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म्यांमार में हत्याओं पर भारत चुप, कुछ मुश्किलें-कुछ मजबूरियां  

हमें देश निर्माण और अपनी सीमाओं को चाक-चौबस्त रखने पर ध्यान देना चाहिए, न कि नैतिकता का दिखावा करना चाहिए  

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“बुद्ध की धरती भारत, म्यामांर के आर्मी जनरल्स के साथ कैसा सलूक करेगा”, भारत के एक पूर्व राजनयिक ने जोरदार शब्दों में पूछा. “हमें दुनिया के सामने एक मिसाल पेश करनी चाहिए और लोकतांत्रिक मूल्यों को कायम रखना चाहिए.” दूसरे राजनयिक ने पहले के स्वर से स्वर मिलाया. “अगर हम ऐसा ही बर्ताव करते रहे, जैसा अभी कर रहे हैं तो हमें क्वाड का सदस्य बने रहने का कोई हक नहीं”- तीसरे ‘एक्सपर्ट’ ने सिद्धांतवादी बयान दिया. “इसके बावजूद कि भारत अब लोकतंत्र रहा ही नहीं.” चौथे ने दलील दी.

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आइए, मैं इसका संदर्भ देता हूं.

म्यामांर में सैन्य शासक जुंटा ने अपनी ताकत को घटते देखा और यह देखा कि आंग सान सू की के नेतृत्व वाली एनएलडी (नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी) का जन समर्थन चरम पर है. इसके बाद उसने फैसला किया कि 2011 में प्रारंभ ‘सुपरवाइज्ड डेमोक्रेसी’ के प्रयोग को खत्म कर दिया जाए.

सेना ने 2010 में संविधान भी नए सिरे से लिखा था. इससे पहले उसने आंशिक रूप से अपने अधिकार त्यागे थे, और अपने नॉमिनीज के लिए संसद में न्यूनतम 25 प्रतिशत सीटें सुरक्षित की थीं. इसके अलावा रक्षा और आंतरिक मामलों, और संविधान में संशोधन की स्थिति में वीटो करने का हक भी हथिया लिया था.

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म्यांमार की आंतरिक राजनीति और हालात

नोबल पुरस्कार विजेता सू की ने सेना के साथ सत्ता साझा करने के लिए दो कदम पीछे हटना मंजूर किया. अपने खुद के रुख को नरम किया. राजनैतिक व्यवस्था की सच्चाई को देखते हुए, आंतरिक और बाहरी वार्ताकारों ने नागरिक सरकार, और तत्मादा या सेना के साथ संपर्क किया.

लेकिन नवंबर 2020 के आम चुनावों के नतीजों को सेना पचा नहीं पाई. माना जाता है कि इसके लिए उसकी सहमति नहीं थी. नतीजे तीखे थे. एनएलडी को संसद की 476 में से 397 सीटों के साथ बहुमत मिला था. संविधान में पर्याप्त सुरक्षात्मक उपाय होने के बावजूद सेना को डर था कि सू की बहुमत के चलते उसके पर कतर सकती हैं.

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सेना ने नागरिक सरकार पर घूसखोरी और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. सू की के लिए कहा कि उनके पास गैरकानूनी संचार उपकरण हैं. इस तरह 1 फरवरी को सेना ने सत्ता अपने हाथों में ले ली और सू की को उनके घर में नजरबंद कर दिया. यह 1989 का ऐक्शन रिप्ले था.

ऐसा माना जाता है कि सेना को पहले से ही चीनी सेना (पीएलए) का समर्थन हासिल है. तभी चीन ने सैन्य तख्ता पलट को ‘बड़ा कैबिनेट फेरबदल’ बताया.

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म्यांमार से रिश्ते के क्या मायने हैं, भारत जानता है

पश्चिमी देश जुंटा के खिलाफ रहे हैं. लेकिन म्यांमार के पड़ोसियों आसियान और जापान 1989 से ही इस मोर्चे पर फूंक फूंककर कदम रख रहे हैं. बहुत सावधानी से प्रतिक्रिया देते हैं. जैसे जापान के उप रक्षा मंत्री यसुहिदे नाकायामा ने साफ कहा था कि “अगर हमने सही से इस मसले में सही कदम नहीं उठाए तो म्यांमार लोकतांत्रिक देशों से दूर और चीन के और करीब चला जाएगा. वहां लोकतंत्र की बची-खुची उम्मीद भी खत्म हो जाएगी.”

भारत का बयान कुछ ऐसा था- “म्यांमार के घटनाक्रमों को लेकर हम चिंतित हैं. भारत हमेशा से म्यांमार में लोकतंत्र लौटने की प्रक्रिया को दृढ़ समर्थन देता रहा है. हम मानते हैं कि कानून का शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कायम रहना चाहिए. हम करीब से सारी घटनाओं को देख रहे हैं.”

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हालांकि म्यांमार में इतिहास दोहराया जा रहा है, लेकिन भारत की प्रतिक्रिया इस बार 1989 से एकदम अलग है. भारत इस बार राष्ट्रीय हित की दुहाई दे रहा है. पिछली बार उसने जुंटा से बातचीत रोक दी थी. अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं की थी, और इस तरह चीन के लिए रास्ता साफ कर दिया था.

