जब उनके राष्ट्रपति बन पाने की संभावनाएं कमजोर दिख रही थीं.
इस हफ्ते यह भी पता चला है कि गार्सेटी ने कथित तौर पर चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी (Chinese Communist Party) से जुड़े लोगों से चंदा लिया था.
विवादों से बड़ी है राष्ट्रीय सुरक्षा
रिपब्लिकन सीनेटर टॉड यंग ने कहा, “चीन को बैलेंस करने और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के साथ काम करने के लिए भारत में जल्द एक राजदूत रखना हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा हित में है. उनकी काबिलियत बेदाग नहीं है, लेकिन उनके पास अपनी जिम्मेदारी में कामयाब होने का हुनर है."
यह गार्सेटी की नामांकन से लेकर नियुक्ति की पुष्टि तक के तकलीफदेह सफर की बानगी है जो बुधवार को मतदान तक पक्का नहीं था.
किसी पार्टी ने उनके नामांकन का समर्थन या उनके विरोध में वोट डालने के लिए व्हिप जारी नहीं किया. सीनेटरों को “अंतरात्मा की आवाज” पर वोट देने के लिए आजाद छोड़ दिया गया था.
लंबी प्रक्रिया के दौरान कई पूर्व कर्मचारियों के बयान सामने आए कि रिक जैकब्स (Rick Jacobs) ने सहकर्मियों का सैक्सुअल हैरेसमेंट किया है और कम से कम एक तस्वीर साफ दिखाती है कि गार्सेटी की मौजूदगी में गलत चीजें हो रही थीं. इसके बावजूद गार्सेटी ने कहा कि वह इस बात से अनजान थे कि उनके वरिष्ठ सहयोगी और लंबे समय तक सलाहकार रहे रिक जैकब्स अपनी सहकर्मियों का सैक्सुअल हैरेसमेंट कर रहे थे. जाहिर है कि सीनेट द्वारा उनकी नियुक्ति की मंजूरी की विक्टिम्स द्वारा निंदा की जानी थी. उनकी तकलीफ देशों की राजनीति और चीन को बैलेंस करने से बहुत अलग है.
ऐसा कहना कि गार्सेटी के नामांकन का खासतौर से महिलाएं विरोध कर रही थीं, बात को हल्के में लेना है. यही वजह है कि यह मुद्दा बना और मंजूरी में समय लगा. लेकिन अंत में कई लोगों ने बिना ‘वोट की कैफियत’ (without an explanation of vote) के उन्हें वोट दिया.
नतीजा 52-42 से तय हुआ जिसमें गार्सेटी को आसान जीत दिलाने में सात रिपब्लिकन का ‘सहमति’ का वोट भी शामिल था. मुद्दा पार्टी-लाइन से ऊपर भारत का महत्व था.
राष्ट्रपति जो बाइडेन (President Joe Biden) या तो गार्सेटी को बहुत ज्यादा पसंद करते हैं या हो सकता है कि वह पूर्व-मेयर के भारी राजनीतिक एहसान तले दबे हैं, या थोड़ा-थोड़ा दोनों वजहें हैं. भारतीय विदेश विभाग के हल्कों में राजनयिकों के बीच एक पुरानी कहावत के अनुसार ऐसे राजदूत को पसंद किया जाता है जो राष्ट्रपति का “कान” है.
उनका मानना है कि गार्सेटी के मामले में भी ऐसा ही है. यह तो समय ही बताएगा कि बाइडेन के बाकी बचे दो साल से कम के कार्यकाल में वह कितना कुछ हासिल कर पाते हैं. इसके अलावा अगले साल दोनों देशों में उपचुनाव होने वाले हैं.
गार्सेटी की नियुक्ति में #MeToo का दखल और भारत की कूटनीतिक प्रतिक्रिया
भारत के विदेश मंत्रालय ने बेहद संतुलित अनुशासन का प्रदर्शन किया और गार्सेटी पर इशारों में भी कोई टिप्पणी नहीं की और भारतीय मीडिया ने भी ऐसा ही किया. ऐसा लगता है कि बहुत कम लोग उनके अतीत की गहराई में उतरना चाहते थे या इस बड़े पद के लिए उनकी काबिलियत पर सवाल उठाना चाहते थे. हर तरफ खामोशी का अनुशीलन था.
