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कहां है भारत का बॉब वुडवर्ड, जो पाताल से खबर निकाल लाए

अमेरिका को इस समय यह तय करना है कि वह ट्रंप का भरोसा करे यो वुडवर्ड का.

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अमेरिका ही नहीं, सारी दुनिया में इन दिनों एक किताब की धूम मची है. किताब का नाम है फियर: ट्रंप इन द ह्वाइट हाउस. इस किताब की पहले ही दिन यानी 11 सितंबर को 7.5 लाख कॉपी बिक गई है. प्रकाशक ने इसे अपने 94 साल के इतिहास की सबसे सफल किताब बताया है. अमेजन पर यह किताब टॉप सेलर है.

यह किताब डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के दौरान और उसके बाद के लगभग एक साल में ह्वाइट हाउस जिस तरह चल रहा है, उसका लेखा-जोखा है. यह किताब बताती है कि अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर अब एक ऐसा शख्स बैठा है, जिसकी मानसिक दशा ऐसी है और जो इतना गुस्सैल और सनकी है कि दुनिया को भयभीत होना चाहिए.

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किताब बताती है कि ट्रंप के अपने मातहत लगातार सतर्क रहते हैं कि वे ऐसा-वैसा कुछ न कर दें कि दुनिया में एक और युद्ध शुरू हो जाए या अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुकसान हो जाए. इस किताब में वर्तमान ह्वाइट हाउस प्रशासन को पागलखाने की तरह दिखाया गया है.

किताब की शैली यह है कि लेखक ने ह्वाइट हाउस प्रशासन में मौजूद या मौजूद रहे उच्च पदस्थ लोगों से बात की है. लेकिन उनके नाम स्रोत के तौर पर नहीं बताए हैं.

ऐसी किताब दुनिया का कोई भी और शख्स लिखता, तो शायद उसे कल्पना की उड़ान या मन की बात कहकर खारिज कर दिया जाता. लेकिन जब किताब के कवर पर लेखक का नाम बॉब वुडवर्ड हो, तो इसे काल्पनिक या जो मन में आया, लिख दिया कहकर खारिज करना आसान नहीं है.

यह इस किताब और उसके लेखक का ही दम है कि दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी माने जाने वाले डोनाल्ड ट्रंप बाकायदा ट्वीट करके इस किताब को 'एक खराब किताब' और 'अनजान स्रोत के आधार पर लिखी गई किताब' बता रहे हैं. एक और ट्वीट में ट्रंप इस किताब को ही घोटाला करार देते हैं. पूरा रिपब्लिकन पार्टी स्टैबलिशमेंट इस किताब को रद्दी बताने में जुट गया है.

लेकिन फिर वही बात है. लेखक कोई ऐरा-गैरा आदमी नहीं, बॉब वुडवर्ड है. दरअसल अमेरिका को इस समय यह तय करना है कि वह ट्रंप का भरोसा करे या वुडवर्ड का. भरोसेमंद होने के मामले में वुडवर्ड का पलड़ा हल्का नहीं है. हालांकि इस प्रतियोगिता के अंतिम विजेता कौन होंगे, यह तय होना बाकी है.

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कौन हैं बॉब वुडवर्ड

बॉब वुडवर्ड पूर्णकालिक पत्रकार और लेखक हैं. वे वाशिंगटन पोस्ट में एसोसिएट एडिटर के पद पर हैं. ये वही शख्स हैं, जिन्होंने कार्ल बर्नस्टीन के साथ मिलकर वाटरगेट स्कैंडल से पर्दा उठाया था और जिसकी वजह से अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

संक्षेप में वाटरगेट स्कैंडल को इस तरह समझा जा सकता है कि अमेरिका में उस समय की विपक्षी पार्टी डेमोक्रेटिक पार्टी के हेडक्वार्टर से कागजात चुराते पांच लोग पकड़े गए थे और इसके तार निक्सन से जुड़े पाए गए.

