शाजी शफीक (35) अपने तीन सदस्य वाले परिवार के लिए हर हफ्ते किराने के सामान पर 4,000 रुपये खर्च करती हैं. साल 2012 में जब उनकी शादी हुई थी तब से अब ये राशि दोगुना हो गई है.
उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया, "निश्चित रूप से बेटी के जन्म के बाद खर्चे बढ़े हैं. वर्क फ्रॉम होम ने हिसाब किताब को थोड़ा आड़ा तिरछा कर दिया है लेकिन निश्चित तौर पर 10 साल पहले जितना हम खर्च करते थे, आज वो दोगुना हो गया है. "
हमने हिसाब किताब लगाया : परिवार के तीन सदस्यों के लिए एक सप्ताह के लिए किराने का सामान (5 लीटर दूध, 2 किलो चावल, 2 किलो गेहूं का आटा, 1 लीटर तेल, दाल, एक दर्जन केले, 1 किलो सेब और आलू, प्याज और टमाटर 2 KG जिनकी कीमतें होल सेल और रिटेल दोनों में ही मार्च 2012 से लेकर मार्च 2022 में 68 परसेंट तक बढ़ गई हैं.
CPI यानि कंज्यूमर फूड प्राइस इंडेक्स के एक तुलनात्मक डाटा के हिसाब से जनवरी 2014 से जनवरी 2022 के बीच खाने-पीने के सामानों की कीमतें 70 फीसदी तक बढ़ गई हैं.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर लेख चक्रवर्ती ने कहा, " ग्लोबल फैक्टर्स जैसे कृषि उपज, एनर्जी और यूनाइटेड स्टेट्स फेडरल रिजर्व के ब्याज दरें बढ़ाने के साथ कोविड लॉकडाउन से सप्लाई में रुकावटों के कारण महंगाई बढ़ी है.
कैसे होती है महंगाई की गणना ?
गुड्स और सर्विसेज की कीमतें जिस दर से बढ़ती है उसे महंगाई कहते हैं. भारत में, इसे साल-दर-साल मापा जाता है, जिसका अर्थ है कि एक महीने की कीमतों की तुलना पिछले साल के उसी महीने की कीमतों से की जाती है. इससे हम अंदाजा लगा पाते हैं कि किसी जगह पर समय अवधि में रहन सहन की कीमतें कितनी बढ़ती हैं.
सांख्यिकी मंत्रालय के डेटा के हिसाब से मार्च 2021 की तुलना में मार्च 2022 में खाद्य कीमतें 7.68 प्रतिशत अधिक थीं. नवंबर 2020 के बाद से खाने-पीने के सामानों की कीमतों में ये दूसरी सबसे बड़ी तेजी है. दरअसल 2019 की तुलना में साल 2020 में खाद्य महंगाई 9.5 फीसदी अधिक थी.
जनवरी 2014 से फूड इन्फ्लेशन के तुलनात्मक आकंड़े CPI में उपलब्ध हैं. अगर हम एक औसत लगाएं तो जनवरी 2014 और मार्च 2022 के बीच खाद्य कीमतें हर महीने 4.483 % बढ़ी. इसका मतलब हुआ कि अगर जनवरी 2013 में कोई फूड प्रोडक्ट 100 रुपये में आता था तो अब उसकी कीमत बढ़कर लगभग 170 रुपये हो गई है.
मुंबई के इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ रुरल डेवलवमेंट में इकोनॉमिस्ट राजेश्वरी सेनगुप्ता कहती हैं आगे भी महंगाई बढ़ सकती है. WPI यानि होल सेल प्राइस इंडेक्स 10 साल के उच्चतम स्तर पर है. जब गुड्स और सर्विस के प्रॉड्यूसरों की लागत बढ़ती है तो फिर वो इसे कंज्यूमर पर इसका भार थोपते हैं.
सेनगुप्ता कहती हैं -जहां महामारी के चलते गुड्स और सर्विसेज की मांग कमजोर रही है वहीं सप्लाई भी सुस्त ही है. खासकर तेल की कीमतें बढ़ने और रूस यूक्रेन युद्ध से सप्लाई बहुत प्रभावित हुई है.
