देश के बचकाने और नादान 'योद्धा एंकर' (अजीब बात है ना कि एंकर शब्द जोकर से कितना मिलता है) टेलीविजन पर बुधवार, 13 मार्च देर शाम को खूनी खेल खेलने के लिए तैयार थे. वे टीवी स्टूडियो से रणभेरी बजाते हुए कह रहे थे, “आधी रात तक चीन, मसूद अजहर और उसके पाकिस्तानी आकाओं का सच मान ले, नहीं तो भारत/दुनिया का गुस्सा झेलने के लिए तैयार रहे.”
इसके बावजूद, आधी रात से एक घंटा पहले चीन ने टेलीविजन के इन योद्धाओं की इज्जत उतार दी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में उसने अजहर पर भारत की मांग को चौथी बार वीटो कर दिया.
इस पर तिरस्कृत एंकरों और ट्रोल्स की नफरत से भरी जो प्रतिक्रिया आई, वह उनके स्वभाव के मुताबिक थी. वे कहने लगे, '‘चीन के सामान का बहिष्कार करो, एक और सर्जिकल स्ट्राइक होनी चाहिए. वुहान में बनी सहमति को भुला देना चाहिए, मिग बाइसन को हैंगर से निकालने का वक्त आ गया है.” मगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ये गुंडे अपनी ‘प्यारी मोदी सरकार’ को उकसाने में असफल रहे. सरकार ने चीन का नाम लिए बिना कहा कि वह इस घटनाक्रम से निराश है.
चीन के ताइवान मॉडल से भारत को सीखना चाहिए
1940 के दशक के आखिर में भारत और चीन को आजादी मिली. दोनों देशों के स्वतंत्रता आंदोलन की राह बिल्कुल अलग थी, लेकिन दोनों में एक समानता भी थी. आजादी के साथ दोनों देशों का बंटवारा हुआ, जिससे एक दुश्मन पड़ोसी देश वजूद में आया. चीन को ताइवान और भारत को पाकिस्तान जैसा पड़ोसी मिला. 70 साल बाद भी पड़ोसियों के साथ दोनों देशों की अदावत खत्म नहीं हुई है.
जब चीन सुपरपावर स्टेटस हासिल करने की तरफ बढ़ रहा था, तब तल्खी घटाए बगैर उसने ताइवान के लिए स्वतंत्र पॉलिसी बनाई. आज चीन, अमेरिका को चुनौती दे रहा है. आज किसी को नहीं लगता कि वह ताइवान का मुख्य प्रतिद्वंद्वी है.
आर्थिक ताकत कई गुना बढ़ने के बावजूद भारत बदकिस्मती से अभी तक पाकिस्तान केंद्रित रहा है. राजनयिक स्तर पर हम ज्यादातर चीजों को सिर्फ भारत-पाकिस्तान के चश्मे से देखते हैं. इसे बदलने की जरूरत है. वैश्विक स्तर पर किसी देश के कद का पता इससे चलता है कि उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी कौन हैं. इसलिए भारत को पाकिस्तान पर दबाव बनाए रखने के साथ उससे स्वतंत्र रूप से निपटना चाहिए. अभी हमारी विदेश नीति में पाकिस्तान को खुलेआम जितनी अहमियत दी जाती है, उसे बदलना होगा. उसके गले पर मजबूत पकड़ रखने के साथ हमें पक्का करना होगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजर में वह भारत के साथ अपने संबंधों को लाकर हमें तंग ना कर सके.
हमारे लिए इतिहास के भावनात्मक बीहड़ से बाहर निकलने का वक्त आ गया है. पाकिस्तान के साथ संबंधों के फंदे में फंसने के बजाय हमें अपनी विदेश नीति का फोकस चीन (अमेरिका और जापान के साथ) पर करना चाहिए.
चीन के साथ भले ही हमारा व्यापार पिछले वर्षों में कई गुना बढ़ा है, लेकिन दोनों देशों के नागरिकों के बीच संपर्क ना के बराबर है. दोनों देशों के लोग एक-दूसरे को संदेह की नजर से देखते हैं. वे एक-दूसरे को मीडिया के बनाए चश्मे से देखते हैं. 2016 के प्यू सर्वे के मुताबिक, चीन के सिर्फ 26% लोगों की भारत के बारे में पॉजिटिव राय थी. यह 2006 से 7% कम था. चीन के 60% नागरिकों की भारत के बारे में नकारात्मक राय थी. इतिहास के प्रोफेसर टानसान सेन ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया था, ‘चीन में एक बड़ा वर्ग सोचता है कि भारत गंदा और असुरक्षित है.’
इधर, भारत के लोग भी चीन के आर्थिक या रणनीतिक इरादों पर शक करते हैं. 2016 में चीन के साथ प्यू ने भारत में भी वैसा ही सर्वे किया था. इससे पता चला कि भारत में सिर्फ 31% लोग चीन को लेकर सकारात्मक रुख रखते हैं. 70% लोगों ने चीन की सैन्य ताकत और सीमा में समय-समय पर घुसपैठ को भारत के लिए ‘थोड़ी-बहुत’ या ‘गंभीर’ समस्या माना था.
