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100 रुपए के डीफॉल्ट पर पांच रुपए ही मिलें, तो IBC जैसे कानून का क्या फायदा

हाल ही में वीडियोकॉन ग्रुप की 13 कंपनियों का मामला इसकी मिसाल है

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इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता यानी आईबीसी को देश का बड़ा बैंकिंग संकट दूर करना था. लेकिन पिछले चार साल (इसे 2016 में शुरू किया गया) के दौरान इसकी काबिलियत पर बराबर सवाल खड़े किए गए हैं.

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हाल ही में वीडियोकॉन ग्रुप की 13 कंपनियों का मामला इसकी मिसाल है. इस ग्रुप पर बैंकों और अपने ऑपरेशनल क्रेडिटर्स का करीब 64,839 करोड़ रुपए बकाया था. लेकिन यह ट्विन स्टार टेक्नोलॉजीज़ के हाथों सिर्फ 2,962 करोड़ रुपए में बिकी. आईबीसी इसके कोई काम नहीं आई.

आईबीसी के तहत जब कोई कंपनी कॉरपोरेट इनसॉल्वेंसी रेज़ोल्यूशन प्रोसेस यानी सीआईआरपी में जाती है तो नतीजा यह होता है कि इसके लिए रेज़ोल्यूशन प्लान बनाया जाता है. इस प्लान में सब कुछ शामिल होता है. कंपनी के प्रबंधन से लेकर प्रॉडक्ट का प्रोफाइल बदल सकता है. कंपनी रीस्ट्रक्चर हो सकती है, या उसका बिजनेस मॉडल दोबारा से बनाया जा सकता है. डीफॉल्ट लोन के पुनर्भुगतान का शेड्यूल भी बदल सकता है.

छोटी-छोटी रिकवरी किस काम की?

लेकिन आईबीसी के इतिहास पर नजर डालिए. आपको पता चलेगा कि रेज़ोल्यूशन प्लान के तहत ऋण न चुका पाने वाली कंपनी को अक्सर दूसरी कंपनी को बेच दिया जाता है. जैसे वीडियोकॉन ग्रुप की कंपनियों को ट्विन स्टार टेक्नोलॉजीज़ को बेच दिया गया.

इससे जो पैसा रिकवर होता है, उसे बैंकों और ऑपरेशनल क्रेडिटर्स में बांट दिया जाता है जिनका पैसा बकाया होता है. जब कोई कंपनी वित्तीय संकट में फंसती है तो सिर्फ बैंक लोन पर डीफॉल्ट नहीं करती. बल्कि अपने कर्मचारियों, सप्लायर्स, कॉन्ट्रैक्टर्स वगैरह पर भी उसका पैसा बकाया होता है. इन क्रेडिटर्स को ऑपरेशनल क्रेडिटर्स कहा जाता है.
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इस तरह वीडियोकॉन ग्रुप की कंपनियों के मामले में रिकवरी की दर वित्तीय और ऑपरेशनल क्रेडिटर्स की बकाया राशि का 4.6 प्रतिशत (64,839 करोड़ रुपए में 2,962 रुपए के प्रतिशत के तौर पर) थी. इसे देखते हुए क्रेडिटर्स का हेयरकट यानी नुकसान की मात्रा 95 प्रतिशत से ज्यादा थी.

हैरान होने की बात नहीं. इस पर शोर-शराबा होना जायज था. अगर 100 रुपए के डीफॉल्ट पर सिर्फ पांच रुपए ही रिकवर हों, तो सारी जद्दोजेहद का क्या मतलब हुआ?

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बड़े हेयरकट्स और बढ़ते डीफॉल्ट

राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) ने संभावित लेनदेन को रोक दिया है. यूं वीडियोकॉन ग्रुप का मामला अकेला मामला नहीं जिसमें उधारकर्ताओं ने इतना बड़ा हेयरकट लेने का फैसला किया. इससे पहले आलोक इंडस्ट्रीज़ 5,052 करोड़ रुपए में बिकी थी, जबकि उसके वित्तीय लेनदारों की बकाया राशि 29,523 करोड़ रुपए थी. तब 83 प्रतिशत का हेयरकट था. रिलायंस इंफ्राटेल के मामले में हेयरकट 90 प्रतिशत था. उस पर 41,055 करोड़ रुपए का बकाया था और रिकवरी हुई थी 4,236 करोड़ रुपए की.

