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भारतीय राजनीति, BBC और बैन कल्चर: मोदी ने इंदिरा-युग की परंपरा को ही आगे बढ़ाया

इंदिरा गांधी ने BBC पर पाबंदी लगाने के लिए राष्ट्रवाद के सदाबहार फॉर्मूले की आड़ ली थी. अब जो हो रहा वो मिलता-जुलता

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एक शख्स जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम (1930, 1941 और 1942 में) में हिस्सा लिया और जेल गया, संपादक रहा, 1949-51 में संविधान सभा का सदस्य रहा, मंत्री, स्पीकर और गवर्नर के पदों पर रहा. जाहिर है वह बनावटी राष्ट्रवादी नहीं रहा होगा. इसके बाद भी डीके बरुआ का बेशर्मी से भरा, सबसे बदनाम और असंवैधानिक बयान इतिहास में उनके नाम के साथ चस्पा है, “इंदिरा भारत हैं और भारत इंदिरा है!” (“Indira is India and India is Indira!”)

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उन्होंने चापलूसी की इंतेहा में Indira के नाम से ‘R’ को हटाकर नेता को देवता बनाने की बेशर्म परंपरा को संस्थागत बना दिया, जो भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय स्तर के सभी दलों में घर कर चुकी है.

‘गूंगी गुड़िया’ के तंज से लेकर ‘आयरन लेडी ऑफ इंडिया’ के नाम से कठोरता की मूर्ति और उससे भी आगे लिंग-भेदी टिप्पणी ‘अपनी कैबिनेट की एकमात्र पुरुष’ कही गई इंदिरा गांधी के इस कायापलट को डीके बरुआ, सिद्धार्थ शंकर रे, रजनी पटेल जैसे लोगों की चरण वंदना से बहुत मदद मिली.

ऐसी व्यक्ति-पूजा का ही नतीजा था कि संविधान के आर्टिकल 352 के तहत राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने कथित ‘आंतरिक गड़बड़ी’ का हवाला देते हए आपातकाल का ऐलान कर दिया, जो किसी राजनीतिज्ञ के सत्ता के नशे में खुद को सर्वशक्तिमान समझ लेने की निशानी है.

इंदिरा राज और बैन कल्चर

बुनियादी रूप से इंदिरा गांधी ने अपने प्रतिद्वंद्वियों (पार्टी के भीतर और विपक्ष में) को रौंद दिया था. रोक-टोक के सभी संस्थानों को कमतर कर दिया था. संविधान को बदल देने की सुगबुगाहट ने जोर पकड़ लिया था और चापलूसी का चलन सामान्य बात समझी जाने लगी थी.

इंदिरा को निजी तौर पर या उनके राजनीतिक कद को बौना बनाने वाली फिल्मों आंधी (Aandhi), किस्सा कुर्सी का (Kissa Kursi Ka), यमगोला (Yamagola) और नसबंदी (Nasbandi) वगैरह पर पाबंदी लगा दी गई थी. उनके मनमाने और आजादी को कुचलने वाले तौर-तरीकों की आलोचना करने वाले सलमान रुश्दी, वीएस नायपॉल या ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग चैनल (BBC) जैसे स्वतंत्र मीडिया चैनल उनकी पहुंच से दूर होने के चलते बचे रहे.

इंदिरा गांधी ने बीबीसी पर पाबंदी लगाने के लिए राष्ट्रवाद के सदाबहार फॉर्मूले का सहारा लिया था. “BBC ने कभी भी भारत को बदनाम करने का मौका नहीं छोड़ा” और इसमें सिर्फ “बदनाम भारत विरोधी खबरें” होती हैं जैसे तर्क दिए गए. ‘भारत-विरोधी’ स्टोरी की लिस्ट में (फैंटम इंडिया और कलकत्ता जैसी डाक्यूमेंट्री शामिल थीं) 1969 के अहमदाबाद सांप्रदायिक दंगों की कवरेज में शामिल थी.

तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हितेंद्र देसाई मुख्यमंत्री थे— बाद में जस्टिस जगनमोहन रेड्डी जांच आयोग ने दंगों के शुरुआती कुछ दिनों में, जब अल्पसंख्यक समुदाय को अधिकतम नुकसान पहुंचाया गया था, पुलिस की ढिलाई पर सवाल उठाया था.

जाहिर है कि इंदिरा गांधी अपने व्यक्तित्व या पार्टी के लिए इस तरह की नुकसान पहुंचाने वाली ऐसी रिपोर्टिंग की तारीफ नहीं करने वाली थीं. डीके बरुआ जैसे मेहरबानी पर पलने वाले चापलूस सहयोगियों की जमात ने व्यक्ति पूजा का माहौल बनाने में मदद की, और इंदिरा को ‘दुर्गा’ (विडंबना है कि यह नाम अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया था) देवी या द इकोनॉमिस्ट द्वारा ‘भारत की महारानी’ (Empress of India) कह कर उन्हें भारत का स्वाभाविक शासक बताया गया.

राजनीतिक तानाशाहों की झूठी तारीफें इतिहास में हमेशा की जाती रही हैं, और यह इंदिरा गांधी पर आकर खत्म नहीं हो जातीं. विडंबना है कि बाद में न केवल अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी आलोचना की, बल्कि बाद के कई लेखों में द इकोनॉमिस्ट ने भी इंदिरा गांधी की निंदा की. यहां तक कि जब इंदिरा गांधी के सितारे गर्दिश में आने लगे तो उनके सबसे मुखर समर्थक डीके बरूआ ने भी उनका साथ छोड़ दिया और विरोधियों के गुट में मिल गए.

