ADVERTISEMENTREMOVE AD

महिला कारोबारियों की मदद जीडीपी के लिए नहीं, उनकी बेहतर जिंदगी के लिए भी जरूरी

बिजनेस में जेंडर गैप में भारत का तीसरा स्थान- भारत में शुरुआती चरण के एंटरप्रेन्योर्स में सिर्फ 33 प्रतिशत महिलाएं

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

45 साल की सहाना बीबी कोलकाता से सटे एक व्यस्त इलाके की पतली सी गली में रहती हैं. वह हर सुबह चार बजे उठती हैं और कोलाघाट और रानाघाट से ताजा फूल खरीदती हैं. कोलकाता के मल्लिक घाट बाजार में वह फूल बेचने का काम करती हैं. यह बाजार देश के सबसे मसरूफ और बड़े फूल बाजारों में से एक है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

सहाना मल्लिक घाट फूल बाजार में पिछले 35 साल से फूल बेच रही हैं. जब वह बच्ची थीं, तब अपने माता-पिता की मदद करती थीं. वे लोग फूल खरीदते थे और मंदिर जाने वाले लोगों को बेचते थे. सहाना दिन में आम तौर पर 18 घंटे काम करती हैं. कई बार रात को दुकान पर ही सो जाती हैं, ताकि सभी फूल बेच सकें (इससे पहले कि वे मुरझा जाएं).

ज्यादातर लोग सहाना से फूल या तो सजावट के लिए खरीदते हैं या मंदिर में चढ़ाने के लिए. करीब-करीब सारा बिजनेस ऑर्डर वह अपने पुराने, नोकिया 105 मॉडल फोन पर ही लेती हैं.

सहाना बीबी पढ़ी लिखी नहीं. लेकिन वह एक ऐसी एंटरप्रेन्योर हैं जिसकी कारोबारी समझ बहुत पैनी है. वह बताती हैं कि मल्लिक घाट में कौन-कौन से फूल बिकते हैं और इस बाजार में उनकी जैसी औरतों को दुकानदारी करने में किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

बाजार में फूलों और फूल से बनी चीजों की बहुत मांग है, लेकिन फिर भी वह यह सोचकर हैरान होती हैं कि राज्य सरकार (और उसकी एजेंसियां) बाजार के हालात को सुधारने या ज्यादा लोगों, खासकर कोलकाता आने वाले विदेश सैलानियों को आकर्षित करने के लिए कुछ खास नहीं करती. हुगली नदी के घाट पर बने इस फूल बाजार के प्राचीन रंग भी हैं और ऐतिहासिक स्मृतियां भी- और विदेशी सैलानियों को यह सब बहुत लुभाता है.

एंटरप्रेन्योर के तौर पर सहाना बीबी का सपना है कि उनके मुनाफे में इजाफा हो. फिलहाल उनका फायदा बहुत कम है- उन्हें 6 से 10 प्रतिशत का मौसमी मुनाफा ही होता है (यानी फूलों को खरीदने, लाने और सजावटी फूलों की पैकिंग वगैरह की औसत लागत के बाद जो बचता है).

इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए वह पूंजी ऋण (लोन के जरिए) लेना चाहती हैं जिससे एक अलग दुकान शुरू की जा सके. इस दुकान में छत हो, इंटरनेट लगा हो और तकनीकी मदद के लिए किसी प्राइवेट या पब्लिक एजेंसी से ट्रेनिंग ली जाए. चूंकि ऑनलाइन डिजिटल मौजूदगी से शहर में अपना ग्राहक आधार बढ़ाया जा सकता है.

यानी सहाना इस बात से वाकिफ हैं कि कारोबार बढ़ाने के लिए मोबाइल के जरिए इंटरनेट और दूसरे प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल किया जा सकता है. यह देखना काफी दिलचस्प है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

महिला कारोबारियों पर ध्यान देना क्यों जरूरी है ?

सहाना की कहानी निम्न आय वर्ग की लाखों महिला उद्यमियों की गाथा का एक छोटा सा अंश है जोकि संगठित क्षेत्र में नौकरियों की कमी की वजह से असंगठित क्षेत्र में काम करने को मजबूर हैं.

सहाना जैसी औरतों को अपना कारोबार शुरू करने और चलाने (जैसे ताजा फूल बेचना) में रोजाना कई तरह की मुसीबतों, संघर्षों और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. भले ही यह सब हमारे लेख के दायरे में न आता हो, लेकिन हमारा ध्यान इस तरफ जरूर जाना चाहिए.

हाल ही में क्रिया यूनिवर्सिटी के लीड इनीशिएटिव के सहयोग से आईवेज (iwwage) में एक रिपोर्ट पब्लिश हुई है. इसमें भारत के ‘महिला एंटरप्रेन्योरशिप’ की बुरी हालत की एक व्यापक तस्वीर देखने को मिलती है.

