मीन-मेख निकालने वालों और आदतन नुक्ताचीनी करने वालों को छोड़ दें, तो इतना तो मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मैक्रो-इकनॉमी के मोर्चे पर अच्छा काम किया है. जिस तरह से इंसान की सेहत का हाल ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर और कोलेस्ट्रॉल देखकर लगाया जा सकता है, उसी तरह अर्थव्यवस्था की सेहत को मापने के भी तीन पैमाने हैं.
जब मोदी पांच साल पहले सत्ता में आए थे, तब ये तीनों पैमाने खतरनाक जोन में थे. उन्हें 1991 की तरह विरासत में आर्थिक संकट मिला था, जब महंगाई दर दोहरे अंकों में पहुंच गई थी, विदेशी मुद्रा भंडार घट गया था.
मोदी ने महंगाई दर की समस्या खत्म कर दी है. उनके सत्ता में आने के वक्त ये दोहरे अंकों में थी. आज ये 4 पर्सेंट से भी कम हो गई है. विदेशी मुद्रा भंडार में पांच साल पहले तेजी से गिरावट आ रही थी, जबकि आज इस मामले में हम कंफर्टेबल पोजिशन में हैं.
राजकोषीय घाटे को भी मोदी ने काबू में रखा है. सरकार ने ये मुकाम लोकलुभावन नीतियों पर चलकर हासिल नहीं किया है. एनडीए सरकार ने इन तीनों मैक्रो-इकनॉमिक इंडिकेटर्स को काबू में रखने की राजनीतिक कीमत चुकाई है.
इसी वजह से आज वस्तुओं और सेवाओं की मांग कम है, जिसका उद्योगों और रोजगार पर बुरा असर पड़ रहा है. विपक्ष ने इन मुद्दों को राजनीतिक हथियार बना लिया है. इसमें भी शक नहीं है कि मोदी की इन उपलब्धियों से नई सरकार की लाइफ बहुत आसान हो जाएगी.
ये वैसा ही होगा, जैसे एनडीए 1 के 2004 में सत्ता से हटने के बाद यूपीए 1 की लाइफ काफी आसान रही थी. अगर एनडीए की सत्ता में फिर से वापसी होती है, तो बेशक उसे ही इसका फायदा मिलेगा. अगर ऐसा नहीं होता है, तो कांग्रेस की चांदी होगी.
पिछले दो दशकों में देश की अर्थव्यवस्था की यह सबसे बड़ी विडंबना रही है. एनडीए अर्थव्यवस्था की मरहम-पट्टी करती है और यूपीए सत्ता में आने के बाद उसे लहुलूहान कर देती है. 1996 के बाद कांग्रेस के साथ भी ऐसा हो चुका है, जिसने इससे पहले के पांच साल में बड़े आर्थिक सुधार किए थे.
राजनीतिक अप्रोच
आप चाहे जो भी कहें, मैक्रो-इकनॉमी को लेकर मोदी की अप्रोच की मजबूत राजनीतिक बुनियाद भी रही है. कम महंगाई दर, विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोतरी और विदेशी निवेश का प्रवाह बनाए रखने से देश बैलेंस ऑफ पेमेंट यानी भुगतान संकट से कोसों दूर रहा. इनमें से हर बिंदु के साथ आर्थिक पहलू जुड़ा है, जिस पर कोई राजनीतिक पार्टी भी फख्र कर सकती है. मोदी ऐसा ही कर भी रहे हैं.
लोकसभा में अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि सरकार की सूझबूझ के कारण भारत ‘फ्रैजिल फाइव’ देशों की लिस्ट से बाहर निकल सका. 2013 में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारत को ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की और दक्षिण अफ्रीका के साथ इस लिस्ट में डाला था. इन देशों से उस समय उन्होंने काफी पैसा निकाला था, जिससे वहां के शेयर बाजार और करेंसी में भारी गिरावट आई थी.
आज भारतीय शेयर बाजार नए शिखर से थोड़ा ही नीचे है और विदेशी निवेशक भारत पर बुलिश हैं. ‘फ्रैजिल फाइव’ से ‘फैबुलस फाइव’ तक का यह सफर मोदी सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड की गवाही देता है.
फ्रैजिल फाइव लिस्ट के बाकी चार देश जहां अभी भी संघर्ष कर रहे हैं, वहीं भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन चुका है. यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भी कहा है कि गर्द-ओ-गुबार से घिरी वैश्विक अर्थव्यवस्था का भारत चमकता हुआ सितारा है.
सरकारी खजाने की हालत ठीक रखने पर सरकार के जोर के कारण ही राजकोषीय घाटा आज कम होकर 3.2 पर्सेंट रह गया है. हालांकि वैश्विक मांग कमजोर होने से चालू खाता घाटा अभी भी समस्या बना हुआ है. यह 2 पर्सेंट के करीब है.
एक और मुश्किल निजी क्षेत्र की तरफ से निवेश नहीं बढ़ने की है. इसका कारण बैंकिंग सिस्टम पर बैड लोन का भारी-भरकम बोझ है. इस वजह से ग्रोथ प्रभावित हो रही है. इसका रोजगार पर बुरा असर पड़ रहा है, जो सरकार के लिए राजनीतिक मुसीबत बन गई है.
बीजेपी समर्थक कह रहे हैं कि सबसे बुरा दौर गुजर चुका है. शायद उनकी बात सही हो, लेकिन सच यह भी है कि मोदी सरकार ने ‘फ्रैजिल फाइव’ लिस्ट से भारत को बाहर निकालने के लिए जो किया है, उससे एक और समस्या खड़ी हो गई है. रोजगार की यह समस्या कितनी बड़ी है, इसका पता तब चलेगा, जब वोटर मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर फैसला सुनाएंगे.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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