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रोजगार के सवाल पर बेरोजगारी का आंकड़ा दे रही सरकार लेकिन उसमें भी कई खामियां हैं

India Unemployment Data Gap: भारत के सामाजिक वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के सामने 3 प्रमुख मुद्दे हैं

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राज्यसभा में AAP सांसद अशोक कुमार मित्तल ने सरकार से सवाल किया कि पिछले 8 सालों में सरकारी और निजी क्षेत्र में कितनी नौकरियां पैदा हुईं हैं. जवाब में नौकरियों की संख्या के जगह केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्री भूपेंद्र यादव ने सदन को बेरोजगारी का आंकड़ा (India Unemployment Data) दे दिया और इसकी मदद से दावा किया कि देश में बेरोजगारी घट रही है.

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डेटा तक बिना किसी बाधा के हमेशा पहुंच ही सामाजिक विज्ञान से जुड़ीं रिसर्च के लिए आधार है. किसी भी देश की ग्रोथ और विकास में डेटा स्टोरी महत्वपूर्ण होती है. खास तौर पर भारत जैसे देशों के लिए जहां गरीबी, असमानता और बेरोजगारी के बीच सतत विकास संबंधी मुद्दों के साथ-साथ विकास क्षमता पर्याप्त है.

विकास के मामले में स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद हम कितनी दूर तक पहुंचे हैं, इसका वस्तुनिष्ठ उत्तर देने के लिए आंकड़ों की जरूरत है.

लेकिन विकास मापने से जुड़ें ऐसे सवालों का जवाब देने में सामाजिक वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के सामने 3 प्रमुख मुद्दे हैं

  • पहला- बेरोजगारी पर डेटा के मौजूदा स्रोतों को बंद कर दिया गया है.

  • दूसरा- हाल ही में प्रकाशित आंकड़ों को जमा करने की प्रक्रिया में बदलाव और संदिग्ध गुणवत्ता.

  • तीसरे- बदलती रोजगारों की प्रकृति के अनुसार नए अनुमान प्रकाशित करने की आवश्यकता.

भारत में विकास मोर्चे पर आज कई ऐसे विरोधाभास मौजूद हैं जिनपर शैक्षणिक विमर्श होते हैं- जैसे जनसांख्यिकीय लाभांश के बावजूद बिना रोजगार वाला विकास, उच्च GDP विकास के बीच बढ़ती आय असमानता और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के बावजूद स्थायी गरीबी.

बढ़ती आय असमानता और गरीबी के लिए बेरोजगारी मूल कारण है. शहरी भारत में 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों के लिए बेरोजगारी दर 30 सितंबर को समाप्त दूसरी तिमाही के दौरान 9.8 प्रतिशत से घटकर 7.2 प्रतिशत हो गई.

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के 16वें आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के आंकड़ों के अनुसार शहरी क्षेत्रों में महिलाओं (15 वर्ष और उससे अधिक आयु) में बेरोजगारी दर जुलाई-सितंबर में घटकर 9.4 प्रतिशत हो गई, जबकि ठीक एक साल पहले इसी तिमाही में 11.6 प्रतिशत थी. जबकि इस साल अप्रैल-जून में यह 9.5 फीसदी थी.

बेरोजगारी की स्थिति में सुधार के इस सकारात्मक संकेत का श्रेय केवल बाजारों के खुलने को जाता है. लेकिन इसके साथ ही, इस आंकड़े की गुणवत्ता से जुड़े सवाल शोधकर्ताओं को परेशान करते हैं.

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आंकड़ों के मोर्चे पर विफलता: भारत की बेरोजगारी के आंकड़ों में असंगति

भारत के बेरोजगारी के आंकड़ों की दुनिया एक अबूझ पहेली है और यह चिंताजनक है. साल 2016 के बाद से श्रम और रोजगार मंत्रालय ने अपने कई सर्वे को बंद कर दिया है. ऐसा ही डेटा सोर्स साल में एक बार आने वाला एम्प्लॉयमेंट-अनएम्प्लॉयमेंट सर्वे (EUS) था जो 2010 से 2016 तक प्रकाशित हुए लेकिन उसके बाद बंद हो गए. 2016 में क्वाटरली रोजगार सर्वे (तीन महीने में एक बार) लागू हुआ जिसमें आंकड़े केवल उन्हीं उद्योगों से आते हैं जहां दस से अधिक संख्या में श्रमिक काम करते हैं.

इसके साथ परेशानी यह है कि रोजगार के आंकड़े पेश करने में इसकी प्रकृति स्वाभाविक रूप से प्रतिबंधात्मक है और बेरोजगारी के आंकड़े के बारे में इसमें पूर्ण चुप्पी है. कुल मिलकर कहा जाए तो बेरोजगारी की कथित पराजय पर उत्सव मानाने का यह बहाना मात्र है.

2018 में एक इंटरव्यू में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि “नौकरियों की कमी से अधिक, समस्या नौकरियों पर डेटा की कमी है.” इसके बावजूद मोदी सरकार इस मोर्चे पर पर्याप्त कार्रवाई नहीं कर रही है.

