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रॉय दंपति पर सीबीआई की रेड आपराधिक जांच है या कोई साजिश?

क्या यह अच्छी नीयत से एक आपराधिक जांच का मामला है या किसी को उसकी औकात बताने के लिए निशाना बनाया जा रहा है?

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प्रणय रॉय और राधिका रॉय के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बाद उनके यहां जो छापे पड़े, अपनी सोच के हिसाब से उस पर लोग दो तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. एक वर्ग का कहना है कि एक के बाद एक नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ आखिरकार कानून अपना काम कर रहा है तो दूसरे वर्ग का कहना है कि सरकार विरोध की आवाज दबाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल कर रही है.

इसे लेकर भ्रम था कि सीबीआई क्या जांच कर रही है, लेकिन एफआईआर की कॉपी सार्वजनिक होने के बाद स्पष्ट हो गया है कि मामला एनडीटीवी के प्रमोटर्स रॉय दंपति और आरआरपीआर लिमिटेड के आईसीआईसीआई बैंक से लिए लोन से जुड़ा है. सीबीआई यह जांच कर रही है कि रॉय दंपति और आरआरपीआर ने बैंक से जो कर्ज लिया था, जिसे बाद में चुका दिया गया, वह भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 (पीसीए) के तहत आता है या नहीं?

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कौन है ‘जन-प्रतिनिधि’?

पहली नजर में यह मामला ‘पहेली’ लग सकता है. आखिरकार आईसीआईसीआई बैंक प्राइवेट सेक्टर की संस्था है और पीसीए के तहत जन-प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार की जांच होती है. इस सवाल का जवाब सीबीआई बनाम रमेश गेल्ली मुकदमे से जुड़ा है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट का हाल ही में फैसला आया था. बैंकिंग कानून, 1949 के सेक्शन 49-ए और भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 का विश्लेषण करते हुए अदालत ने स्पष्ट किया था कि निजी बैंकों के कर्मचारी और अधिकारी भी ‘जन-प्रतिनिधि’ की परिभाषा के दायरे में आते हैं.

1956 में बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट में संशोधन के बाद से इसे लेकर कुछ भ्रम बना हुआ था कि क्या भ्रष्टाचार के मामलों में सभी बैंकों के कर्मचारियों और मैनेजमेंट को ‘जन-प्रतिनिधि’ माना जाएगा? हालांकि, बाद में भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड यानी आईपीसी) में संशोधन करके भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की धाराएं इससे हटा दी गई थीं और उन्हें एक नए कानून के तहत कर दिया गया था. तब से इस पर उलझन बनी हुई थी कि क्या प्राइवेट बैंकों के कर्मचारियों को नए कानून के तहत ‘जन-प्रतिनिधि’ माना जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने ये भ्रम दूर कर दिया.

कथित आरोप

आईसीआईसीआई बैंक और रॉय दंपती ने क्या अपराध किए हैं? क्वॉन्टम सिक्योरिटीज के डायरेक्टर संजय दत्त की शिकायत को हूबहू एफआईआर में दर्ज किया गया है. दत्त एनडीटीवी और आईसीआईसीआई बैंक दोनों के ही शेयरहोल्डर हैं. एफआईआर के आखिरी और लचर पैरा में सीबीआई ने कहा है कि यह पब्लिक सर्वेंट के एक शख्स के द्वारा अवैध तरीके से फायदा पहुंचाने का मामला है, जिसमें पीसीए के मुताबिक कार्रवाई की जा सकती है. एफआईआर में आपराधिक साजिश और धोखाधड़ी के आरोप भी लगाए गए हैं. पुलिस ने यह नहीं बताया कि किस अपराध की जांच हो रही है और आईसीआईसीआई बैंक और रॉय दंपती किस वजह से जांच के घेरे में हैं. इसका ध्यान रखें कि इस मामले में भ्रष्टाचार साबित होने पर ही सीबीआई इसकी जांच कर सकती है

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48 करोड़ का लॉस

इसमें मुख्य आरोप यह लगाया गया है कि आरआरपीआर और आईसीआईसीआई बैंक के अधिकारियों की मिलीभगत के चलते बैंक को 48 करोड़ का ‘लॉस’ हुआ. इसका आधार यह है कि आरआरपीआर ने आईसीआईसीआई बैंक को सेटलमेंट के तहत 350 करोड़ रुपये का भुगतान किया. बैंक ने इसे फुल सेटलमेंट माना है. एफआईआर के मुताबिक, इसका मतलब है कि बैंक को 48 करोड़ रुपये के ब्याज का नुकसान हुआ. पीसीए के तहत यह किस तरह से अपराध है? अगर किसी को फायदा होता है और सरकार को नुकसान (क्योंकि इसमें आईसीआईसीआई बैंक को सरकारी संस्था माना गया है) तो यह अपने आप अपराध नहीं बन जाता. कानून कहता है कि अगर कुछ अवैध नहीं हुआ है या ताकत का बेजा इस्तेमाल नहीं किया गया है या ऐसे लॉस से पब्लिक इंटरेस्ट नहीं जुड़ा है तो उसमें एक्शन नहीं लिया जा सकता.
क्या आईसीआईसीआई ने बैंक रूल्स की अनदेखी की?