तेल, मीट, मछली और रेडीमेड फूड हुए महंगे : सांख्यिकी मंत्रालय का डाटा
शाजी के परिवार के खानपान में अभी महंगाई की वजह से कोई बदलाव तो नहीं आया है लेकिन वो मटन और इंपोर्टेड फल (जो उनकी बेटी को बहुत पसंद है) की बढ़ती कीमतों से चिंतित जरूर हैं. उन्होंने कहा " मैं पैसे बचाने के लिए सोचती रहती हूं. महंगाई की मार कम करने के लिए किस तरह के और कौन से खाद्य पदार्थ में कटौती करना चाहिए लेकिन फिलहाल अभी तक डायट प्लान में कोई बदलाव नहीं किया है
बढ़ती महंगाई से कंज्यूमर को कई बार बाहर खाना खाने से पहले सोचना पड़ता है, वहीं रेस्टोरेंट मालिक अब अपने मुनाफे को लेकर चिंतित हैं. शाजी के पति सैम जफर जो गुरुग्राम के एक फास्ट फूड ज्वाइंट में पार्टनर हैं और ग्रुरुग्राम की एक फैसिलिटी मैनेजमेंट कंपनी में बिजनेस डेवलपमेंट और मार्केटिंग हेड हैं, बताते हैं – फूड और रेस्टोरेंट बिजनेस के लिए महामारी एक बड़ा झटका था. तेल,चिकन और सब्जी उनके रेस्टोरेंट के लिए अति आवश्यक चीजें हैं क्योंकि वो बर्गर बनाने में स्पेशलाइज्ड हैं.
अब खाद्य पदार्थ की सप्लाई में भारत समेत पूरी दुनिया में उठापटक (कोविड लॉकडाउन की वजह से) के अलावा अब हमें कच्चा माल, तेल, पानी और इलेक्ट्रिसिटी की बढ़ती कीमतों का भी सामना करना पड़ रहा है. इसके अलावा जिन कर्मचारियों को हमने नौकरी पर रखा वो लॉकडाउन की वजह से चले गए और उनकी जगह हम नए किसी को ज्यादा पैसे दिए बिना नौकरी पर रख नहीं सकते. क्योंकि उनको भी तो इस भारी महंगाई का सामना करना पड़ रहा है.
अभी सबसे ज्यादा खाद्य तेल की महंगाई बढ़ी है. अगर पिछले साल मार्च से इस मार्च की तुलना करें तो ये 18.8 परसेंट तक बढ़ी है और इसके बाद मीट और मछली की महंगाई है जो 9.62 परसेंट बढ़ी है.
शाजी का परिवार मीट तो स्थानीय बाजार से लेते हैं ताकि अंतरराष्ट्रीय इवेंट्स से सप्लाई प्रभावित नहीं हो. लेकिन भारत ने साल 2019-20 की तुलना में साल 2020-21 में 55.78 % तेल ज्यादा इंपोर्ट किया है, साल 2020-21 में भारत ने 1.7 मिलियन टन खाद्य तेल यूक्रेन से मंगाया. अब युद्ध , पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ने और सप्लाई चेन में संकट आने से कीमतें ज्यादा बढ़ गई हैं.
ज्यादा महंगाई से आर्थिक रिकवरी को रिस्क
RBI ने 29 अप्रैल को अपनी रिपोर्ट में कहा है कि महामारी का जो असर भारत पर हुआ है उससे भारत साल 2034-35 तक ही उबर पाएगा. वो भी तभी जब साल 2022-23 से हमारी सालाना ग्रोथ 7.2 से 7.5 फीसदी की दर से बढ़ती रहे. साल 2020-21, भारत की जीडीपी यानि ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन इंडेक्श जिससे अलग-अलग सेक्टर में ग्रोथ की रफ्तार की जानकारी होती है वो भी फरवरी 2022 में पिछले साल की तुलना में कम है. बेरोजगारी जो कि मई 2021 में 11.84 फीसदी के उच्च स्तर पर पहुंच गई थी वो अप्रैल 2022 में घटकर जरूर 7.83 फीसदी पर है लेकिन अभी भी चिंताजनक है. और फिर बेरोजगारी में ये गिरावट फरवरी और मार्च 2022 में 3.8 मिलियन कामकाजी लोगों की संख्या घटने से भी आई है.
