ट्रिपल तलाक पर अदालत में बड़े धमाके का लंबा इंतजार आखिर में एक फुसफुसाहट जैसा साबित हुआ. यह कह पाना मुश्किल है कि फैसले का अनुपात क्या रहा. दो जजों ने कहा कि ट्रिपल तलाक की प्रथा संविधान के आर्टिकल 25 द्वारा संरक्षित है, इसलिए यह संविधान-सम्मत है. दो ने कहा कि यह असंवैधानिक है, क्योंकि यह आर्टिकल 14 का उल्लंघन करता है और जाहिर तौर पर मनमाना है. एक ने कहा कि यह गैर-इस्लामी है, इसलिए गैर-कानूनी है.
इस तरह कहा जा सकता है कि अब इस देश में ट्रिपल तलाक गैरकानूनी है. तीन जजों के बहुमत का फैसला इस एक बात के लिए स्वागत के योग्य है.
दो जज, जस्टिस आर. नरीमन और जस्टिस यूयू ललित इस नतीजे पर पहुंचे कि ट्रिपल तलाक अब चूंकि विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानून का हिस्सा है, इसलिए इसका मौलिक अधिकारों के अनुकूल होना जरूरी है. इसे धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण नहीं मिलेगा. यह अदालत के फैसले का सबसे महत्वपूर्ण अंग है. पहली बार पारिवारिक मसलों का निपटारा करने वाले कानून को संविधान की व्यवस्था के अधीन लाया गया है.
इस मामले में सबसे जटिल सवाल यह था कि क्या इससे धर्म की स्वतंत्रता का हनन होता है?
“हम पहले ही देख चुके हैं कि हनफी विचारधारा की मान्यता में इसकी इजाजत होने के बावजूद ट्रिपल तलाक को गुनाह मानते हुए इसे जड़ से ही खत्म कर दिया गया. इस तरह, साफ है कि ट्रिपल तलाक आर्टिकल 25 (1) के तहत नहीं आता.”
दो अन्य जजों, चीफ जस्टिस खेहर और जस्टिस नजीर ने इसके उलट राय दी:
“हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ‘तलाक-ए-बिद्दत’ हनफी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले सुन्नी मुसलमानों के पर्सनल लॉ का विषय है. यह उनकी आस्था का मसला है. वह लोग 1400 साल से इसका पालन कर रहे हैं. हमने इसकी पड़ताल की कि क्या यह प्रथा संविधान के आर्टिकल 25 के प्रावधान के अनुरूप है और हम इस नतीजे पर पहुंचे कि यह उनमें से किसी का भी उल्लंघन नहीं करती. हम इस नतीजे पर भी पहुंचे कि इस प्रथा को पर्सनल लॉ का हिस्सा होने के कारण संविधान के आर्टिकल 25 का संरक्षण हासिल है.”
लेकिन यह तर्क देश में धर्मनिरपेक्षता के लिए गंभीर खतरा पेश करता है. यह धर्म के कानूनी क्षेत्र और फैमिली लॉ में भी अंतर नहीं कर पा रहा है. चीफ जस्टिस ने यहां तक कहा कि:
“धर्म आस्था का विषय है, न कि तर्क का. यह अदालत के लिए उचित नहीं होगा कि धर्म के किसी अटूट हिस्से वाली किसी प्रथा पर समानतावादी सोच को थोपा जाए. संविधान सभी धर्मों के मानने वालों को, अपनी आस्था और धार्मिक परंपराओं का पालन करने की इजाजत देता है. संविधान सभी आस्थाओं के मानने वालों को भरोसा देता है कि उनके जीवन जीने के ढंग को, हर हाल में, हर तरह की तरह की चुनौती से महफूज रखा जाएगा, भले ही वह आज की दुनिया और जमाने में दूसरों (और उसी संप्रदाय को मानने वाले विवेकशील लोगों को भी) को अस्वीकार्य लगती हो. ”
धर्म की स्वतंत्रता
जब धार्मिक अंतरात्मा लोगों को एक साथ जोड़ती है, तो यह इस सवाल का जवाब नहीं देती कि तब क्या करना चाहिए, जब अंतरात्मा स्त्री की समानता का उल्लंघन करती है? क्या आस्था के सभी मसले धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत संरक्षित हैं? कल को अगर तर्क दिया जाए कि टोना-टोटका आस्था का अंग है और धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत इसको संरक्षण मिलना चाहिए तो?