अमेरिका को इस समय यह तय करना है कि वह ट्रंप का भरोसा करे यो वुडवर्ड का.
बॉब वुडवर्ड पूर्णकालिक पत्रकार और लेखक हैं.
(फोटो: फेसबुक)
वुडवर्ड और बर्नस्टीन को एक ऐसा खुफिया सूत्र ‘डीप थ्रोट’ हाथ लगा, जिसने उन्हें ह्वाइट हाउस की सरपरस्ती में चल रहे इस स्कैंडल के तमाम जरूरी कागजात उपलब्ध करा दिए. वाटरगेट स्कैंडल की रिपोर्टिंग को पत्रकारिता इतिहास की सबसे बड़ी खबर तक कहा जाता है. दोनों ने मिलकर इस बारे में ऑल द प्रेसिडेंट्स मेन नाम की किताब लिखी, जिस पर एक फिल्म भी बनी.

बॉब वुडवर्ड उसके बाद से ही लगातार अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की रिपोर्टिंग कर रहे हैं और अमूमन हर दो साल पर उनकी एक किताब आती है, जिससे ह्वाइट हाउस से लेकर वहां की खुफिया सर्विस, न्यायपालिका और फेडरल रिजर्व के बारे में इनसाइडर जानकारियां मिलती हैं. फियर उनकी 19वीं किताब है.

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वुडवर्ड में क्या है, जो उन्हें खास बनाता है

वुडवर्ड की एक खासियत यह है कि वे सनसनी की बजाए सरकार की नीतियों और कामकाज के गंभीर पक्ष पर ही नजर रखते हैं. मिसाल के तौर पर, क्लिंटन के समय के ह्वाइट हाउस पर लिखते समय वे मोनिका लेवेंस्की सेक्स कांड को हाथ नहीं लगाते. इसी तरह ओबामा के कार्यकाल पर लिखते हुए वे नस्लवाद के सवाल को नहीं छूते, जबकि चटपटी सामग्री के लिए कई लोग ऐसे मुद्दे उठा लेते हैं.

वुडवर्ड की दूसरी खासियत यह है कि वे अक्सर अपना निष्कर्ष नहीं देते. वे तथ्यों को क्रमवार सजाकर रख देते हैं और निष्कर्ष निकालने का काम पढ़ने वाले पर छोड़ देते हैं. उनका अगर कोई पक्षपात है, तो वह तथ्यों को चुनने में हो सकता है. तमाम पक्षों से बात करने की उनकी कोशिश साफ झलकती है. वुडवर्ड इस मायने में पत्रकार हैं, न कि ओपिनियन यानी विचार लेखक या विश्लेषक.

वुडवर्ड हर बातचीत के नोट्स बनाते हैं और दस्तावेजी सबूत भी जुटाते हैं. वुडवर्ड ऑफ द रेकॉर्ड बातचीत नहीं करते. वे जो बात करते हैं, उसके बारे में बात करने वालों को पता होता है कि इस बातचीत का लिखने के दौरान इस्तेमाल हो सकता है. वे इतनी रियायत जरूर बरतते हैं कि बात करने वालों का नाम, अनावश्यक जाहिर नहीं करते. इन स्रोत को वे डीप बैकग्राउंड कहते हैं.

अमेरिका को इस समय यह तय करना है कि वह ट्रंप का भरोसा करे यो वुडवर्ड का.
वुडवर्ड की खासियत है कि वे सनसनी के बजाए सरकार की नीतियों और कामकाज के गंभीर पक्ष पर ही नजर रखते हैं
(फोटो: फेसबुक)

वुडवर्ड ज्यादातर बातचीत की रेकॉर्डिंग रखते हैं. मिसाल के तौर पर, फियर किताब के लिए काम करने के दौरान उन्होंने ट्रंप से बात करने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे असफल रहे. किताब पूरी होने के बाद जब ट्रंप ने उन्हें कॉल किया, तो वुडवर्ड ने पूछा कि क्या वे इस बातचीत को रेकॉर्ड कर सकते हैं और ट्रंप की सहमति के बाद यह बातचीत रेकॉर्ड की गई. इस बातचीत में ट्रंप वुडवर्ड से कहते हैं कि उन्हें ये जानकारी नहीं थी कि वुडवर्ड उनका इंटरव्यू करना चाहते हैं. इस बातचीत में ट्रंप वुडवर्ड की तारीफ भी करते हैं.