सेनगुप्ता ने बताया कि रूस-यूक्रेन युद्ध और चीन में लॉकडाउन से कोयला और पावर की कमी पैदा हो गई है. इसके अलावा ऑटो इंडस्ट्री के लिए सेमीकंडक्टर की शॉर्टेज भी हो गई है. साथ ही फूड, एडिबल ऑयल और कंस्ट्रक्शन मैटीरियल की भी परेशानी इस वजह से बनी हुई है.
इससे एक ऐसी स्थिति बन जाती है जहां सप्लाई से ज्यादा डिमांड बढ़ जाती है और नतीजतन कीमतें बढ़ने लगती हैं. ऐसा पहले भी हुआ है, 10 साल से भी पहले, जब पहली बार 2004-2007 के दौरान, मांग में तेजी के कारण 2006 में होल सेल महंगाई बढ़ने लगी थी. सेनगुप्ता ने कहा कि 2007 में, कृषि उत्पादों की कीमतें विश्व स्तर पर बढ़ने लगीं और 2008 में चरम पर पहुंच गईं, जिससे थोक कीमतें और बढ़ीं और फिर इसका असर कंज्यूमर प्राइस पर पड़ा. इसके अलावा उन्होंने कहा, 2009 में कम बारिश होने से भारत में खाद्य कीमतें बढ़ गईं, जिससे डिमांड भी बढ़ गई.
RBI महंगाई रोकने वाला केंद्रीय बैंक है
अप्रैल 2021 की RBI की क्रेडिट पॉलिसी रिपोर्ट के अनुसार, आरबीआई को मार्च 2026 तक महंगाई को 4 प्रतिशत पर और 2 प्रतिशत से कम या 6 प्रतिशत से ऊपर नहीं रखना है. पिछले तीन महीनों से महंगाई 6 प्रतिशत से ऊपर रही है, और यह सेनगुप्ता के अनुसार अब आरबीआई के लिए मांग बढ़ाने में मदद करना मुश्किल होगा.
आमतौर पर, मांग बढ़ाने के लिए, आरबीआई कमर्शियल बैंकों को जिस दर पर कर्ज देता है यानि रेपो रेट उसे घटा देता है. कम रेपो रेट रहने पर कमर्शियल बैंक ज्यादा लोन ले सकते हैं. वहीं इसके उलट जब जब रेपो दर अधिक होती है, तो बैंक अपनी उधारी कम कर देते हैं. इस प्रकार इकोनॉमी में नकदी कम हो जाती है.
आरबीआई ने 4 मई 2022 को रेपो दर को 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 4.4 प्रतिशत कर दिया. मई 2020 के बाद पहली बार इसे बदला गया. आरबीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि मजबूत सतत विकास के लिए कीमतों में स्थिरता आवश्यक है. पॉलिसी के बारे में बताते हुए RBI ने मुंबई में कहा कि RBI, महंगाई को अपने लक्ष्य के हिसाब से कंट्रोल में रखने के लिए लिक्विडिटी में सख्ती करता रहेगा लेकिन ग्रोथ को सपोर्ट करने के लिए एकोमोडेटिव स्टांस यानि पैसे की उपलब्धता बनाए रख सकता है.
RBI ने अभी जो कदम उठाए और अपना इरादा जाहिर किया है इसे वो थोड़ा पहले भी कर सकता था. सेनगुप्ता के मुताबिक "RBI ने जो बातें कहीं वो बहुत उलझाने वाली हैं और इससे कन्फ्यूजन ही बढ़ती हैं. एक साथ एकोमोडेटिव यानि पैसे की कमी नहीं होने देने की बात करना और फिर रेपो रेट बढ़ाना मतलब कर्ज महंगा करना, दोनों समझ में नहीं आती है.
आरबीआई बैंकों को अपने अतिरिक्त फंड को आरबीआई के पास रेपो रेट से कम दर पर रखने की अनुमति देकर महंगाई पर भी अंकुश लगा सकता है. चक्रवर्ती ने समझाया, "अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त लिक्विडिटी को कम करने के लिए standing deposit facility का इस्तेमाल किया जाता है. इसका मतलब यह है कि जिस पैसे की इकोनॉमी में कोई मांग नहीं है वो RBI के पास के पास वापस आ जाता है. इसका अर्थ है कि गुड्स और सर्विसेज जितना चाहिए उसकी तुलना में पैसे की उपलब्धता कम है तो कीमतें सामान्य हो जाएंगी.
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