मीडिया में आजकल ऐसा बहुत कुछ है जो भारतीयों को गर्व से भर देता है. भले ही वह कभी-कभी गलत भी हो. लेकिन विश्व मंच पर विदेश मंत्री जयशंकर (FM S. Jaishankar) का बर्ताव कुछ ऐसा है जिसे देखकर लगता है कि भारत ने अपना “नाम” कमा लिया है और आखिर उसे दुनिया में वह जगह मिल गई है जिसके वह काबिल है. यूं इसका बहुत बड़ा श्रेय खुद जयशंकर को जाता है. बाकी, इसकी वजह परिस्थितियां और चतुर राजनीति भी है. यह सब देखने को तब मिला जब विदेश मंत्री अमेरिका गए थे.
वैसे संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में विदेश मंत्री की टिप्पणियों के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है. वहां उन्होंने यूक्रेन युद्ध के कारण ईंधन, भोजन और उर्वरकों की विश्वव्यापी कमी का गंभीर मुद्दा उठाया था, उस संघर्ष में दृढ़ता से तटस्थ रहे थे और आतंकवाद के राजनीतिकरण के लिए चीन को दोषी ठहराया था, जब उसने यह मानने से इनकार किया था कि पाकिस्तान आतंकवाद को पनपने दे रहा है.
उन्होंने सबसे ज्यादा जलवायु परिवर्तन सहित दूसरी बातों की चेतावनी दी. असल में शायद ही कभी दुनिया, और भारत भी इस तरह एक के बाद एक विघटनकारी घटनाओं से प्रभावित हुआ हो. पिछले साल शेयर बाजार की उथल-पुथल ने इसका स्पष्ट संकेत दिया है. और हम बाकियों की तुलना में ज्यादा स्थिर हैं.
मामला गंभीर होता जा रहा है. और यही कारण है कि वह वाशिंगटन पहुंचे, न सिर्फ अमेरिकी विदेश मंत्री से मिलने के लिए, बल्कि पेंटागन जाने के लिए भी- जोकि अमेरिका के रक्षा विभाग का मुख्यालय है.
भारत-अमेरिका सैन्य संबंध सबसे अच्छे दौर में
दोनों पक्ष एक बात पर सहमत हैं कि दोनों पक्ष कभी एक दूसरे के करीब नहीं रहे. जैसा कि अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकन ने कहा, यह 'दुनिया में सबसे अधिक महत्वपूर्ण' नहीं हैं. यह कूटनीतिक बारीकी है. लेकिन इसकी कुछ खासियतें हैं. दस साल से भी कम समय में यह आपसी संदेह के संबंध से आगे बढ़ चुके हैं. भारत के साथ सैन्य संबंध बढ़ाने की नीति को अमेरिका में दोनों दलों- रिपब्लिकन और डेमोक्रेट- का समर्थन मिला है.
भारत-अमेरिका सैन्य संबंध लगभग हर मुद्दे पर संयुक्त कार्य समूहों के साथ बेहद व्यापक है, और इसके बढ़ने की संभावना है. फिर इसे हम भारत की दोहरी जीत कह सकते हैं क्योंकि न्यूयॉर्क में विदेश मंत्रियों की बैठक के साथ न केवल क्वाड, बल्कि भारत-इजराइल-यूएई-यूएसए (I2U2) में अपनी छाप छोड़ने जा रहा है. यानी कुल मिलाकर यह सब इस बात का संकेत है कि भारत अमेरिकी नीति में केंद्र में आ रहा है.
बेशक, मतभेद कायम हैं. इसकी वजह अफगानिस्तान और ईरान हैं जिनके चलते मध्य एशिया और यूरोप में भारत के दाखिल होने का सपना चकनाचूर हो सकता है. इसके अलावा रूस की डिफेंस सप्लाई और यूक्रेन का मुद्दा भी खड़ा है.