इसलिए सवाल यह है कि बैंक इतने बड़े हेयरकट के लिए क्यों तैयार होतो हैं? इसका छोटा सा जवाब यह है कि उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है- और यह समझना महत्वपूर्ण है.

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डीफॉल्ट करने वाली कंपनी को दूसरी कंपनी को बेचा जा सकता है. इस तरह मिलने वाले पैसे का इस्तेमाल लेनदारों को भुगतान करने के लिए किया जाता है. लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा हमेशा नहीं होता. 2017 से मार्च 2021 के बीच 2,653 सीआईआरपीज को बंद कर दिया गया. इसमें से सिर्फ 348 कंपनियों, या लगभग 13 प्रतिशत के लिए रेज़ोल्यूशन प्लान मंजूर हुआ था.

यानी किसी कंपनी को एनसीएलटी प्रक्रिया के जरिए रेज़ोल्यूशन प्लान मिलने की संभावना बहुत कम होती है.

इसके विपरीत इस बात की आशंका ज्यादा होती है कि कंपनी का लिक्विडेशन हो जाए और उसके एसेट्स बिक जाएं. वैसे कोई वित्तीय लेनदार ऐसा नहीं चाहता. क्योंकि इसके जरिए बहुत कम रिकवरी हो पाती है.

दरअसल सच्चाई तो यह है कि भारत में ऐसी व्यवस्था मौजूद ही नहीं है जोकि लिक्विडेशन की प्रक्रिया में मदद करे.

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भारतीय इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी बोर्ड के आंकड़े कहते हैं कि मार्च 2021 तक 1,277 कंपनियों का लिक्विडेशन हुआ है. इनमें से 1,271 कंपनियों के डेटा उपलब्ध हैं और इससे कोई बहुत अच्छी तस्वीर उभरकर नहीं आती. इन मामलों में कुल बकाया राशि 6.47 लाख करोड़ रुपए है. लेकिन जमीनी स्तर पर सिर्फ 46,000 करोड़ रुपए के एसेट्स मौजूद हैं. इसके अलावा इन एसेट्स को बेचना बिल्कुल भी आसान नहीं है, और इसमें बहुत समय लगता है.

दिसंबर 2020 तक लगभग 69 प्रतिशत लिक्विडेशंस एक साल से ज्यादा समय से जारी हैं, 26 प्रतिशत को दो साल से ज्यादा समय बीत गया है. इसी से पता चलता है कि कोई वित्तीय लेनदार (यानी बैंक) नहीं चाहता कि इस झमेले में फंसा जाए. इसीलिए बैंक बड़े हेयरकट्स के लिए तैयार हो जाते हैं. यह सोचकर कि जितनी रिकवरी हो जाए- उतना अच्छा है. और इसके बाद आगे बढ़ा जाए.

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वैसे आईबीसी इतनी भी बेमतलब नहीं

इसके अलावा यह बताना भी जरूरी है कि डीफॉल्ट करने वाली जिन कंपनियों के लिए रेज़ोल्यूशन प्लान मंजूर किया गया, आईबीसी के तहत उनकी रिकवरी की दर मार्च 2021 तक 39 प्रतिशत है. इस मामले

में वित्तीय लेनदारों की कुल बकाया राशि 5.16 लाख करोड़ रुपए थी. इसमें से करीब 2.03 लाख करोड़ रुपए रिकवर हुए. इस रिकवरी में बड़ी राशि दो स्टील कंपनियों- भूषण स्टील औऱ एस्सार स्टील की बिक्री से हासिल हुई. अगर हम इन दो कंपनियों को छोड़ दें तो रिकवरी की दर गिरकर 31 प्रतिशत रह जाती है. लेकिन 31 प्रतिशत रिकवरी दर भी दूसरे तरीकों से होने वाली रिकवरी से ज्यादा है. दूसरे तरीके यानी लोक अदालतें, ऋण वसूली ट्रिब्यूनल और सरफेसी एक्ट (यानी वित्तीय परिसंपत्तियों के प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण और प्रतिभूति हित प्रवर्तन अधिनियम).