क्या यह अच्छी नीयत से एक आपराधिक जांच का मामला है या किसी को उसकी औकात बताने के लिए निशाना बनाया जा रहा है?
NDTV के संस्थापक प्रणय रॉय और राधिका रॉय के दिल्ली वाले घर पर सीबीआई ने छापेमारी की (Photo: PTI)

क्या आईसीआईसीआई ने बैंक रूल्स की अनदेखी की?

बैंक पर एनडीटीवी के शेयर गिरवी रखने के मामले में बैंकिंग कानून की अनदेखी का आरोप लगा है, लेकिन यह ठीक नहीं है. अगर बैंक रिजर्व बैंक के सर्कुलर और नियमों के मुताबिक ऐसे शेयर गिरवी रखता है तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है. आरबीआई को इस मामले का पता है और उसने अभी तक बैंक के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया है. इससे संकेत मिलता है कि उसे इस मामले में बैंक की कोई गलती नजर नहीं आ रही है. वित्त वर्ष 2010-11 में आरआरपीआर की बैलेंस शीट में कथित गड़बड़ी का आरोप लगाया है. शिकायत करने वाले के मुताबिक, इसमें आरआरपीआर ने माना है कि उसे आईसीआईसीआई बैंक का कर्ज चुकाना है, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि यह बकाया रकम लॉन्ग टर्म लोन है. बैंक अधिकारियों पर दूसरा आरोप यह है कि उन्होंने आरआरपीआर को दिए लोन में बैंक का नुकसान करवाया और विश्वप्रधान कमर्शियल प्राइवेट लिमिटेड से फंड जुटाने में कंपनी की मदद की, लेकिन इसके सबूत नहीं दिए गए हैं. शिकायत दर्ज कराने वाले ने यह तक नहीं कहा है कि उन्हें इसकी निजी तौर पर जानकारी है, लेकिन दिलचस्प बात है कि सीबीआई ने ना सिर्फ इस आधार पर एफआईआर दर्ज की बल्कि ‘पूरी पड़ताल’ करने के बाद छापे भी मारे.

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आठ साल की देरी

सीबीआई की एफआईआर में अपराध का ब्योरा नहीं दिया गया है. यह नहीं बताया गया है कि बैंक अधिकारियों ने किस तरह से पीसीए का उल्लंघन किया? सबसे बड़ी बात यह है कि 8 साल तक कोई एक्शन क्यों नहीं लिया गया. इसलिए यह मामला शायद ही अदालत में टिक पाए. एफआईआर अक्सर देरी की बिनाह पर खारिज कर दिए जाते हैं. इस मामले में सीबीआई 8 साल की देरी को कैसे सही ठहराएगी, वह भी यह देखते हुए कि यही आरोप दत्त पहले भी एनडीटीवी के खिलाफ लगा चुके थे.

लोन पर रियायत का पेच

अगर ये आरोप सही भी साबित होते हैं और उस आधार पर कार्यवाही होती है तो इसके नतीजे क्या होंगे- अगर आपने होम लोन या पर्सनल लोन पर बैंक से कोई रियायत हासिल की है तो आप और आपको रियायत देने वाला बैंक कर्मचारी दोनों ही पीसीए के तहत अपराधी माने जाएंगे. हाल में जिन बैंकों के अधिकारियों ने रिलायंस कम्युनिकेशंस को कर्ज चुकाने के लिए 7 महीने की मोहलत दी है, उनका क्या होगा? इस मामले में बैंक का मकसद नेक है, लेकिन एनडीटीवी वाले मामले के हिसाब से वह कानून के खिलाफ माना जाएगा. इसके बाद बात घूम-फिरकर उसी शुरुआती डिबेट पर पहुंचती है, क्या यह अच्छी नीयत से एक आपराधिक जांच का मामला है या किसी को उसकी औकात बताने के लिए निशाना बनाया जा रहा है?

(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु में वकालत करते हैं और आप @alokpi पर उनसे संपर्क कर सकते हैं. उपर्युक्त विचार लेखक के निजी हैं और क्विंट हिंदी का इससे कोई सरोकार नहीं है.)

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