संयुक्त प्रेसर के दौरान विदेश मंत्री ने संकेत दिया था कि भारत ने एक ग्रेन शिपमेंट में मध्यस्थता की थी और यूक्रेन (जोकि एक महत्वपूर्ण व्यापारिक भागीदार भी है) और संयुक्त राष्ट्र से बात कर रहा था. लेकिन उन्होंने अपनी शैली में स्पष्टता से कहा कि तेल की कीमत "हमारी कमर तोड़ रही है".
भारत ने अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए यूक्रेन युद्ध की समाप्ति पर जोर दिया
यह भारत के लिए सबसे जरूरी है. बाकी सब कुछ दूसरे स्थान पर आते हैं. विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट, बुरा चालू खाता घाटा और गिरता रुपया. भारतीय रिजर्व बैंक अब तक पूरी मशक्कत करता रहा है. लेकिन वह इतना ही कर सकता है. युद्ध समाप्त होना जरूरी है.
असल में 'महत्वपूर्ण रिश्तों' के लिए दिल्ली को वाशिंगटन को इस बात के लिए राजी करना होगा कि वह रूस के साथ बातचीत करे. उसे घायल अवस्था में सबके साथ मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता. इसमें पाकिस्तान भी शामिल है, जिसे वाशिंगटन ने अपना एफ-16 का जत्था सौंपने के लिए चुना है.
यहां संदेह पैदा होता है कि अमेरिका फिर किसी शरारत के फिराक में है. यह जरूर महसूस हुआ है कि ब्लिंकन ने प्रेसर के दौरान निष्पक्ष दिखने का दिखावा किया. यह अंतरराष्ट्रीय संबंध है. नैतिकता की अपेक्षा न करें. वह होती ही नहीं है. आखिरकार, जैसा कि जयशंकर कहते हैं, यह सब राष्ट्रीय हित के बारे में है.
द्विपक्षीय रक्षा को मजबूत करने के लिए अमेरिका ने भारत में किया निवेश
सोशल मीडिया की उत्तेजना को बढ़ाने के लिए विदेश मंत्री का भरपूर स्वागत किया गया. इस धूमधाम के पीछे पेंटागन का मकसद साफ है. भारत अगले पांच से छह वर्षों में लगभग 130 बिलियन अमेरिकी डॉलर की खरीद के लिए तैयार रहे.
हाल ही में, रक्षा मंत्रालय ने 2020-21 में 1.83 ट्रिलियन रुपए के हथियारों के लिए ‘AON’s (आवश्यकता की स्वीकृति) को मंजूरी दे दी है, जो अनिवार्य रूप से एक अत्यंत कठिन प्रक्रिया का पहला कदम है. चूंकि हर देश अपने रक्षा क्षेत्र को मुस्तैद रखना चाहते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि अभी तक बहुत कुछ नहीं हुआ है. लेकिन चीजें हो रही हैं. आम राय के विपरीत कि मेक इन इंडिया ने रक्षा क्षेत्र को बहुत हद तक खोल दिया है, ऑटोमैटिक रूट से 74 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी मिल गई है और और उन इकाइयों के लिए 100 प्रतिशत, जो सिर्फ आर एंड डी, डिजाइन और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में काम करती हैं.
भविष्य की खरीद के लिए अमेरिकी निवेश पर ध्यान दिया जा रहा है जैसे नौसेना के कैरियर फाइटर्स (हां, हम कैरियर्स का जश्न मना रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई विमान नहीं मिला है), और भविष्य में आने वाले इन्फैंट्री कॉम्बैट वेहिकल्स, जिनमें से एक बड़ा हिस्सा भारत में बनाया जाना है.
भारत को अपने सुरक्षा उपायों को बढ़ाने की जरूरत है
अभी और भी है. अपनी आर्टिलरी से लेकर तोपों तक को देखिए- ये सब पुराने पड़ गए हैं. और अमेरिकी रक्षा उद्योग के लिए आगे रोमांचक समय है, जिसके कुछ हिस्सों को एक्सपर्ट्स के अनुसार भारी गिरावट का सामना करना पड़ा है.