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इसके अलावा आईबीसी के जरिए होने वाली रिकवरी की दर मार्च 2020 में 46 प्रतिशत थी. फिर वर्ष 2020-21 रिकवरी के लिए काफी बुरा साल रहा. बेशक, यह सब कुछ अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है. जैसा कि हमने पहले भी कहा है, मार्च 2021 तक रिकवरी की दर गिरकर 39 प्रतिशत पर आ गई. इसके अलावा डेटा से यह सच भी जाहिर नहीं होता कि आईबीसी ने कई डीफॉल्टिंग प्रमोटर्स को बैंकों से बातचीत को मजबूर किया और सीआईआरपी में जाने से पहले कंपनी को सेटलमेंट करना पड़ा.

हां, आईबीसी में समस्याएं हैं. फिर भी इसने कुछ अच्छे काम भी किए हैं. रेज़ोल्यूशन प्लान में जाने वाली कंपनियों की रिकवरी की दर को देखकर यह साफ पता चलता है. कंपनियों को भी अब इस बात का डर लगता है कि अगर उन्होंने डीफॉल्ट किया तो कंपनी उनके हाथ से चली जाएगी. इसका आकलन करना तो मुश्किल है लेकिन आईबीसी से यह फायदा भी हुआ है.

सही बात तो यह है कि सुधार की बहुत गुंजाइश है, जैसा कि किसी भी व्यवस्था में होता है. लोकसभा की वित्त संबंधी स्थायी समिति ने अपनी हाल की एक रिपोर्ट में इसकी तरफ इशारा किया है. उसने कहा है कि आईबीसी के 13,170 मामले लंबित हैं जिनमें कुल डीफॉल्ट राशि 9.2 लाख करोड़ रुपए की है. इनमें से 6.77 लाख करोड़ राशि वित्तीय लेनदारों यानी मुख्य रूप बैंकों की है.

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संहिता में सुधार की जरूरत

डीफॉल्ट करने वाली कंपनियां जितनी जल्दी सीआईआरपी में जाती हैं, उतनी ज्यादा उनकी रिकवरी की संभावना होती है. लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता.

इसके विपरीत, डीफॉल्ट करने वाली कंपनी को जितना वक्त सीआईआरपी में जाने में लगता है, उतने अधिक समय तक कंपनी पर प्रमोटर का नियंत्रण बना रहता है. वह एसेट्स को ट्रांसफर कर सकता है. फंड्स को डायवर्ट कर सकता है. हो सकता है, तब तक उसके बही खाते से सब कुछ साफ हो जाए.

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डीफॉल्ट करने वाली बहुत सी कंपनियों को नीलामी के बाद अनचाही बोलियां मिलीं. इससे यह पूरी प्रक्रिया और लंबी खिंच जाती है. आईबीसी में संशोधन किए जाने की जरूरत है और ऐसी बोलियों की इजाजत ही नहीं होनी चाहिए क्योंकि उससे प्रक्रियागत अनिश्चितता कायम होती है.

कई मामलों में खराब निर्णयों को देखते हुए अदालतों में रेज़ोल्यूशन प्लान के खिलाफ अपील भी दायर की जाती है. इस सबसे भी रेज़ोल्यूशन में वक्त लगता है और इस बीच कंपनी की कीमत गिरती जाती है.

आखिर में कहा जा सकता है कि आईबीसी हाल के कुछ असली सुधारों में से एक है. बेशक, इस व्यवस्था में कुछ समस्याएं मौजूद हैं. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यह पूरी तरह से बेमतलब है. चूंकि पहले की व्यवस्थाएं इससे भी खराब थीं. हमें मौजूदा व्यवस्था में सुधार करने की जरूरत है. किसी भी नए कानून, जैसे आईबीसी के अर्थव्यवस्था पर बहुत सारे असर होते है, तो उस पर काम करते रहना पड़ता है. कमियां दूर करनी पड़ती हैं और नई तरकीबें सोचनी पड़ती हैं.

(विवेक कौल ‘बैड मनी’ के लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @kaul_vivek है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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