बाइडेन ने गार्सेटी के खिलाफ “भरोसेमंद” सबूत और गवाहियों की अनदेखी करते हुए रास्ता साफ किया. ये निश्चित रूप से बैकग्राउंड की जांच के दौरान सामने आए होंगे.
डेमोक्रेट्स कहते है कि वे सिद्धांतवादी लोग हैं लेकिन गार्सेटी के पक्ष में वोट से पता चलता है कि अति प्रगतिशील डेमोक्रेट्स— सीनेटर एलिजाबेथ वॉरेन और कर्स्टन गिलिब्रैंड— भी पार्टी लाइन के साथ वोट करती हैं और सिद्धांतों को किनारे धर देती हैं.
क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि गार्सेटी को लेकर विरोध #MeToo अभियान की तरह जन आंदोलन नहीं बन सका और उन्हें पता था कि जमीनी स्तर पर कभी राजनीतिक रूप से उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाएगा? केवल एक महिला डेमोक्रेट सीनेटर हवाई की माजी हिरोनो (Mazie Hirono) और दो दूसरी डेमोक्रेट्स ने गार्सेटी की नियुक्ति के खिलाफ मतदान किया.
गार्सेटी की एक पूर्व कम्युनिकेशन डायरेक्टर और नदियों सीनेटरों के सामने मामला उठाने वाली पीड़िता नाओमी सेलिगमैन (Naomi Seligman) पूर्व मेयर को “enabler” (हर काम मुमकिन बनाने वाला) कहती हैं. उनका कहना है कि एक राजदूत के रूप में गार्सेटी की नियुक्ति न केवल उनके लिए बल्कि “उन तमाम महिलाओं के लिए दिल तोड़ने वाली” है जो यौन उत्पीड़न और एब्यूज से गुजर रही हैं और देख रही हैं कि अगर वो किसी के खिलाफ मुंह खोलती हैं तो हमारे राजनेता उन्हें किस तरह बचाते हैं.
उन्होंने मुझसे कहा, “यह #Metoo आंदोलन को दो दलों के कथित समर्थन” का मजाक बनाना है. सीनेटर राजनीतिक हित के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकते. “एब्यूज करने वाले सिर्फ तभी ऐसा कर सकते हैं, अगर सत्ता उनका साथ देती है.”
कथित चाईनीज लिंक के बावजूद बाइडेन ने गार्सेटी का साथ दिया
इन आरोपों के अलावा कि उन्होंने अपने ऑफिस में यौन उत्पीड़न को नजरअंदाज किया, इस हफ्ते यह पर्दाफाश हुआ कि गार्सेटी ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लोगों से कथित रूप से चंदा लिया, जो कि वाशिंगटन में इन दिनों सबसे बड़ा पाप है. लेकिन यह खबर कोई नुकसान पहुंचा पाने के नजरिये से बहुत देर से आई.
एक दक्षिणपंथी न्यूज वेबसाइट डेली कॉलर (Daily Caller) के ने बताया कि उन्होंने चीन के यूनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट के लिए काम करने वाले कथित फ्रंट ग्रुप्स की तरफ से आयोजित कार्यक्रमों में हिस्सा लिया, जो दुनिया भर में इन्फ्लुएंस ऑपरेशंस चलाने के लिए जाने जाते हैं.
हकीकत यह है कि व्हाइट हाउस के लिए किसी बात का कोई मतलब नहीं था. जुलाई 2021 में गार्सेटी के नामांकन के बाद पेच फंस जाने और नवंबर 2022 के मध्यावधि चुनाव के बाद पुरानी सीनेट का कार्यकाल खत्म होने के बाद आखिरकार उनका प्रस्ताव एक्सपायर होने के बाद भी बाइडेन उनके नाम पर ही अटके रहे. नई सिनेट के पदग्रहण के बाद एक तरह से हठधर्मिता दिखाते हुए उन्होंने गार्सेटी को फिर से नामांकित किया जो कि राजनीति में असामान्य बात है.