म्यांमार के साथ भारत की 1643 किलोमीटर लंबी और संवेदनशील सीमा लगती है. इसके चार पूर्वोत्तर राज्य म्यांमार से सटे हुए हैं और वहां के रहवासियों के म्यांमार के आस-पास के इलाकों के बाशिंदों से जातीय संबंध हैं.

भारत-म्यांमार के रिश्तों की बहुत सी परतें हैं. सभ्यता, संस्कृति, व्यापार, निवेश, ऊर्जा, लोगों के बीच आपसी संबंधों के अलावा द्विपक्षीय सुरक्षा और रक्षा सहयोग में पिछले कुछ दशकों में इजाफा हुआ है. हमारी सशस्त्र सेनाओं का उग्रवादियों से मुकाबला करने का साझा इतिहास रहा है. म्यांमार की तरफ से हमें इस बात का भरोसा दिलाया गया है कि भारत विरोधी गतिविधियों के लिए उसके क्षेत्र का इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा.

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म्यांमार को लेकर भारत की मजबूरियां और जमीनी हकीकत

27 मार्च को भारत ने सात अन्य देशों, चीन, रूस, पाकिस्तान, बांग्लादेश, वियतनाम, लाओस और थाईलैंड के साथ म्यांमार की राजधानी नाएप्यीडॉ में सालाना सेना दिवस परेड में हिस्सा लिया. खास बात यह थी कि इस मौके पर म्यांमार के साथ सरहद साझा करने वाले सभी देश मौजूद थे.

यहां तक कि बांग्लादेश, जिसका रोहिंग्या शरणार्थियों के कारण म्यांमार से गंभीर विवाद है, ने यह जरूरी समझा कि इस मौके पर पहुंचा जाए. आलोचकों ने हमारी मजबूरियों और जमीनी हकीकत को न समझते हुए भारत की निंदा की कि वह इस मौके पर मौजूद था.
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सैन्य तख्ता पलट के बाद म्यांमार में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं और नागरिक अशांति नजर आ रही है. जुंटा ने दमनकारी रूप अख्तियार कर लिया है. अब तक 500 लोगों की जानें जा चुकी हैं जिसकी कोई माफी नहीं है. अपनी जान बचाने के लिए लोग पड़ोसी देशों में पलायन कर रहे हैं. इससे स्थिति बदतर हो गई है. हालांकि भारत इसे रोकने की पूरी कोशिश कर रहा है लेकिन 1000 से ज्यादा आईडीपी (आंतरिक रूप से विस्थापित लोग) मिजोरम में आ गए हैं. कुछ स्वयंभू मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कहा है कि भारत को मिसाल कायम करने के लिए (जिसे कोई अनुसरण नहीं करता!) अपने दरवाजे आईडीपीज़ के लिए खोल देने चाहिए.

1988 में प्रदर्शनकारियों पर ऐसी ही कड़ी कार्रवाई के समय 360,000 से ज्यादा लोगों ने म्यांमार से पलायन किया था. तब थाईलैंड के पूर्व विदेश मंत्री कसित पिरोमया ने ‘शरणार्थी संकट’ के बारे में चेताया था.

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म्यांमार संकट पर भारत की चुप्पी और कूटनीति

इस सिलसिले में भारत का रुख क्या है? वह सार्वजनिक तौर पर जुंटा की तरफ उंगली नहीं उठा रहा, बल्कि पूरी ऐहतियात से जवाब दे रहा है- क्या यह उचित है? बेशक, हां!

राजनीति और कूटनीति विकल्पों पर आधारित होते हैं, और अक्सर हमें वह चुनना पड़ता है जो हमें नागवार गुजरता हो. क्या सू की ने इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में रोहिंग्या लोगों पर सेना की नृशंस कार्रवाई का समर्थन नहीं किया था?

जुंटा ने संयुक्त राष्ट्र में कहा था: “हम प्रतिबंधों के आदी हैं और हमारा गुजारा चल रहा है... हमें आदत है, कुछ ही दोस्तों के साथ आगे बढ़ने की.”

यानी किसी भी फटकार का उन पर असर होने वाला नहीं, न ही वे अपना रास्ता बदलने वाले हैं. हां, सब्र और कूटनीति यह काम कर सकती है, और भारत ने यही विकल्प चुना है.

हम दुनिया में नैतिकता के झंडाबरदरार नहीं, न ही हमें ऐसा करने की कोई जरूरत है. वयस्क परिपक्व लोगों की ही तरह हर देश को अपने फैसले लेने का हक है- चाहे वे फैसले सही हों या गलत. कोई नहीं चाहता कि कोई दूसरा उसे पाठ पढ़ाए. यह भारत पर भी लागू होता है.

अपनी आकांक्षाओं और चुनौतियों को देखते हुए हमें देश निर्माण और अपनी सीमाओं को चाक-चौबस्त रखने पर ध्यान देना चाहिए, न कि नैतिकता का दिखावा करना चाहिए. इसे पश्चिम के देशों का शगल और दिल बहलाव ही रहने दिया जाए.

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(लेखक कनाडा के पूर्व हाई कमीशनर, दक्षिण कोरिया के राजदूत और विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @AmbVPrakash है. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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