अब संयुक्त वक्तव्य को देखें. यह अन्य बातों के अलावा, लॉजिस्टिक्स की बात करता है जोकि हमेशा से एक तार्किक विकल्प है. यह देखते हुए कि भारतीय प्रायद्वीप हिंद महासागर में कैसे उभरा है और "क्षेत्रीय सुरक्षा के लिहाज से भारत के योगदान में मदद देने में द्विपक्षीय संबंध का क्या महत्व है." वह भूमिका कुछ ऐसी है जिसकी रूपरेखा भारत को अभी बनानी है.
उदाहरण के लिए, जब हम श्रीलंका को 3.8 अरब डॉलर का ऋण देने में लगे थे और वहां चीन का जासूसी जहाज पहुंच गया था, तब हमारे पास सिर्फ एक डोर्नियर-228 था. यह काफी नहीं है. क्षेत्रीय सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है. इससे न सिर्फ अमेरिका के साथ बल्कि क्वाड सहयोगियों के साथ भी सहयोग किया जा सकता है.
उस समूहबंदी को न सिर्फ मीडिया ने महत्वपूर्ण कहा, क्योंकि यह एक मानवीय मुद्दा था, बल्कि समुद्री जागरूकता के हिसाब से भी यह हिंद-प्रशांत सहयोग का उदाहरण था. यह वह व्यापक दायरा है जिसके मातहत बहुत कुछ मुमकिन है.
क्या भारत-अमेरिका रक्षा संबंध विश्वस्तरीय हितों को पूरा करेंगे?
भारत-अमेरिकी रिश्तों के बीच सबसे बड़ी समस्या द्विपक्षीय नहीं है. इसे वैश्विक संदर्भों में काम करना है. संकटमय दौर ने दोनों को एक अनजाने इलाके में धकेल दिया है.
जबकि अमेरिका खुद को सबसे ऊपर रखना चाहता है, और इस कवायद में वह पहले से ही आर्थिक रूप से अस्थिर देशों पर व्यापार प्रतिबंध लगाएगा, दूसरी तरफ भारत अपनी विकास की गाथा को जारी रखना चाहता है, भले ही उसकी सरदहों पर जंग के मैदान तैयार किए जा रहे हैं.
यूक्रेन अभी सबसे जाहिर संघर्षों को झेल रहा है. इस सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने तीन रुकावटों का जिक्र किया है. एक, खाद्य और ऊर्जा जैसी वस्तुओं की ऊंची कीमतें मुद्रास्फीति को और बढ़ा रही हैं, जिससे आय में कमी आ रही है. दूसरा, व्यापार, आपूर्ति श्रृंखलाओं और रेमिटेंस में रुकावट आई है, और शरणार्थी बढ़ रहे हैं. तीसरा, कारोबारी विश्वास में कमी और निवेश अनिश्चितता का असर परिसंपत्तियों की कीमतों पर पड़ा है. वित्तीय स्थिति संकुचित हुई है, और उभरते बाजारों से तेजी से कैपिटल आउटफ्लो हो रहा है.
ऐतिहासिक रूप से, जब अर्थव्यवस्थाओं में रुकावट आती है तो युद्ध छिड़ने की आशंका कहीं अधिक होती है. यह विशेष रूप से उन देशों पर लागू होता है जो दूसरों के संप्रभु क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए उतारू हैं. जमीन और संसाधनों का यह संघर्ष ही दोनों देशों के लिए चुनौतियां खड़ी करता है.
भीतरी और बाहरी, दोनों तरह के तनाव के समय दोनों देशों को ऐसा रास्ता तलाशना होगा जोकि इस विश्वव्यापी अनिश्चितता को कम करे. हां, इससे खुद का नुकसान नहीं होना चाहिए. शुरुआत में हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमन कायम होना चाहिए- न ही एशिया में भी एक यूक्रेन तैयार हो जाए. इसके लिए चीन को उसी मंच पर आना होगा. चुनौती? आखिर, ग्रीस माइथोलॉजी के टाइटन एटलस, जिसके कंधों में पृथ्वी का बोझ रखा माना जाता है, के कंधे भी थक सकते हैं.
(डॉ. तारा कार्था Institute of Peace and Conflict Studies (IPCS) में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)