वुडवर्ड की विश्वसनीयता इतनी अधिक है कि अमेरिकी प्रशासन में शायद ही कोई हो, जो उनसे बातचीत करने से इनकार कर दे. उनकी छवि यह है कि हर कोई उनसे बात कर लेता है. यह विश्वसनीयता और स्रोत तक पहुंच उन्होंने कैसे हासिल की है, इस बारे में अंदाजा ही लगाया जा सकता है. यह कहा जाता है कि वुडवर्ड बात करना चाहते हैं, तो बात कर लेनी चाहिए, क्योंकि आपके सहयोगी और आपके विरोधी तो उनसे बात कर ही लेंगे.
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भारत में बॉब वुडवर्ड क्यों नहीं हैं?

भारतीय पत्रकारिता में क्या किसी पत्रकार का ऐसा क्लेम है कि उसकी रिपोर्टिंग की वजह से देश की सरकार हिल गई या किसी प्रधानमंत्री ने इस्तीफा दिया. सत्ता शिखर के कामकाज के बारे में जो किताबें भारत में आई हैं, वे नौकरशाहों ने लिखी हैं और उनमें भी खुलासा जैसा कम ही है. पत्रकारों की ओर से ऐसा अब तक नहीं हुआ है. देश में 1.30 लाख रजिस्टर्ड पत्र-पत्रिकाओं और टीवी न्यूज चैनलों या न्यूज वेबसाइट में से किसी के पास ऐसा क्लेम नहीं है.

बोफोर्स कांड की रिपोर्टिंग ऐसा एकमात्र क्षण था, जब सरकार हिलती दिखी थी, लेकिन गौर करने की बात यह है कि बोफोर्स की जिस रिपोर्टिंग से ऐसा हो रहा था, वह कोई खुफिया या पर्दे में छिपी जानकारी नहीं थी, बल्कि स्वीडन में चल रही जांच के कुछ टुकड़े थे. बोफोर्स की रिपोर्टिंग के दौरान प्रधानमंत्री पर लगाए गए आरोप कभी साबित नहीं हुए.

चूंकि पश्चिमी देशों में एकाउंटिंग में एक हद पारदर्शिता आ चुकी है, इसलिए वहां अगर जांच हो जाती है, तो ऐसे सौदों में कुछ खुलकर सामने आ जाता है. एनरॉन या वॉलमार्ट की भारत में की गई लॉबिंग की जानकारी भी किसी भारतीय पत्रकार ने नहीं निकाली. इसका श्रेय भी अमेरिका एकाउंटिंग सिस्टम को जाता है.

जिला या कई बार राज्यों के स्तर पर ऐसी रिपोर्टिंग फिर भी देखने को मिल जाती है, जिसमें रिपोर्टर का उद्यम या उसकी पहुंच का असर दिखता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर रायसीना हिल्स में मौजूद सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग किसी पत्रकार से खुद बात करें और सरकार की अंदरूनी जानकारियां दें, ऐसी मिसाल लगभग नहीं है. खासकर ऐसी जानकारियां जो खुद सत्ता प्रतिष्ठान और सरकार को असहज कर दें.

अमेरिका को इस समय यह तय करना है कि वह ट्रंप का भरोसा करे यो वुडवर्ड का.
वुडवर्ड की विश्वसनीयता इतनी अधिक है कि अमेरिकी प्रशासन में शायद ही कोई हो, जो उनसे बातचीत करने से इनकार कर दे.
(फोटो: फेसबुक)

बॉब वुडवर्ड को जो एक्सेस या पहुंच ह्वाइट हाउट या पेंटागन या सीआईए हेडक्वार्टर, सुप्रीम कोर्ट या फेडरल रिजर्व में हासिल है, वैसी पहुंच का दावा भारत का कौन सा पत्रकार या रिपोर्टर कर सकता है? जो कुछ लोग सत्ता प्रतिष्ठान के करीबी हैं, उनकी अगर वहां तक पहुंच है भी, तो पाठकों या दर्शकों के लिए उसका क्या मतलब? अक्सर ऐसे पत्रकार विपक्ष में मौजूद लोगों की जानकारियां लेकर आते हैं. ये सस्ती पत्रकारिता है.

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भारत में ऐसा न होने की वजह क्या है?