विश्व स्तर पर फैली महामारी और कर्फ्यू स्टाइल के लॉकडाउन ने छोटे उद्यमों को सबसे ज्यादा और बुरी तरह प्रभावित किया है. इनमें अधिकतर व्यापार महिलाओं की अगुवाई वाले हैं. इसलिए यह जरूरी है कि उनकी दिक्कतों को दर्ज किया जाए और उनका अध्ययन किया जाए ताकि सतत विकास को बढ़ावा दिया जा सके और महिला उद्यमिता के अवसर दिए जा सकें.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

आईवेज की रिपोर्ट मे महिलाओं की अगुवाई वाले उद्यमों के विकास की राह में आने वाली अड़चनों और हालात का जायजा लिया गया है और यह पता लगाने की कोशिश की गई है कि महिला उद्यमशीलता को कैसे बढ़ावा दिया जाए जोकि ‘बदलाव की एक ताकत’ भी है.

हमारे सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडी (सीएनईएस) ने कोलकाता, लखनऊ, झांसी, कटनी, पुणे और दिल्ली जैसे शहरों में 500 से ज्यादा महिला एंटरप्रेन्योर्स के केस-इंटरव्यूज़ को स्टडी किया. इनमें से ज्यादातर को अपने पैदाइश वाले शहरों में संगठित क्षेत्र में काम करने का मौका नहीं मिला. आखिर में उन्होंने उन शहरों के संवेदनशील, असंगठित (अनौपचारिक) क्षेत्र में अपना छोटा सा कारोबार शुरू कर दिया.

महिला रोजगार और महिला आधारित उद्यमिता, दोनों के लिए हालात संकट से भरे हुए महसूस होते हैं.

अगर हम नेशनल सैंपल सर्वे के राउंड 73 से मिले हाल के डेटा को देखें तो पता चलेगा कि एमएसएमई क्षेत्र में 21 प्रतिशत से भी कम महिला उद्यमियों का देश के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में एक बड़ा हिस्सा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

लेकिन देश के संगठित औपचारिक क्षेत्र में 100 एंटरप्रेन्योर्स में सिर्फ सात महिलाएं हैं और उनमें से करीब आधी (49.5 प्रतिशत) “किसी महत्वाकांक्षा की वजह से नहीं, जरूरत की वजह से” कारोबार में आई हैं. जैसा कि आईवेज की रिपोर्ट बताती है.

विश्व स्तर पर बिजनेस में जेंडर गैप वाले देशों में भारत का स्थान तीसरा है- भारत में शुरुआती चरण के एंटरप्रेन्योर्स में सिर्फ 33 प्रतिशत महिलाएं हैं. फीमेल एंटरप्रेन्योरशिप इंडेक्स में 77 देशों में भारत का स्थान 70वां है.

इन बुरे आंकड़ों की एक वजह यह है कि भारत में महिलाओं का लेबर फोर्स पार्सिपेशन रेट (एलएफपीआर) 16.4 प्रतिशत (15 से 29 साल के आयु वर्ग में) और 33 प्रतिशत (35 से 39 साल के आयु वर्ग में) है. एलएफपीआर श्रम बाजार में रोजगार करने वाली महिलाओं का शेयर है, जो या तो काम कर रही होती हैं या काम के लिए उपलब्ध होती हैं. ये आंकड़े 2017-18 के हैं और इसमें महामारी के असर पर विचार नहीं किया गया है.

30 से 35 साल के आयु वर्ग वाली हर तीन में से दो से ज्यादा महिलाएं श्रम बल में शामिल नहीं हैं. उनमें से ज्यादातर का कहना है कि वे ‘सिर्फ घरेलू काम कर रही हैं.’

ADVERTISEMENTREMOVE AD

भारतीय महिला एंटरप्रेन्योर्स की संख्या इतनी कम क्यों है?

जैसा कि सहाना बीबी और दूसरी एंटरप्रेन्योर्स के मामले में देखा गया, जिनका इंटरव्यू स्टडी के दौरान किया गया, ज्यादातर औरतों को नया कारोबार शुरू करने (और उसे चलाने) में बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.

सामाजिक कारणों और पुरुष प्रधान संस्कृति से जुड़ी अड़चनें तो थीं ही, जिनके चलते औरतों के लिए काम करना मुश्किल था. इसके अलावा एक परेशानी यह भी थी कि पैसा कहां से जुटाया जाए. और भी समस्याएं थीं जैसे बिजनेस सपोर्ट नेटवर्क न होना, सामाजिक सोच और मोबिलिटी कम होना.