कई मामलों में चीन और अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते हाल के वर्षों में मैच्योर हुए हैं और उनकी गहराई बढ़ी है. भारत और चीन ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान से लेकर संयुक्त सैन्य अभ्यास को लेकर द्विपक्षीय समझौते किए हैं. 2016 में दोनों देशों ने पहला संयुक्त सैन्य अभ्यास जम्मू-कश्मीर में किया था. इसका फोकस मानवीय सहायता, आपदा राहत और आतंक-विरोधी अभियान पर था, लेकिन एक मकसद सीमा पर आपसी भरोसे को बढ़ाना भी था.
कई मुद्दों पर चीन और भारत साथ-साथ हैं
पश्चिमी सत्ता के केंद्रों से दूर चीन और भारत की अर्थव्यवस्थाएं उभरी हैं. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिन ब्रेटन वुड संस्थानों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई, भारत और चीन की उनके साथ बुनियादी असहमति है. इसी वजह से एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) और ब्रिक्स न्यू डिवेलपमेंट बैंक (एनडीबी) जैसे संगठन बनाने के लिए दोनों ने सहयोग किया. ये संस्थान उभरते हुए (इमर्जिंग) देशों में टिकाऊ विकास के लिए बनाए गए हैं, जो वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के अधिकार-क्षेत्र से मीलों दूर हैं.
पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर भी भारत और चीन साथ-साथ हैं- चाहे वह समुद्र से जुड़ी रिसर्च की बात हो या ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकसित देशों पर दबाव बनाना. दुनिया में प्रदूषण फैलाने के मामले में पहले नंबर पर चीन और तीसरे नंबर पर भारत ने इसे कम करने की दिशा में अहम कदम उठाए हैं. दोनों देशों ने पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट पर दस्तखत किए हैं, लेकिन इस लिस्ट में सबसे ऊपर हमारे आर्थिक हित हैं. खासतौर पर, चीन में आर्थिक सुस्ती के बाद दोनों देशों के रिश्तों में मजबूती आई है. भारत के रूप में वहां के स्टील, सीमेंट और दूसरे उद्योगों को एक आकर्षक बाजार मिला है और चीन के नर्वस निवेशकों के लिए यह एक आकर्षक ठिकाना भी बन रहा है.
- टेनसेंट और शाओमी सहित चीन की कई कंपनियों ने भारत में करोड़ों डॉलर का निवेश किया है.
- विवादस्पद कंपनी हुआवे टेक्नोलॉजी के साथ चीन की कुछ दूसरी कंपनियां भारत में गहरी जड़ें जमाने की कोशिश कर रही हैं. हुआवे ने बेंगलुरु में 5,000 इंजीनियरों की क्षमता वाला एक रिसर्च एंड डिवेलपमेंट सेंटर खोला है. चीन की दिग्गज ई-कॉमर्स कंपनी अलीबाबा के पास स्नैपडील और पेटीएम में हिस्सेदारी है.
- वहां की अप्लायंस कंपनी हायर, मिडीया और कोनका भी देश में मौजूदगी बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं.
- हाई स्पीड रेलवे लाइन, स्मार्ट सिटी और ज्वाइंट टेक्नोलॉजी पार्क्स को लेकर भी दोनों देशों के बीच सहयोग का रास्ता तैयार हो रहा है.
भीड़ से अलग मेरी रायः भारत को भी ओबीओआर में होना चाहिए
यूरोप और एशियाई देशों के साथ व्यापारिक और सांस्कृतिक सहयोग बढ़ाने के लिए चीन ने 'वन बल्ट, वन रोड' (ओबीओआर) प्रोजेक्ट शुरू किया था. मुझे लगता है कि इस प्रोजेक्ट से जुड़ने पर भारत को भी फायदा हो सकता है.
जब एशियाई देश एक-दूसरे के और करीब आ रहे हैं, तब ओबीओआर से बाहर रहने पर हमारे अलग-थलग पड़ने का डर है. इस प्रोजेक्ट से जुड़कर भारत अपने कमजोर इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुधार सकता है. इससे देश में रोजगार के मौके बढ़ेंगे, साथ ही चीन और दक्षिण एशिया में उसके लिए नए कारोबारी मौके भी बनेंगे.
भारत सरकार के अधिकारी ओबीओआर, चीन की नीयत, उसकी एकतरफा अप्रोच और खासतौर पर चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर (सीबीईसी) के कश्मीर से गुजरने वाले प्रस्तावित हिस्से को संहेद की नजर से देखते हैं. इसके आलोचक कहेंगे कि ओबीओआर से जुड़कर भारत सीपीईसी को स्वीकृति दे रहा है, जिससे चीन और पाकिस्तान के रिश्ते मजबूत होंगे और इससे यह भी संदेश जाएगा कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर भारत ने उसका दावा मान लिया है.