इस बारे में कोई भी राय बनाने के लिए आवश्यक है कि जरूरी डाटा जुटाया जाए और उसकी गंभीर पड़ताल हो. ये काम कोई शोध संस्थान या यूनिवर्सिटी करा सकती है, जिसके पास शोधकर्ता और जरूरी संसाधन हों. संकेत या अनुमान के तौर पर कुछ नोट्स नीचे दिए गए हैं, जिन पर किसी शोधकर्ता को विचार करना चाहिए.

अमेरिका या यूरोप के मुकाबले, भारतीय पत्रकारिता की सीमाओं की एक वजह तो यह है कि अमेरिका में संस्थाएं विकसित हो चुकी हैं और अपनी हदों में स्वायत्त और आजाद भी हैं. पत्रकारिता को वहां के संविधान से सीधे संरक्षण प्राप्त है और मीडिया संस्थानों को यह भय नहीं है कि सरकार उनकी बांह मरोड़ देगी.

अमेरिकी मीडिया हाउस सरकारी विज्ञापनों पर कम निर्भर हैं. इसने भी उन्हें सरकारी दबावों से स्वतंत्र बनाया है. भारत में सरकार मौजूदा समय में सबसे बड़ी विज्ञापनदाताओं में से एक है. पिछड़े राज्यों में जहां कॉरपोरेट विज्ञापन कम हैं, वहां सरकार मीडिया के लिए आमदनी का और भी बड़ा स्रोत है. एक दूसरे से प्रतियोगिता करता कॉरपोरेट सेक्टर जब और बड़ा होगा, तब हालात बदल सकते हैं.

अमेरिका या यूरोप में अखबारों और पत्रिकाओं का कवर प्राइस भारत की तुलना में बहुत ज्यादा है. यानी वहां के पाठक अपने अखबार का खर्चा काफी हद तक उठाते हैं. वेबसाइट भी पे वॉल लगाने लगे हैं. लोग वेबसाइट को सब्सक्राइब करने लगे हैं.

इसके उलट भारत में अखबारों की बिक्री से आय यानी उनका सर्कुलेशन रेवेन्यू काफी कम है और अपने राजस्व के लिए अखबार विज्ञापनों पर बुरी तरह निर्भर हैं. ऐसे में अखबारों की स्वतंत्रता पर भारत में एक अघोषित, लेकिन स्पष्ट सरकारी और कॉरपोरेट पहरा है. वेबसाइट आम तौर पर मुफ्त में खबरें देती हैं और टीवी चैनलों में भी फ्री टू एयर चैनलों की खाली संख्या है. इससे भारतीय मीडिया की विज्ञापनों पर निर्भरता जाहिर होती है. यानी रिपोर्टर जो करना चाहता है या जो सामग्री वह लेकर आता है, उस पर मीडिया का रेवेन्यू मॉडल भारी पड़ सकता है.

अमेरिका या यूरोप में लोकतंत्र वयस्क हो चुका है और कानून का शासन एक स्थापित परंपरा है. मीडिया को जानकारी देने वाले को यह भय नहीं होता कि उसके जानमाल को कोई गंभीर खतरा हो सकता है. भारत के बारे में ये बात नहीं कही जा सकती. स्रोत की जानकारी सार्वजनिक होने पर स्रोत को गंभीर खतरा हो सकता है.

बॉब वुडवर्ड जहां काम करते हैं, यानी वाशिंगटन पोस्ट, वहां उनको ये सुविधा है कि वे रोजमर्रा के कामकाज से मुक्त हैं. वे हर छोटी-बड़ी बात को रिपोर्ट करने के लिए बाध्य नहीं हैं. वहां स्टाफ में और लोग हैं, जो यह काम करते हैं. इस वजह से वुडवर्ड की नजर बड़ी तस्वीर पर होती है और कुछ साल बाद जब वे कुछ चुनकर लाते हैं, तो पूरा देश और दुनिया उसे गौर से देखती है.

(लेखक एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के एक्जिक्यूटिव कमेटी मेंबर हैं. इनकी किताब मीडिया का अंडरवर्ल्ड, चौथा खंभा प्राइवेट लिमिटेड और कॉरपोरेट मीडिया: दलाल स्ट्रीट राजकमल-राधाकृष्ण प्रकाशन से छपी है.)

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