इसके अलावा रोजगार पर प्रकाशित डेटा के सोर्सेज की संदिग्ध गुणवत्ता स्थिति को और गंभीर बना रही है. हाल ही में प्रकाशित EPFO पेरोल डेटा को कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

आलोचना इन आरोपों के आधार पर हो रही है कि यह डेटा वास्तविक पेरोल डेटा नहीं है, यह केवल पंजीकृत,रजिस्टर्ड संगठित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है जो कुल रोजगार का 10% से कम है. यह स्वरोजगार की अनदेखी करती है. यही कारण है कि देश में रोजगार के एक इंडिकेटर के रूप में और रिसर्च में इसकी उपयोगिता के संदर्भ में भी इसकी गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं.

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डेटा देश के स्वरोजगारों को नजरअंदाज करता है

EPFO इंडिया द्वारा प्रकाशित पेरोल डेटा की विश्वसनीयता पर इस मुद्दे को उजागर करते हुए, 2018 में घोष एंड घोष द्वारा किए गए एक स्टडी में सुझाव दिया गया है कि इस डेटा से निष्कर्ष को आंशिक रूप से लिया जाए. इसने बताया कि कैसे शोधकर्ताओं को NSSO डेटा की कमी खाल रही है, जिसने बेरोजगारी के आंकड़ों का प्रकाशन बंद कर दिया है.

NSSO को 1950 के दशक की शुरुआत में प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस द्वारा स्थापित किया गया था जिन्हें व्यापक रूप से "भारतीय सांख्यिकी का जनक" माना जाता है. NSSO-EUS डेटा देश में रोजगार से जुड़े आंकड़ों में इस तरह की गुणवत्ता की कमी की भरपाई कर सकता है.

श्रम मंत्री ने संसद में जिस PLFS (पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे) के आंकड़ों का हवाला दिया है, उसका भी यही हाल है.

डेटा ग्रामीण/शहरी, पुरुष या महिला के प्रत्येक समूह के लिए बेरोजगारी में गिरावट तो दिखा रहा है. लेकिन यह डेटा इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि गैर-कृषि क्षेत्र 2017-18 में 68.2% से लगातार बढ़कर 2020-21 में 71.4% हो गया है, जहां वर्किंग कंडीशन अनिश्चित और असुरक्षित है. आंकड़े इसके बारे में खामोश हैं.

डेटासेट और संकेतकों की अनुकूलता के कई मोर्चों पर, PLFS डेटा की विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं. पर्याप्तता के दृष्टिकोण से, PLFS डेटा को बेरोजगारी के और वास्तिक अनुमान बताने के लिए सर्वे सैंपल को बड़ा करने यानी इसके आधार को और बढ़ाने का भी सुझाव दिया गया है. इसका मतलब यह है किPLFS डेटा को अगर नीति निर्माण के अनुसार प्रासंगिक होना है तो इसमें सुधार की गुंजाइश बहुत बड़ी है.

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अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार बदलाव की आवश्यकता

डेटा नहीं होने के साथ-साथ एक मुद्दा और है. भारत में मौजूद रोजगार के मौजूदा आंकड़े अंतरराष्ट्रीय तुलना के योग्य नहीं हैं. अधिकांश उभरते और विकसित देशों के पास बेरोजगारी पर एक मजबूत और गुणवत्तापूर्ण डेटाबेस है. इसका कारण यह भी है कि वे बेरोजगारों को कई सामाजिक सुरक्षा/ सोशल सिक्योरिटी लाभ प्रदान करते हैं.

ब्यूरो ऑफ लेबर स्टेटिस्टिक्स (BLS),आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD), अंतर्राष्ट्रीय श्रम कार्यालय (ILO) और यूरोपीय यूनियन के सांख्यिकीय कार्यालय- Eurostat के विपरीत भारत के मामले में, हम अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण के मोर्चे पर पिछड़े हुए हैं. यही कारण है कि बेरोजगारी पर भारत के आंकड़ों की तुलना उन देशों के आंकड़े के साथ नहीं किया जा सकता है.

आंकड़ों की इतनी कमी भारत में केवल रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति तक ही सीमित नहीं है. भारत ने मानकीकृत और अपडेटेड डेटाबेस के जरिए विकास के महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के लिए लेखांकन/एकाउंटिंग की आवश्यकता को महसूस नहीं किया है.

कोरोना महामारी के कारण देरी से हुई 2021 जनगणना सार्वजनिक चर्चा के मंचों से गायब हो चुकी है क्योंकि सरकार इसमें और देरी कर रही है.

ऐसा लगता है कि डेटा की कमी और विश्वसनीय जानकारी की अनुपलब्धता ने संस्थागत रूप ले लिया है. इसके अलावा, सरकार 576 भाषाओं को शामिल करते हुए मातृभाषा सर्वेक्षण जैसे नए सर्वे लेकर आई है. इस तरह के सर्वे का स्वागत है लेकिन हमारी प्राथमिकता गुणवत्ता वाले बेरोजगारी के आंकड़ों को समय पर जारी करने की ओर होनी चाहिए. यह भारत में रिसर्च, संवाद और इस प्रकार नीति निर्माण को बढ़ावा दे सकते हैं.

(कैबाल्यापति मिश्रा जूनियर रिसर्च फेलो हैं और कृष्णा राज इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज, बैंगलोर में इकॉनमी के प्रोफेसर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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