यह चिंता सही है, लेकिन वह एआईआईबी के चार्टर में एक शर्त पर जोर डालकर इसे एक हद तक दूर कर सकता है, जो प्रोजेक्ट की फंडिंग कर रहा है. इस शर्त के मुताबिक, अलग-अलग देशों के दावे वाले विवादित क्षेत्र में किसी प्रोजेक्ट्स के लिए सभी संबंधित पक्षों की मंजूरी जरूरी है. चीन पहले ही कह चुका है कि अगर भारत ओबीओआर से जुड़ता है, तो वह उसकी कुछ शर्तों पर गौर करने को तैयार है. भारत के इस प्रोजेक्ट से जुड़ने से इसे जबरदस्त बढ़ावा मिलेगा. भारत में चीन के राजदूत लुओ झाओहुई ने कहा था, ‘यहां तक कि हम भारत की चिंता दूर करने के लिए सीपीईसी का नाम बदलने, जम्मू-कश्मीर, नाथू ला पास या नेपाल से वैकल्पिक कॉरिडोर बनाने पर विचार करने को तैयार हैं.’
चीन के दूतावास की वेबसाइट से अगले दिन सीपीईसी का नाम बदलने वाली हिस्सा हटा दिया गया था, जबकि पाकिस्तान के एक अखबार ने दावा किया कि चीन के राजदूत ने यह बात तंज कसते हुए कही थी. इसके बावजूद, इस मामले में बाजी हमारे हाथ में है. हमें इसका फायदा उठाना चाहिए. ओबीओआर से बिल्कुल अलग रहने के बजाए भारत को इसकी ‘को-ब्रांडिंग’ के लिए दबाव डालना चाहिए. उसे इसका ऑफिशियल स्पॉन्सर बनना चाहिए. हमें इसके वित्तीय पहलुओं को लेकर जबरदस्त मोलभाव करना होगा. यह पक्का करना होगा कि इस वजह से भारत कर्ज के जाल में ना फंसे. हम देख चुके हैं कि ओबीओआर से जुड़ने वाले कई छोटे देश कर्ज संकट में फंस गए हैं. इसलिए हम इसके लिए बेहतर डील कर सकते हैं.
बेहतर ट्रेड डील के लिए व्यापार घाटे को बनाया जाए हथियार
ओबीओआर की तरह ही चीन के साथ भारत ट्रेड डेफिसिट यानी व्यापार घाटे का इस्तेमाल भी अपने फायदे के लिए कर सकता है. उसे चीन से निर्यात के मामले में वाजिब हक मांगना चाहिए. अगर चीन इससे इनकार करता है, तो हमें उसके यहां से आने वाले सामानों पर आयात शुल्क बढ़ाना चाहिए या उन पर पाबंदी लगानी चाहिए. मैं यहां एंटी-डंपिंग ड्यूटी की बात नहीं कर रहा हूं. भारत चीन से आने वाले करीब 100 सामानों पर पहले से यह शुल्क लगा रहा है, जिनमें रबड़ से लेकर स्टील प्रॉडक्ट्स शामिल हैं. मैं ‘जैसे को तैसा’ वाली रणनीति का इस्तेमाल करने को कह रहा हूं. जैसे दवा क्षेत्र को लीजिए. जेनेरिक दवाओं के उत्पादन में भारत दुनिया में सबसे आगे है. हम अमेरिका और यूरोप को बड़े पैमाने पर इन दवाओं का निर्यात करते हैं. इन दवाओं के लिए करीब दो तिहाई कच्चा माल भारतीय कंपनियां चीन से मंगाती हैं. इसके बावजूद चीन, भारत से दवा निर्यात की इजाजत नहीं देता. इस सिलसिले में वाणिज्य मंत्रालय चीन से बार-बार शिकायत कर चुका है. इतना ही नहीं, चीन ने भारत में दवा कंपनियों के प्लांट्स की जांच भी की थी. अगर चीन भारतीय दवाओं पर प्रतिबंध जारी रखता है तो हमें इसके लिए कच्चा माल दूसरी जगह से मंगाना शुरू कर देना चाहिए.
हम चीन को नाराज नहीं करना चाहते, लेकिन हम उसके लिए डोरमैट भी नहीं बनेंगे. इसका मतलब यह है कि चीन को लेकर हमें चौकस पॉलिसी बनानी होगी और उसमें हालात के मुताबिक बदलाव करना होगा. हमें उसे समकक्ष, पार्टनर और एक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखना होगा. जहां दोनों देशों के हित एक हों, वहां हमें उसके साथ तालमेल करना चाहिए. जहां हित अलग हों, वहां हमें सोच-समझकर अपना रणक्षेत्र चुनना होगा. जब चीन की किसी हरकत से हमें सीधा खतरा हो, तभी हमें सख्त रुख अपनाना चाहिए, नहीं तो भारत को लो प्रोफाइल रखना चाहिए. हमारी उसके साथ इस पर सहमति होनी चाहिए कि अगर वह भारत से तनाव नहीं बढ़ाएगा, तो हम भी उससे नहीं उलझेंगे.
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“De-hyphenate” Pakistan; Learn From the China/Taiwan Standoff
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