लगभग हर महिला एंटरप्रेन्योर ने इस बात की शिकायत की कि उनकी लोन एप्लिकेशन या तो रद्द कर दी गई या बैंक वालों ने उसमें बहुत देर लगाई. आईएफसी की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, महिला एंटरप्रेन्योर्स की लोन एप्लिकेशंस का रद्द होना एक पूर्वाग्रह भरा कदम है और इस बारे में सभी जानते हैं. रिपोर्ट कहती है कि देश में महिला एंटरप्रेन्योर्स को जितने वित्त की जरूरत होती है, उसका करीब 70 प्रतिशत उन्हें नहीं मिल पाता. यानी अगर उन्हें दस रुपए की जरूरत होती है तो सिर्फ तीन रुपए ही उन्हें मिल पाते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

सरकार की तरफ से छोटे कारोबारियों को मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रीफाइनांस एजेंसी लिमिटेड) के तहत तीन ऋण योजनाए उपलब्ध हैं- शिशु, किशोर और तरुण. ये योजनाएं 50,000 रुपए से लेकर 10 लाख रुपए का ऋण मुहैय्या कराती हैं और इनमें से महिलाएं निचले वर्ग-शिशु में आती है (यानी 50,000 रुपए).

आईवेज की रिपोर्ट के अनुसार, “महिलाओं के पास हाई वैल्यू लोन्स लेने का आत्मविश्वास नहीं होता (फिलहाल). वे इससे घबरा जाती हैं. उनकी सोशल कंडीशनिंग इस तरह की गई है कि वे खुद अपने काम को कम करके आंकती हैं.”

जैसा कि रिपोर्ट कहती है, महिलाएं जोखिम उठाने से बचती हैं और इसीलिए छोटे लोन्स लेती हैं जिनके लिए उन्हें लगता है कि वे आसानी से उसे चुका सकती हैं.

दूसरी तरफ बैंक ऐसे लोन देने से कतराते हैं क्योंकि उन पर उन्हें कम ब्याज मिलता है. बड़ी राशि के बिजनेस लोन पर उन्हें 11-14 प्रतिशत का ब्याज मिलता है जबकि छोटी राशि वाले मुद्रा लोन्स पर 10 प्रतिशत से भी कम. दूसरी सरकारी योजनाओं के बारे में नए उद्यमियों को कम जानकारी होती है या वे लालफीताशाही में बुरी तरह फंस जाते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

महामारी ने हालात बदतर किए

महामारी से पहले अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर बहुत धीमी थी. इसके बाद महामारी ने उसकी कमर तोड़ दी. 2020 में केंद्र सरकार ने एमएसएमईज़ के लिए राहत उपायों का ऐलान किया.

लेकिन महिला एंटरप्रेन्योर्स के लिए कोई खास उपाय नहीं किए गए. 2020 के बेन-गूगल-एडब्ल्यूई फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार, इस दौरान महिलाओं के नेतृत्व वाले 73 प्रतिशत कारोबारों पर बहुत बुरा असर हुआ है. इनमें से करीब 20 प्रतिशत बंद होने की कगार पर हैं.

इस संकट ने महिला एलएफपीआर की निम्न दर को बदतर किया है और पारिवारों के ऋण दबाव को और बढ़ाया है. इससे महिलाओं के लिए कारोबार शुरू करना और मुश्किल हुआ है. कोविड की दूसरी लहर, पहली से भी खौफनाक थी. उसके असर का आकलन करना अभी बाकी है.

जरूरत इस बात की है कि महिलाओं के रोजगार को बढ़ाने, और महिला उद्यमियों को बढ़ावा देने पर तत्काल ध्यान दिया जाए और समझ-बूझकर नीतियां बनाई जाएं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मान देसी फाउंडेशन जैसे सामाजिक संगठनों ने इस सिलसिले में काफी काम किया है. इसके अलावा कई राज्यों में सामुदायिक एकजुटता की कोशिशें भी की गई हैं. महिलाओं में व्यावसायिक कौशल विकसित किया जा रहा है. लेकिन इस समस्या की प्रकृति ढांचगत है. ये सभी कोशिशें स्थानीय स्तर पर, और छोटे पैमाने पर की जा रही है.

अगर महिलाओं की वित्त तक पहुंच हो, बड़े लोन्स के लिए कोलेट्रल मिले, उद्यम शुरू करने (और रोजगार के लिए) बिजनेस स्पेस उपलब्ध हो, तो देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि होगी (जब जीडीपी बढ़ेगी) और बेरोजगारी दर में भी गिरावट आएगी.

आईएमएफ की स्टडी के अनुसार, इससे जीडीपी में 7 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान है. लेकिन सिर्फ वृद्धि दर के पैमाने के लिहाज से नहीं, भारत की महिलाओं का प्रतिनिधित्व और कल्याण इसलिए भी जरूरी है कि सहाना जैसी लाखों औरतें एक बेहतर जिंदगी डिजर्व करती हैं. उनकी बेहतर जिंदगी किसी भी ‘महत्वाकांक्षी’ देश से बढ़कर है.

(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह फिलहाल कार्लटन यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर हैं. वह @prats1810 पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×