यह सोच-समझ कर बनाया गया भारतीय राजनीति में पहला व्यक्ति-पूजा का पंथ था, जो जितनी तेजी से उभरा, उतनी ही तेजी से खत्म भी हो गया. लेकिन इसका खामियाजा सिर्फ इंदिरा गांधी को निजी रूप से नहीं भुगतना पड़ा, इससे भारतीय लोकतंत्र का जज्बा, ताकत और प्राथमिकताओं में जो बीमारी आ गई और इसे जो नुकसान हुआ उसे पलटा नहीं जा सकता था.

व्यक्ति पूजा का खामियाजा देश ने उठाया

31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की दुखद हत्या के बाद भी व्यक्ति-पूजा का चलन खत्म नहीं हुआ. हालांकि बाद के सालों में राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव, देवेगौड़ा, आईके गुजराल, वाजपेयी या यहां तक कि मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री कभी भी इंदिरा गांधी के तौर-तरीकों के उस स्तर तक नहीं पहुंचे.

इन सभी ने संस्थानों को अपने अनुकूल ढालने की पूरी कोशिश की, लेकिन क्षेत्रीय, सामाजिक, बौद्धिक या वैचारिक पहुंच बनाने की चंद कोशिशों को छोड़ कर इनमें से कोई भी इंदिरा गांधी की पूरे देश में लोकप्रियता के करीब नहीं पहुंच सका, जो आज तक चुनाव विश्लेषकों के लिए रहस्य है कि उन्होंने किस तरह 7वीं लोकसभा में अकेले दम पर सदन की दो-तिहाई सीटें हासिल कीं, जो कि जरूरी नहीं कि उनकी पार्टी की रही हों!

व्यक्ति पूजा का इको-सिस्टम गलत तरीकों से भरा होता है और उनके अहंकार ने पंजाब, जम्मू और कश्मीर जैसे राज्यों में उथल-पुथल मचा दी थी. व्यक्ति पूजा संस्कृति से उपजे उनके कई फैसलों की कीमत देश को चुकानी पड़ी.
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मोदी युग और व्यक्ति पूजा

अब सीधे 2014 पर आते हैं. राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक नई ताकत उभरी जिसने 70 साल से ऊपर के बूढ़े नेताओं को एक अनोखे ‘मार्गदर्शक मंडल’ (एक तरह का निदेशक मंडल, किस्मत से जिसकी कभी बैठक ही नहीं हुई) में डाल कर सभी संभावित विरोधियों और विकल्पों का सफाया कर दिया. और इससे भी जरूरी बात यह है कि अरुण शौरी, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, बीसी खंडूरी जैसे बेदाग शरीफ, ज्यादा उदार और बौद्धिक लोगों से छुटकारा पा लिया गया.

‘दुर्गा’ के पुराने धार्मिक सांकेतिक नाम से मिलता-जुलता ‘नमो (NaMo)’ मंत्र वापस लौट आया है, जिसका अर्थ संस्कृत में आज्ञा पालन या सम्मान में झुकना है. अंतरराष्ट्रीय और स्वतंत्र मीडिया शुरू से ही आलोचना पर असहिष्णुता को लेकर चिंता जताता रहा है, और इंदिरा गांधी के दौर की तरह ‘भारत-विरोधी’ जवाबी हमलों का सामना करता रहा है. अजीब संयोग से नैरेटिव और यहां तक कि जाहिर तौर पर ‘दुश्मनों’  के नाम भी उसी तरह के हैं– कहा जाता है कि हमने आपातकाल के शिकंजे से लोकतंत्र को बचाने के लिए जान की बाजी लगाकर लड़ाई लड़ी. यह अनोखा संयोग है.

महत्वपूर्ण बैठक की जगहों (संसद सहित) पर सर्वशक्तिमान नेता के नाम का जाप गूंजता है और इसके खास मायने हैं. इस इको-सिस्टम और संस्कृति पर कोई टोका-टाकी नहीं होती क्योंकि मंत्रमुग्ध (या सम्मोहित) दर्शक भी आगे इसी पर अमल करते हैं. इसकी स्वीकार्यता, जो चल रहा है और जो होने वाला है, दोनों बातों का इशारा भी है.

अमेरिकी लेखक रॉबर्ट ए. हेनलेन की सारगर्भित टिप्पणी, “अगर ऐसा करने की राजनीतिक ताकत मिलती है तो करीब-करीब हर संप्रदाय, पंथ या धर्म अपनी मान्यताओं को कानून बना देगा,” व्यक्ति पूजा से भारतीय संविधान को  खतरों के प्रति आगाह करता है, वो संविधान जिसकी कल्पना इस देश को बनाने वालों ने की थी, जो दशकों पहले इंदिरा गांधी के समय भी खतरे में पड़ गया था.

बहुत ही जाने-पहचाने नामों में एक रोचक नाम, जो हालांकि समय और हालात के उतार-चढ़ाव में गड्ड-मड्ड हो गया है, पत्रकार कूमी कपूर ने अपनी किताब द इमरजेंसी: ए पर्सनल हिस्ट्री में लिखा है, “जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित नेशनल हेराल्ड ने पूरे समय आपातकाल का समर्थन किया, और खामोशी से अपने मास्टहेड से यह उद्धरण हटा दिया- ‘आजादी संकट में है, अपनी पूरी ताकत से इसकी हिफाजत करें.’ तब से सिर्फ नाम और किरदार बदले हैं.

(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल हैं. आलेख में दिए विचार लेखक के अपने हैं और उनसे क्विंट हिंदी का सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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