अदालत इस तर्क पर क्या कहेगी अगर तर्क दिया जाता है कि कुछ लोगों को भरोसा है कि और यह आस्था का सवाल है कि राम अयोध्या में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर पैदा हुए थे और आस्था को धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत संरक्षण हासिल है? इसमें कोई शक नहीं कि जब दिसंबर में मुकदमे में बहस चल रही होगी तो यह अल्पमत निर्णय वहां भी पेश किया जाएगा.
लेकिन कहानी इन चार जजों पर ही खत्म नहीं हो जाती, पांचवें जज जस्टिस कुरियन जोसेफ ने फैसला दिया:
“जो बात कुरान पाक में बुरी कही गई है, वह शरीयत में अच्छी नहीं हो सकती और इसी तरह जो चीज धर्मशास्त्र में खराब है, तो कानून में भी खराब ही होगी.”
जस्टिस कुरियन जोसेफ का वोट निर्णायक वोट था, इसलिए अब ट्रिपल तलाक गैरकानूनी है. चीफ जस्टिस इस मसले पर बंटी हुई अदालत को छोड़कर शुक्रवार को पद से रिटायर हो जाएंगे. असली समस्या है यह तय नहीं कर पाना कि धर्म के कानूनी दायरे में क्या आएगा और क्या नहीं. यह मसला आसानी से सुलझने वाला नहीं है. ऐसे तमाम मुद्दों पर फैमिली लॉ से परे भी धर्मनिरपेक्षता के सवाल को लेकर इसका बहुत गंभीर असर होगा.
लिंग के आधार भेदभाव क्यों
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अदालत फिर उस सवाल से किनारा कर गई कि क्या यह कानून लिंग के आधार पर महिला से भेदभाव करता है, और क्या उसके अधिकार का उल्लंघन करता है? फैसले में इस पर चर्चा नहीं की गई कि महिलाओं के लिए जेंडर जस्टिस का क्या अर्थ है? जस्टिस रोहिंगटन नरीमन ने कानून को खत्म कर देने के बजाय कहा कि यह मनमाना है.
यह कानून मनमाना तो है ही, साथ ही लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाला भी है और कोई वजह नहीं कि संविधान के तहत जेंडर जस्टिस की नींव मजबूत करने के लिए इसे जड़ से खत्म कर दिया जाना चाहिए.
वर्ष 1950 से ही सुप्रीम कोर्ट इस सवाल से बचता रहा है कि क्या फैमिली लॉ संविधान के दायरे से बाहर है. इस फैसले से एक नई पहल हुई है. इस फैसले से न सिर्फ मुस्लिम महिलाओं, बल्कि सभी महिलाओं को फायदा होगा, क्योंकि हर फैमिली लॉ में महिलाओं के साथ भेदभाव हुआ है.
बहुमत के फैसले में हालांकि और बेहतर तर्क दिए जा सकते थे, फिर भी इसमें ट्रिपल तलाक की प्रथा को खत्म कर देने की ताकत है और यह भी बहुत सी महिलाओं के लिए बड़ी राहत है. इसके जरिए मुस्लिम मर्दों पर छह महीने तक ट्रिपल तलाक देने पर रोक लगा दी गई है, लेकिन किसी भी अदालत के पास तलाक को वैध ठहरा देने के बाद उसे रोक पाने की शक्ति नहीं है. यह सिर्फ एक मत है, जिसका कोई कानूनी आधार नहीं है और बहुमत फैसले के मद्देनजर इसकी आसानी से उपेक्षा की जा सकती है.
इस जटिल मुद्दे का एक ही समाधान है कि शादी को दो व्यक्तियों के बीच एक करार की तरह माना जाए, जिसमें शादी टूटने की स्थिति में महिलाओं के अधिकार साफ-साफ बताए गए हों. यही तरीका भविष्य की राह तय करेगा. जैसा कि जस्टिस नरीमन ने कहा है:
“कुछ खास परिस्थितियों में करार टूट सकता है, लेकिन इसके बारे में कुछ चीजें आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक हैं- मुस्लिम विवाह की वैधानिकता के लिए इसकी सार्वजनिक घोषणा जरूरी शर्त नहीं है, न ही कोई धार्मिक अनुष्ठान बहुत जरूरी है, लेकिन आमतौर पर इसे निभाया जाता है.”
यह इसी आधुनिकता की देन है कि हम हर तरह की आस्था रखने वाली महिलाओं के लिए शादी टूटने की स्थिति में संयुक्त संपत्ति में अधिकार के साथ हिस्सेदारी ले सकते हैं.
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