तमाम विवादों, जिसमें दिल्ली में विवाद भी शामिल थे, की आंधी के बावजूद उन्होंने राजदूत के लिए किसी नए उम्मीदवार का नाम आगे नहीं बढ़ाया. भारत में चूंकि दो साल से अमेरिकी राजदूत (US ambassador) नहीं था, इसलिए भारतीय विश्लेषक “रणनीतिक साझेदारी” (strategic partnership) के लिए बाइडेन की ख्वाहिशमंदी पर सवाल उठा रहे थे. वह पूछते थे कि अगर अमेरिकी राष्ट्रपति को एक राजदूत नियुक्त करने तक की परवाह नहीं है तो भारत असलियत में कितना महत्वपूर्ण है.
हकीकत यह है कि बाइडेन भारत की उपेक्षा नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी जिद पर अड़े थे. ऐसे में हुआ यह कि विदेश नीति की मंजिल के रास्ते में डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीति रुकावट बन गई, हालांकि व्हाइट हाउस इससे बेपरवाह बना रहा. यहां तक कि अमेरिकी अधिकारी भी निजी बातचीत में शिकायत कर रहे थे— बिना पूर्णकालिक राजदूत के दो साल गुजर गए. यह एक खराब रिकॉर्ड है.
नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास एक के बाद कामचलाऊ राजदूतों या चार्ज डी अफेयर्स (CDA) के साथ भारत-अमेरिका में तेजी से गहराते रिश्तों के लिए “जरूरी कदम उठाने” के लिए बेचैन था. जनवरी 2021 में अंतिम अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर (Kenneth Juster) के नई दिल्ली छोड़ने के बाद से छह CDA हो चुके हैं.
गार्सेटी के पेरेंट्स ने व्हाइट हाउस पर दबाव बढ़ाने और सीनेट में अपने बेटे के लिए समर्थन हासिल करने के वास्ते लॉबिस्ट की सेवाएं भी ली थीं. पोलिटिको (Politico) के अनुसार उन्होंने उन्हें भारत में राजदूत बनाने के लिए करीब 90,000 डॉलर (74.35 लाख रुपये ) खर्च किए. उनके दावेदार बनने की भी एक ढकी-छिपी कहानी है.
क्या बाइडेन की एहसान चुकाने की राजनीति गार्सेटी के करियर को परवान चढ़ाने में मदद कर सकेगी?
गार्सेटी बाइडेन के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने के शुरुआती समर्थक हैं और उनके 2020 के अभियान में कंधे से कंधे मिलाकर उनके साथ रहे जब राष्ट्रपति बन पाने की संभावनाएं कम होती लग रही थीं. बाइडेन उनकी वफादारी की कद्र करते हैं.
कुल मिलाकर बाइडेन की लड़ाई गार्सेटी का राजनीतिक अस्तित्व बचाने और डेमोक्रेटिक पार्टी में भविष्य का बड़ा नेता बनाने पर केंद्रित थी. अगर गार्सेटी भारत में राजदूत नहीं बन पाते तो उनके राजनीतिक करियर में एक बड़ा खालीपन रह जाता.
असल में उन्हें बाइडेन के मंत्रिमंडल में शामिल होना था, लेकिन वह कामयाब नहीं हुए. बहुत कम पदों के लिए बहुत ज्यादा दावेदार थे— अमेरिका में भारत जैसी विशालकाय कैबिनेट नहीं होती है.
इसकी भरपाई के लिए अगला सबसे बड़ा कदम एक बड़े और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण देश में राजदूत पद पर नियुक्ति थी, ताकि गार्सेटी अपनी विदेश नीति की साख को चमका सकें. भारत फील्ड का तजुर्बा मुहैया कराएगा.
(सीमा सिरोही वाशिंगटन में वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे @seemasirohi पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर जाहिर किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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